अध्याय नववाँ - श्लोक १ से २०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


इसके अनन्तर हे विप्रेन्द ! ( काष्ठ ) वृक्षके छेदनकी विधिको श्रवण करो. देवदारु चन्दन शमी ( छोंकर ) महुआ ये वृक्ष ॥१॥

ब्राम्हणोंके लिये शोभन और सब कर्मोंमें श्रेष्ठ होते हैं और क्षत्रियोंके खदिर बेल अर्जुन शिंशप ( शिरस ) ॥२॥

शाल तुनिका सरल ये वृक्ष राजाओंके मंदिरोंमें सिध्दिके दाता होते है और वैश्योंको खदिर सिंधु स्यंदन ये शुभदाता होते हैं ॥३॥

तिंदुक अर्जुन शाश वैसर आम, कंटक और जो अन्य क्षीरवृक्ष हैं वे शुद्रोंको शुभदायी कहे हैं ॥४॥

द्विस्वभावराशिके सूर्यमें माघमें और भाद्रपदमें काष्ठसंचयके लिये वृक्षोंका छेदन न करवावे ॥५॥

सूर्यके नक्षत्रसे वेद ४ गो २ तर्क ६ दिक १० विश्व १३ नख २० इनकी तुल्य चन्द्रमाका नक्षत्र होय तो दारुकाष्ठोंका छेदन शुभदायी होता है ॥६॥

सब वर्णोंके लिये शुभदायी पूर्वोक्त काष्ठ कहै और देवदारु चन्दन शमी शिंशिपा खदिर ॥७॥

शाल और शालविस्तृत अर्थात शालके समान जिनका विस्तार हो ये वृक्ष सब जातियोंमें श्रेष्ठ हैं. एकजातिके वा दोजातिके जो वृक्ष हैं ॥८॥

उनको ही सब घरोंमें लगावे. तीन जातियोंसे ऊपर न लगावै अर्थात तीन प्रकारके काष्ठतक ही घरोंमें लगावै चार पांच जातिके नहीं और एक काष्ठके जो घर हैं वे सब दु:खोंके निवारक कहे हैं ॥९॥

दो जातिके काष्ठ मध्यम और तीन जातिके अधम कहे हैं. दूधवाले और फ़लके दाता और और कंटक आदि वृक्षोंको वर्ज दे ॥१०॥

श्मशान अग्नि और भूमि इनसे दूषित और वर्जसे मर्दित और पवनसे भग्न(टूटा) मार्गका वृक्ष लताओंसे आच्छन्नढका)चैत्य(चबुतरा) का वृक्ष कुलका वृक्ष अर्थात बडोंका लगायाहुआ वृक्ष देवताका वृक्ष ॥११॥

अर्ध्द्वभग्न अर्ध्द्वदग्ध अर्ध्द्वशुष्क अर्थात जो आधे जले सूखे हों ॥१२॥

व्यंग (तिरछे) कुब्ज (कुबडे) काण अत्यंत जीर्ण और तीन शिरके बहुत शिरके और दूसरे वृक्षसे तोडे ए ॥१३॥

जो वृक्ष स्त्रीके नामसे प्रसिध्द हैं ये पूर्वोक्त संपूर्ण वृक्ष घरके कामोंमें वर्जने योग्य हैं. दूधवाले वृक्ष दूधको और फ़लके दाता वृक्ष पुत्रोंको नष्ट करते हैं ॥१४॥

कंटकी वृक्ष कलहको करता है. जिसपर काक बैठते हों वह धनका क्षय करता है. गीधोंका वृक्ष महारोगको और श्मशानके वृक्ष मरणको देते हैं ॥१५॥

जिसपर बिजली गिरीहो वह वज्रभयको देता है. जो पवनसे दूषित हो वह वातके भयको देता है,मार्गके वृक्षसे कुलका ध्वंस होता है,पुरच्छन्नवृक्ष भयको देता है ॥१६॥

कुलके वृक्षसे मृत्यु, देववृक्षसे धनका नाश, चैत्यके वृक्षसे गृहके स्वामीकी मृत्यु, कुलदेवके वृक्षसे भय होता है ॥१७॥

अर्ध्द्वभग्न वृक्ष विनाशको अर्ध्वशुष्क धनके नाशको करते हैं व्यंगमें प्रजा (सन्तान) का मरण जानना. कुब्जमें कुब्ज संतान होती है ॥१८॥

काणे वृक्षसे राजाके भयको जाने, अत्यन्त जीर्णवृक्षसे घरका क्षय होता है, तीन शिरके वृक्षसे गर्भका पात होता है और अनेक शिरके वृक्षसे सन्तानका मरण होता है ॥१९॥ अन्यवृक्षसे जो भेदन किया हो उससे शत्रुका भय होता है, उद्यानके वृक्षसे आकाशमें भय होता है और लताओंसे जो ढकाहो उससे दरिद्रता और पुष्पके वृक्षसे कुलका नाश होता है ॥२०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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