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दया धर्म नाहीं मनीं, मुखोटा पाही दर्पणीं

   
Script: Devanagari

दया धर्म नाहीं मनीं, मुखोटा पाही दर्पणीं

   मूळ कबीराचा दोहा असा
   ‘ दया धर्म नहिं मनमो, मुखडा क्या देखे दर्पणमों ।’ मनांत दया किंवा धर्म मुळींच बाळगावयाचा नाहीं व स्वत: मात्र चैन करीत असावयाचें. केवळ आपल्याच स्वास्थ्याकडे लक्ष्य देणार्‍या व गरीबगुरिबांवी काळजी न घेणार्‍या मनुष्याबद्दल म्हणतात.

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