आश्विन शुक्लपक्ष व्रत - नवरात्रसमाप्ति

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


नवरात्रसमाप्ति

( देवीभागवत ) -

आश्विन शुक्ल दशमीके प्रातःकालमें भगवतीका यथाविधि पूजन करके नीराजन करे ।

' यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः ०'

से पुष्पाञ्जलि अर्पण करे ।

' मन्त्नहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं यदर्चितम् । पूर्णं भवतु तत् सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥'

से क्षमा - प्रार्थना करके

'ॐ दुर्गायै नमः'

कहकर एक पुष्प ईशानमें छोड़ दे और

' गच्छ गच्छ परं स्थानं स्वस्थानं देवि चण्डिके । व्रतस्त्रोतोजलं वृद्धयै तिष्ठ गेहे च भूतये ॥'

से कलशस्थ देवमूर्ति आदिको उठाकर यथास्थान स्थापित करे । यदि मूर्ति मृत्तिका आदिकी हो और यव - गोधूमके जुआरा हों तो उनको गायन - वादनके साथ समीपके जलाशयपर ले जाकर

' दुर्गे देवे जगन्मातः स्वस्थानं गच्छ पूजिते । षण्मासेषु व्यतीतेषु पुनरागमनाय वै ।

इमां पूजां मया देवि यथाशक्त्त्योपपादिताम् । रक्षार्थं त्वं समादाय व्रज स्वस्थानमुत्तमम् ॥'

इन मन्त्रोंसे मूर्तिका विसर्जन करके जलमें प्रवेश कराये और जुआरा आदि जलमें डाल दे । इस विषयमें ' मत्स्यसूक्त ' का यह आदेश है कि

' देवे दत्त्वा तु दानानि देवे दद्या़च्च दक्षिणाम् । तत् सर्वं ब्राह्मणे दद्यादन्यथा विफलं भवेत् ॥'

नवरात्रादिके अवसरमें स्थापित देवताके जो कुछ फल - नैवेद्य अथवा उपहारादि अर्पंण किया हो वह ब्राह्मणको देना चाहिये, अन्यथा विफल होता है ।

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Last Updated : January 21, 2009

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