अध्याय तेरहवाँ - श्लोक ४१ से ६०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


बुध्दिमान मनुष्य पुराने काष्ठोंसे घरको न बनवावे और बनवावे तो मरण और संपदाओंके नाशको प्राप्त होता है ॥४१॥

जीर्ण घरमें नवीन काष्ठ श्रेष्ठ होता है और नवीन घरमें जीर्ण ( पुराना ) काष्ठ श्रेष्ठ नहीं होता है. जिस स्थानके घर पूर्व उत्तरमें नीचे हों और दक्षिण पश्चिममें ऊंचे हों ॥४२॥

जिसकी संपूर्ण दिशा तिरछी हों जिसके भागमें पीडाके दाता घर हो जो दक्षिणको एक योजन ऊंचा हो पश्चिममें अर्ध्द्वयोजन ऊंचा हो ॥४३॥

उससे आधा ऊंचा उत्तरमें हो, उससे आधा पूर्व दिशामें हो, हे द्विजो ! यह वेध राजाओंके घरोंका मैने कहा है ॥४४॥

इसके अनन्तर विशेषकर द्विजातियोंके घरोंका प्रमाण कहता हूं-पूर्व उत्तरके नीचे भागमें १७० पादोंसे जो युक्त हो ॥४५॥

पश्चिम और दक्षिणमें जिसकी लम्बाई सार्द्वद्विशत ( अढाई सौ ) हो, जिसके ऊपरके भागमें स्थित मनुष्य एक घरसे यदि दूसरे घरको ॥४६॥

दक्षिणमें स्थित हो उसका देखसके वह वेध कहा है, उच्च भागमें स्थित हो वा नीचे भागमें स्थित हो परंन्तु दक्षिणके घरको सदैव त्यागदे ॥४७॥

उसमें वसे तो अवस्था पुत्र कलत्र ये शीघ्र नष्ट होते हैं, पूर्व उत्तरमें जो घर नीचा है वह जलके समीप भागमें होय तो ॥४८॥

मध्यकी भूमि दोषकी दाता नहीं होती, इतने ये दोनों घर दीखनेके योग्य हों, जो घर ऊंचे भागमें स्थित पूर्वदिशाके भागमें बीस दंड हों वह भी श्रेष्ठ है ॥४९॥

अन्यजातिका मनुष्य राजाके मंदिरमें न वसे. सौम्य ( उत्तर ) भागमें जिसके तीस दंड और पश्चिममें चालीस दण्डहों ॥५०॥

जिसकी दक्षिणदिशामें पंचाशत ५० द्ण्ड हों और नीचे भागमें स्थित हों, प्रासादकी वीथी ( गली ) घर और अग्नि ईशान और नैऋत कोणमें जिसके वेध हों यह त्रिकोणवेध संक्षेपसे कहा. पुत्रका अभिलाषी मनुष्य इसको विशेषकर वर्जदे ॥५१॥

अग्निकोणका घर दृष्टिसे विध्द होता है, वायुकोणका घर द्विगुणभूमियोंमें विध्द होता है. नैऋत्यमें इतने दृष्टिके मार्गमें हो और ईशानमें गृहसे तिगुनगृहसे वेध होता है ॥५२॥

यह राजाओंके घरोंका वेध वर्णोंके क्रमसे कहा वह वेध पूर्व दिशाआदिके क्रमसे ब्राम्हण आदिकोंके क्रमसे कहा, द्विजोंके मंदिरसे पचाश धनुष नीचा अंत्यजातियोंको मंदिर बनवाना और सौम्य स्वभावका नीचजन सत्तरदंड नीचा घर बनवावे ॥५३॥

वरुणकी दिशामें स्थित घर ऊंचाईमें प्रांतके दण्डभर पुरके प्रमाणसे न्यून दक्षिणदिशाका घर ऊंचाईमें बीस दण्डभर न्यून होना चाहिये ॥५४॥

अब संक्षेपसे शूद्रोंके पुरसे लेकर पुरको कहता हूँ-प्रांतभागमें दश दण्डपर्यंत पूर्वभागमें नीचा हो ॥५५॥

नीचे स्थानमें स्थित घरके उत्तर भागमें द्वादश १२ दण्ड होने चाहिये. यदि पश्चिमका घर उच्च भूमिमें होय तो तीस दण्ड होते हैं ॥५६॥

दक्षिण भागमें सौ दण्डपर्यंत गृहोंको वर्जदे अर्थात न बनवावे. विपरीत भागमें बुध्दिमान मनुष्य पूर्वोक्तसे पादहीन दण्डोंको त्यागकर ॥५७॥

सौ दण्डपर्यंतमें पुरवासियोंको पीडा होती है. ये द्विजोमें श्रेष्ठोंको समान भूमिमें वेध त्यागने योग्य हैं ॥५८॥

जिस भवनवर ( श्रेष्ठ ) का दिशाओंके विषयमें दक्षिणमें अन्तहो उसमें धनका क्षय और स्त्रियोंमें दोष होता है प्रेक्षत्व ( दीखने योग्य ) जो अन्य घरसे हो उस घरमें बसनेवाले पुरुषोंके पुत्रोंका मरण होता है. पुरा घर वा घरका अर्ध्व भाग यह चौथा भाव यदि दिशाओंके विषयमें स्थित हो और दक्षिण दिशामें स्थित घरके ऊंचे वा नीचे भागमें आगे दूसरा घर होय तो दोष होता है ॥५९॥

जैसे अमावास्यामें उत्पन्न हुई कन्या और पुत्र ये योगसे पिताक मरणको करते हैं. ऐसे ही प्रतापका अभिलाषी मनुष्य दक्षिण दिशाके घरको त्यागदे ॥६०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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