अध्याय नववाँ - श्लोक २१ से ४०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


सर्पसे युक्त वृक्षसे सर्पका भय हो और देवालयके वृक्षसे नाश होता है और कन्याका जिसमें चिन्ह हो उससे कन्याओंका जन्म होता है छिद्रोंसे जो युक्त हो उससे स्वामीका भय होता है. लिंग वा प्रतिमा वा शुक्र इन्द्रध्वजा इनको ॥२१॥

कृत्तिका आदि पांच नक्षत्रोंमें चन्द्रमा होय तो कदाचित न बनवावे,घर देवालय इनमें यत्नसे इसकी परीक्षा करे और मासदग्ध वारदग्ध और तिथिदग्ध ॥२२॥

रिक्ता तिथि अमावास्या और षष्ठी ६ तिथि इनको भी वर्जदे. एकार्गल दोष और भद्रा और अन्य जो कुयोग हैं ॥२३॥

और उत्पातसे दुषित जो नक्षत्र हैं संक्रांति ग्रहण वैधृति व्यतीपात इनमें घरको कदाचित न बनवावे ॥२४॥

मृगशिर पुनर्वसु अनुराधा हस्त मूल दोनों उत्तरा स्वाति श्रवण इनमें वृक्षोंका छेदन शुभदायी होता है ॥२५॥

जिस वनकी भूमि समान हो उस वनमें वृक्षका पूजन करै और पुष्प आदि नैवेद्यको और विशेषकर बलिको दे ॥२६॥

वस्त्रसे आच्छादित (ढक) करके सूत्रसे लपेटे वर्णमें श्वेतवर्ण हो वा चार वर्णोंके युक्तवर्णका हो ऐसे सूत्रसे लपेटे ॥२७॥

इन मन्त्रोंसे उस वृक्षकी यथायोग्य प्रार्थना करै और आचार्य अथवा सूत्रधार रात्रिके समय उस वृक्षके समीप अधिवास (शयन) करे ॥२८॥

विधिका ज्ञाता आचार्य वृक्षका स्पर्श करके रात्रिके समय इस मन्त्रको उच्चारण करै कि, इस वृक्षमें जो भूत है उनके स्वस्ति (कल्याण) हो और उनको नमस्कार है ॥२९॥

इस बलिको ग्रहण करके अपने वासका पर्याय आप करो अर्थात अन्यत्र जा बसो प्रार्थना करके वर मांगे. हे वृक्षमें श्रेष्ठ!आपका कल्याण हो ॥३०॥

घरके लिये वा अन्य कार्यके लिये इस पूजाको ग्रहण करो परम अन्न जलौदन दधि पल्लोल आदि दशोंसे ॥३१॥

फ़िर मद्य पुष्प धूप गन्ध इनसे तरुकी पूजा करके कहे कि, सुर पितर पिशाच राक्षस सर्प असुर विनायक ये सब मेरी दी हुई पूजा बलिको ग्रहण करो और फ़िर वृक्षका स्पर्श करके कहे कि ॥३२॥

जो भूत इस वृक्षमें बसते हैं वे विधिसे दी हुई मेरी बलिको ग्रहण करके अन्यस्थानमें वासको स्वीकार करो और क्षमा करो अब उनको नमस्कार है ॥३३॥

प्रात:कालके समय वृक्षको जलसे सीचकर शह और घी जिसपर लिपाया हो ऐसे कुठारसे पूर्व-उत्तरकी दिशामें प्रदक्षिणा क्रमसे भली प्रकार छेदन करके उसके अनन्तर शेष वृक्षका छेदन करे ॥३४॥

और गोलाकारसे छेदन करे और वृक्षके पतनको देखतारहै, पूर्व दिशामें गिरे तो धन और धान्यसे पूरित घर होता है, अग्नि दिशामें पडै तो अग्निका दाह करता है दक्षिणका पतन मृत्युको देता है नैऋत्यमें कलहको करता है और पश्चिमका पतन पशुओंकी वृध्दिको देता है ॥३५॥

वायव्यमें चौरोंका भय रहता है उत्तरके पतनमें धनका आगम होता है ईशानमें महाश्रेष्ठ और अनेक प्रकारसे उत्तम होता है ॥३६॥

जो काष्ठ भग्न होता है और अन्यवृक्षके मध्यमें जमे हुए वृक्षका जो काष्ठ होता है वह घरमें लगाना श्रेष्ठ नहीं है किंतु वर्जित है और दूषित कर्मको करवाता है ॥३७॥

भग्नकाष्ठमें नारीका मरण होता है शस्त्रके छेदनकिये काष्ठसे स्वामीका नाश होता है मध्यका काष्ठ कर्मके कर्ता ( मिस्त्री ) को नष्ट करता है अधिकभी धनका नाशकारी है ॥३८॥

एक भागका काष्ठ महाश्रेष्ठ होता है और धन धान्यकी वृध्दिको देता है और पुत्र द्वारा पशु और अनेक रत्नोंसे युक्त घरको करता है ॥३९॥

दो भागका वृक्ष सफ़ल कहा है तीन भागका दु:खदायी होता है और चार छ: भागके बन्धनको जाने और पांचभागमें मृत्युको कहै ॥४०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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