हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|आत्मदशक| चंचललक्षणनिरूपणनाम आत्मदशक चातुर्यलक्षणनाम निस्पृहव्यापलक्षणनाम श्रेष्ठअतरात्मानिरूपणनाम शाश्वतब्रह्मनिरूपणनाम चंचललक्षणनिरूपणनाम चातुर्यविवरणनाम अधोर्धनिरूपणनाम सूक्ष्मजीवनिरूपणनाम पिंडोत्पत्तिनिरूपणनाम सिद्धांतनिरूपणनाम समास पाचवां - चंचललक्षणनिरूपणनाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास पाचवां - चंचललक्षणनिरूपणनाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ दोनों जैसे तीन चलते । अगुणी अष्टधा प्रकृति ये । अधोर्ध्व छोडकर व्यवहार करते । इंद्रफणि जैसा ॥१॥ प्रपौत्र खाता परदादा को । बेटा सहज ही मारे बाप को । गुम होता राजा जो । चारों जनों का ॥२॥ देव छिपा देवालय में । देवालय की पूजा से पाये उसे । सृष्टि मे सबके लिये । ऐसा ही है ॥३॥ दोनों नाम एक के हैं रखे । लोगों ने नेमस्त कल्पित किये । प्रत्यय देखा जो विवेक से । तो एक ही नाल ॥४॥ नहीं पुरुष ना वनिता । लोगों ने कल्पित किया तत्त्वतः । भली तरह से अगर खोजा । तो कुछ भी नहीं ॥५॥ स्त्री नदी पुरुष नाला । ऐसे ऐसे कहते सकल । शांति से विचार देखें तो केवल । देह नहीं ॥६॥ अपना स्वयं को समझेना । देखने जाओ तो बूझे ना । कहीं किसी से मेल होये ना । उदंडता के कारण ॥७॥ अकेला ही उदंड हुआ । उदंडों में अकेला पड़ा । अपने आप को ही अपना । पसारा सह सकेना ॥८॥ एक रहकर फूट पडी । फूट पड़कर भी स्थिति अकेली । विचित्र कला फैली । प्राणिमात्र में ॥९॥ वल्लरी में जल का संचार । शुष्क दिखती बाहर । आर्द्रता बिन ना होती स्थिर । करो कुछ भी ॥१०॥वृक्षों के लिये बनाई क्यारी । वृक्षों की राह रहे निराली । अंतराल में वृक्ष कई । उड़ जाते ॥११॥ भूमि से हुये अलग । मगर नहीं गये सूख । निराले ही ढंग से बलिष्ठ । अपनी ही जगह ॥१२॥ देव के कारण वृक्ष बढते । देव ना हो तो लकडी बनते । स्पष्ट ही है । रहस्य नहीं सर्वथा ॥१३॥ वृक्ष से वृक्ष बनते । वे भी अंतरिक्ष में जाते । जड़ पृथ्वी को छेदे । कदापि नहीं ॥१४॥ वृक्ष को वृक्ष से खाद जीवन । देकर पालते प्रतिदिन । बोलते वृक्ष शब्दमंथन । से विचार लेते ॥१५॥होना था वह पहले ही हुआ । फिर कल्पना कल्पित कर कहा गया । जानकारों के समझ में आया । सब कुछ ॥१६॥ समझा फिर भी बूझे ना । बूझा फिर भी समझे ना । प्रत्यय बिना अनुमान में आये ना । सब कुछ ॥१७॥ सबका पिता कौन । इसकी ही देखें पहचान । मिले अपने को स्वयं । जगदंतर में ॥१८॥ अंतरनिष्ठों की उच्च कोटि । बाहरी मुद्रावालों की संगति खोटी । ये बातें मूर्ख को क्या समझेगी । सयाने जानते ॥१९॥ अंतरंग रखने पर राजी । कोई किसी का भी नवाजी । अंतरंग न राखें तो सब्जी । भी नहीं मिलेगी ॥२०॥ऐसा है व्यवहार प्रत्यक्ष । अलक्ष्य में लगायें लक्ष्य । दक्ष को मिलने पर दक्ष । समाधान होता ॥२१॥ मन से मिलते ही मन । देखकर आते निरंजन । चंचलचक्र का उल्लंघन । करके पार जाते ॥२२॥ एक बार जाकर देखा । फिर उसे सन्निध ही पाया । चर्मचक्षु से लक्ष्य किया । ऐसा न होता कदापि ॥२३॥ नाना शरीरों में चंचल । अखंड करे हलचल । परब्रह्म वह निश्चल । सर्वत्र स्थित ॥२४॥ चंचल दौडे एक ओर । तो रिक्त होये दूसरी ओर । चंचल पर्याप्त चारों ओर । यह तो होता नहीं ॥२५॥चंचल चंचल को पुरे ना । चंचल पूर्ण विवरण कर सके ना । निश्चल अपार अनुमान । में कैसे आयें ॥२६॥ उड़ा अग्निबाण गगन में । कैसे जा पायेगा पार गगन के । जाते जाते बीच में ही बुझे । यह स्वभाव ही उसका ॥२७॥ मनोधर्म एकदेशी । क्या समझेगा वस्तु कैसी । निर्गुण त्यागकर अपयशी । सर्व ब्रह्म कहे ॥२८॥ नहीं सारासारविचार । वहां सारा अधःकार । खोटा बालक खरा त्यागकर । अज्ञान लेता ॥२९॥ ब्रह्मांड का महाकारण । वहा से यह पंचीकरण । महावाक्य का विवरण । अलग ही है ॥३०॥ महत्तत्व महद्भूत । उसे ही जानिये भगवंत । उपासना यह समाप्त । हुई यहां पर ॥३१॥ कर्म उपासना और ज्ञान । त्रिकांड वेद ये प्रमाण । ज्ञान का होता विज्ञान। परब्रह्म में ॥३२॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे चंचललक्षणनिरूपणनाम समास पांचवां ॥५॥ N/A References : N/A Last Updated : February 16, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. Like us on Facebook to send us a private message. TOP