अध्याय साँतवा - श्लोक ४१ से ६०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


शतभिषा अश्विनी हस्त ये क्रमसे पश्चिम दिशामें स्थित हैं स्वाती आश्लेषा अभिजित मृगशिर श्रवण घनिष्ठा ॥४१॥

भरणी रोहिणी ये क्रमसे उत्तरके द्वारमें स्थापन करै बुध्दिमान मनुष्य उस दिशा द्वारके नक्षत्रोंमें ही उस दिशाके द्वारको बनवावे ॥४२॥

और स्तम्भ आदिका स्थापनभी बुध्दिमान मनुष्य विधिसे करै और अधोमुख नक्षत्रोंमें देहली खातको करै ॥४३॥

और तिर्यडू.मुखनक्षत्रोंमें और द्वारके नक्षत्रोंमें स्तम्भ और द्वारका स्थापन प्रासाद हर्म्य और गृहोंके बीचमें सदैव करै ॥४४॥

पहिलास्तम्भ आग्नेयदिशामें विधिसे स्थापन करे और स्तम्भके ऊपर जब काक गीध आदि पक्षियोंको देखे ॥४५॥

और खोटे निमित्तोंको देखे तो कर्ताको शुभ नहीं होता तिससे स्तंभके ऊपर छत्र वा फ़लवाली शाखाको ॥४६॥

अथवा वस्त्रको धारण करवादे, बुध्दिमान मनुष्ट रत्न आदि स्थापन करे और शिलाद्वारके स्थापनमें दिशाका साधनभी करे ॥४७॥

स्तंभ वास्तुपुरुषको स्थापन गृहकर्म प्रासाद यज्ञमण्डप और बलिकर्म इनमें द्विकसाधन करे ॥४८॥

कृत्तिकाके उदयमें और श्रवणके उदयमें दिशा होती है, चित्रा और स्वातीके अन्तरमें प्राची होती है और सूर्यकी स्थितिमें दिन प्राची होती है ॥४९॥

यदि श्रवण पुष्य और चित्रा स्वातीका जो अन्तर यह प्राची दिशाका रुप है जब दण्डमात्र सूर्यका उदय होचुका हो ॥५०॥

द्वादशांगुलके मानसे वा शंकुसे कल्पना करे, शिलाका तल भलीप्रकार शुध्द हो और लिपा हो और समान हो ॥५१॥

इष्ट शंकुके प्रमाणसे समान मण्डलको लिखे, उसके मधमें शंकुको स्थापन करे और दो रेखावाले वृत्तको अर्थात गोल आकारको बनाकर कांतिके प्रवेशके लिये गमनके स्थापनमें कल्पना करे. फ़िर दूसरे दिन उसके मध्यमें शंकुक आरोपण करै ( रक्खे ) ॥५२॥

उसमें चिन्ह और उसका जो मान उन दोनों मानोंके जो अनतर ( समीप ) उसी अनुमानसे विषुवत ( तुला मेष ) संक्रातिके अंतके दिनतक साधन करै ॥५३॥

जितने चिन्होंका व्यवधान हो उतने वृत्तमें डारदे उनका शोधन करै वा योजन दक्षिण और उत्तर दोनोंमें करे अर्थात घटादे वा मिलादे ॥५४॥

क्रांतियोंके मध्यमें जो शेष रहै वही प्राची दिशा कही है ॥५५॥

अब द्वारके फ़लोंका वर्णन करते है-ईशानसे पूर्वमें और अग्निकोणसे दक्षिणमें और नैऋत्यस पश्चिममें और वायव्यसे उत्तर दिशामें क्रमसे चार दिशा स्थित रहती हैं ॥५६॥

पूर्व आदि दिशाके क्रम योगसे अग्निका बास होय तो अग्निका भय होता है, पर्जन्य ( मेघ ) होय तो अनन्त धनकी दाता बहुत नारी होता हैं ॥५७॥

माहेन्द्र ( इद्रधनुष्य ) होय तो राजाकी दया होती है, सूर्य होय तो अत्यंत क्रोध होता है सत्य होय तो अनृत होता है और अत्यंत क्रूर स्वभाव होता है ॥५८॥

अंतरिक्ष होय तो नित्य चोरोंका समागम होता है, दक्षिणमें होय तो पुत्रका नाश, वायव्यमें होनेसे दासभाव होता है ॥५९॥

वितथ ( झूठ ) में नीचता जाननी और घरमें सन्तति टिकती है, रेवती नक्षत्रमें द्वारको बनावे तो शूद्रकर्मकी करनेवाली संतान होती है, नैऋत्यमें कर्ताका नाश होता है ॥६०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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