वैशाख शुक्लपक्ष व्रत - पुत्रादिप्रद प्रदोषव्रत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


पुत्रादिप्रद प्रदोषव्रत ( मदनरत्न - निर्णयामृत ) -

यद्यापि प्रदोषव्रत प्रत्येक त्रयोदशीको होता है और इसके नियम आदि ऊपर दिये जा चुके हैं , तथापि कामनाभेदसे इसमें यह विशेषता है कि ( ( १ ) यदि पुत्रप्राप्तिकी कामना हो तो शुक्लपक्षकी जिस त्रयोदशीको शनिवार हो, उससे आरम्भ करके वर्षपर्यन्त या फल प्राप्त होनेतक व्रत करे ।

( २ ) ॠणमोचनकी कामना हो तो जिस त्रयोदशीको भौमवार हो उससे आरम्भ करे ।

( ३ ) सौभाग्य और स्त्रीकी समृद्धिकी कामना हो तो जिस त्रयोदशीको शुक्रवार हो, उससे आरम्भ करे ।

( ४ ) अभीष्ट - सिद्धिकी कामना हो तो जिस त्रयोदशीको सोमवार हो, उससे आरम्भ करे और यदि

( ५ ) आयु, आरोग्यादिकी कामना हो तो जिस त्रयोदशीको रविवार हो, उससे आरम्भ करके प्रत्येक शुक्ल - कृष्ण त्रयोदशीको एक वर्षतक करे । व्रतके दिन प्रातःस्त्रानादि करके

' मम पुत्रादिप्राप्तिकामनया प्रदोषव्रतमहं करिष्ये ।'

यह संकल्प करके सूर्यास्तके समय पुनः स्त्रान करे और शिवजीके समीप बैठकर वेदपाठी ब्राह्मणके आज्ञानुसार ' भवाय भवनाशाय०' इस मन्त्रसे प्रार्थना करके षोडशोपचारसे पूजन करे । नैवेद्यमें सेके हुए जौका सत्तू, घी और शक्करका भोग लगावे । इसके बाद वहीं आठों दिशाओंमें आठ दीपक रखकर प्रत्येकके स्थापनमें आठ बार नमस्कार करे । इसके बाद ' धर्मस्वं वृषरुपेण०' से वृष ( नन्दीश्वर ) को जल और दूर्वा खिला - पिलाकर उसका पूजन करे और उसको स्पर्श करके ' ऋणरोगादि ' इस पुरे मन्त्नसे शिव, पार्वती और नन्दिकेश्वरकी प्रार्थना करे । यह व्रत विशेषकर स्त्रियोंके करनेका है और वृषके पुच्छ और श्रृङ्ग आदिके स्पर्श करनेसे अभीष्टासिद्धि होती है ।

१. यदा त्रयोदशी शुक्ला मन्दवोरण संयुता ।

आरब्धव्यं व्रतं तत्र संतानफलसिद्धये ॥

ऋणप्रमोचनार्थं तु भौमवोरण संयुता ।

सौभाग्यस्त्रीसमृद्धर्थं शुक्रवोरण संयुता ॥

आयुरारोग्यसिद्धर्थं भानुवोरण संयुता ॥ ( मदनरत्न - निर्णयामृतान्तर्गतस्कन्दपुराणवचनानि )

२. भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमते ।

रुद्राय नीलकण्ठाय शर्वाय शशिमौलिने ॥

उग्रायोग्राघनाशाय भीमाय भयहारिणे ।

ईशानाय नमस्तुभ्यं पशूनां पतये नमः ॥

३. धर्मस्त्वं वृषरुपेण जगदानन्दकारक ।

अष्टमूर्तेरधिष्ठनमतः पाहि सनातन ॥

४. ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः ।

भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥

पृथ्विव्यां यानि तीर्थानि सागरान्तानि यानि च ।

अण्डमाश्रित्य तिष्ठन्ति प्रदोषे गोवृषस्य तु ॥

स्पृष्टा तु वृषणौ तस्य श्रृङ्गमध्ये विलोक्य च ।

पुच्छं च ककुदं चैव सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ( मदनरत्न - निर्णयामृतान्तर्गतस्कन्दपुराणवचनादि )

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Last Updated : January 17, 2009

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