अध्याय साँतवा - श्लोक ६१ से ८०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


भगराज ( पूर्वाफ़ा० ) में धनहीन होता है, मृगशिरामें पुत्रका नाश, मघामें पश्चिममुखका द्वार बनावे तो अल्प आयु धनका अभाव महान भय होता है ॥६१॥

सुग्रीवमें पुत्रका नाश, पुष्पदंतमे वृध्दि वरुणमें क्रोध और भोग असुरमें राजाका भंग होता है ॥६२॥

शोकमें नित्यअत्यन्य सूखापन, पापनामकेमें पापका संचय, उत्तरमें नित्य रोग और मरण, नागमें महान शत्रुका भय होता है ॥६३॥

मुख्यमें धन और पुत्रोंकी उत्पत्ति, भल्लाटमें विपुल ( बहुत ) लक्ष्मी, सोममें धर्मशीलता भुजंगमें बहुत वैर होता है ॥६४॥

आदित्यवारको सदैव कन्याओंका जन्म अदिति नक्षत्रमें धनका संचय होता है पदपदमें किया श्रेष्ठदार श्रेष्ठ फ़लको देता है अर्थात काष्ठका प्रमाण पदप्रमाणका हो ॥६५॥

जो दो पदोंसे बनाया हो वह मिश्र फ़लको देता है, नौ ९ से भाग दिये सूत्रमें वा वसुभागके प्रमाणसे ॥६६॥

प्रासादमें बुध्दिमान मनुष्य द्वारको बनवावे. आवास ( बसनेका घर ) में कोई विचार नहीं है, अनेक द्वारोंके अलिन्दों ( देहली ) में द्वारका नियम नहीं कहा है ॥६७॥

जीर्णोद्वार सदनमें ( घरमें ) और साधारण घरोंमें मूलमें द्वार (छिद्र ) घटमें स्वस्तिकके समान करना ॥६८॥

जिसका आतपत्र ( छत्र ) प्रथमगणोंसे आकीर्ण ( युक्त ) हो वह श्रेष्ठ होता है, वीथि

( गली ) प्रमाणसे परै जो दक्षिण पश्चिमका द्वार है वह ॥६९॥

प्रथम आकीर्ण न करना चाहिये अथवा उस द्वारको सुखदायी बनवावे अथात सुखसे जाने आने योग्य होना चाहिये, प्राकार और प्रपामें द्वार पूर्व और उत्तरमें बनवावे ॥७०॥

द्विशालाओंमें भी दुर्गमे द्वारक दोष नहीम होता है ॥७१॥

जो प्रधान महाद्वार बाहिरकी भीतोंमें स्थित है इसको भूति ( ऐश्वर्य ) क अभिलाषी राजा रथ्यासे विध्द न बनवावे ॥७२॥

जिस घरमें सरल मार्गसे प्रवेश होता है उसमें मार्गके वेधको नानाशोकरुप फ़लोंका दाता समझे ॥७३॥

यदि द्वारके मुखपर वृक्ष स्थित होय तो उसको तरुवेध जाने, उस वेशमें कुमारका मरण और नानाप्रकारके रोग होते हैं ॥७४॥

घरके भीतर जो बसते हैं उनको अपस्मार ( मृगी ) रोगका भय जानना. द्वारके आगे पांच प्रकारका वेध दु:ख शोक और रोगको देता है ॥७५॥

द्वारमें जलका स्त्राव ( बहना ) हो वा मूलमें होय तो अनर्थोंका समूह होता है द्वारके आगे देवताका स्थान होय तो बालकोंको दु:खदायी होता है ॥७६॥

देवताके मंदिरका द्वार होय तो वह विनाश करता है, महादेवके मंदिरका द्वार ब्रम्हाके स्थानके द्वारसे विंधा होय तो वह कुलको नष्ट करनेवाला होता है ॥७७॥

घरके मध्यभागमें बनाया हुआ द्वार द्रव्य और धान्यका विनाशक होता है, विनावात कलह शोकको ऐर स्त्रियोंके वासमें दुषणोंको करता है ॥७८॥

उत्तरमें जो पांचवां द्वार है उसको ब्रम्हासे विध कहते हैं तिससे संपूर्ण शिराओं ( कोण ) में और विशेषकर मध्यभागमें ॥७९॥

बुध्दिमान मनुष्य द्वारको न बनवावे और प्रासादमें तो पूर्वोक्तसे विपर्याय ( उलटा ) होता है देवताके संनिधान ( समीप ) में और श्मशानके संमुख गृहमें भी विपरीत फ़ल समझे ॥८०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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