हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|ज्ञानदशक मायोद्भवनाम| शून्यत्वनिरसननाम ज्ञानदशक मायोद्भवनाम देवदर्शननाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम दुश्चितनिरूपणनाम मोक्षलक्षणनाम आत्मदर्शननाम सिद्धलक्षणनाम शून्यत्वनिरसननाम समास दसवां - शून्यत्वनिरसननाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास दसवां - शून्यत्वनिरसननाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ जनों के अनुभव पूछा। तो कलह उठा सहसा । इस कथा कोलाहल को श्रोता । सुनें कौतुक से ॥१॥ कोई कहता यह संसार । करने पर जाओगे भव पार । अपना नहीं यह विस्तार । जीव देव का ॥२॥ कोई कहता यह न होता । लोभ आकर शरीर से जुड़ता। पेट के कारण करना पडता । सेवा कुटुंब की ॥३॥ कोई कहता सहजता से । संसार करो सुख से। कुछ दान पुण्य करें ऐसे । सद्गति के कारण ॥४॥कोई कहता खोटा यह संसार । वैराग्य से करें देशांतर। स्वर्गलोक की राह इस प्रकार । खुलती है ॥५॥कोई कहता कहां जायें । व्यर्थ ही क्यों भटकें । अपने आश्रम में रहें । आश्रमधर्म का पालन कर ॥६॥कोई कहता कैसा धर्म । सब होता है अधर्म । इस संसार में नाना कर्म । करने पड़ते ॥७॥ कोई कहता अनेकानुसार । वासना के हो अच्छे विचार । इससे ही तरोगे संसार । अनायास ॥८॥ कोई कहता कारण भाव । भाव से प्राप्त होता देव । बाकी सारे व्यर्थ उपाय। उलझाने वाले ॥९॥ कोई कहता जेष्ठ जीवों को। सारे ही देव मानो । मातापिता को पूजते जाओ । एकभाव से ॥१०॥ कोई कहता देव ब्राह्मण । करो उनका पूजन। मातापिता नारायण । विश्वजनों के ॥११॥ कोई कहता करें शास्त्र अवलोकन । वहां देव ने दिया निरूपण । उसे ही मानकर प्रमाण । जायें परलोक को ॥१२॥ कोई कहता अहो जन । शास्त्र देखो तो हैं अपूर्ण । इस कारण से जायें शरण । साधुजनों को ॥१३॥ कोई कहता छोड़ो बातें । व्यर्थ ही क्यों बड़बड़ करते। सबके लिये अपने मन में। भूतदया हो ॥१४॥ कोई कहता सही एक ही है। अपना आचरण करते रहें । अंतकाल में नाम लें । सर्वोत्तम का ॥१५॥ कोई कहता पुण्य बचा होगा। तो ही नाम याद आयेगा। अन्यथा विस्मरण होगा । अंतःकाल में ॥१६॥ कोई कहता जिंदा है । तब तक ही सार्थक करें । कोई कहता करते जायें । तीर्थाटन ॥१७॥ कोई कहता संब यह व्यर्थ । पानी पाषाण की भेट । डुबकियां लगाकर व्यर्थ । व्याकुल होयें ॥१८॥ कोई कहता छोड़ो वाचालता। भूमंडल की अगाध महिमा । दर्शनमात्र से भस्म होता । महापातकों का ॥१९॥ कोई कहता तीर्थ स्वभावतः । इस कारण मन करें संयमित । कोई कहता करें कीर्तन । सावकाश ॥२०॥कोई कहता योग ही सही । मुख्य जो साधे पहले उसे ही । देह करो अमर ही । अकस्मात ॥२१॥कोई कहता कुछ ऐसे । कालवंचना न करें । कोई कहता राह धरें । भक्तिमार्ग की ॥२२॥ कोई कहता अच्छा है ज्ञान । कोई कहता करें साधन । कोई कहता मुक्तपन । से रहे निरंतर ॥२३॥ कोई कहता रे अनर्गल । कर पाप का आलस । कोई कहता रे मुक्त । मार्ग है हमारा ॥२४॥कोई कहता यह निःशेष । न करें निंदाद्वेष । कोई कहता सावकाश । दुष्टसंग त्यागें ॥२५॥ कोई कहता जिसका खायें । उसके ही सम्मुख मरें । उससे तत्काल ही पायें । मोक्षपद ॥२६॥ कोई कहता छोड़ो बातें सारी । पहले तो चाहिये रोटी। बाद में करें बकबकी। सावकाश ॥२७॥ कोई कहता बरसात रहे । तब सकल योग अच्छा आये । उस कारण अकाल न पड़े । याने भला ॥२८॥कोई कहता तपोनिधि । होने से वश होती सकल सिद्धि । कोई कहता रे प्राप्ति। करें इंद्रपद की पहले ॥२९॥ कोई कहता देखें आगम। वेताल को करें प्रसन्नः । उससे मिलता देव । स्वर्गलोक में ॥३०॥ कोई कहता अघोरमंत्र । उससे होते स्वतंत्र । श्रीहरी जिसका कलत्र । वही प्रसन्न होती ॥३१॥ उसके मिलने पर सर्व धर्म । वहां कैसे क्रियाकर्म । कोई कहता होते कुकर्म। उसके मद से ॥३२॥ कोई कहता एक साक्षेपः । करें मृत्युंजय का जप । उस गुण से सर्व संकल्प । होते पूरे ॥३३॥ कोई कहता बटु भैरव । उससे प्राप्त होता वैभव । कोई कहता झोटिंग सर्व । देता है ॥३४॥ कोई कहता काली कंकाली । कोई कहता भद्रकाली । कोई कहता उच्छिष्ट चांडाली । सहाय्य करते ॥३५॥कोई कहता विघ्नहर । कोई कहता भोला शंकर । कोई कहता सत्वर । प्राप्त होती भगवती ॥३६॥ कोई कहता मल्लारी । सभाग्य करे सत्वर ही । कोई कहता महा भली । भक्ति व्यंकटेश की ॥३७॥ कोई कहता पूर्वसंचित । कोई कहता करें प्रयत्न । कोई कहता सौंपो भार । ईश्वर पर ॥३८॥ कोई कहता देव कैसा । अंत ही देखता भलों का । कोई कहता यह युग का । युगधर्म ॥३९॥ कोई आश्चर्य मानता । कोई विस्मय करता । कोई त्रस्त होकर कहता । जो होगा वह देखें ॥४०॥ ऐसे प्रापंचिक जन । लक्षण कहने जाओ तो गहन । परंतु कुछेक चिन्ह । अल्पमात्र कहे हैं ॥४१॥ अब रहने दो यह स्वभाव । ज्ञाताओं का कैसा अनुभव । वह भी कहा जाता है सर्व । सावधानी से सुनो ॥४२॥ कोई कहता करें भक्ति । श्रीहरी देंगे सद्गति । कोई कहता ब्रह्मप्राप्ति । कर्म से ही होती ॥४३॥ कोई कहता भोग छूटेना । जन्ममरण ये टूटेना । कोई कहता उर्मी नाना। अज्ञान की ॥४४॥कोई कहता सर्व ब्रह्म । वहां कैसे क्रियाकर्म । कोई कहता यह अधर्म । बोलो ही नहीं ॥४५॥ कोई कहता सर्व नष्ट होता । बचा वही ब्रह्म रहता । कोई कहता ऐसा नही रहता । समाधान ॥४६॥ सर्व ब्रह्म केवल ब्रह्म । दोनो पूर्वपक्ष के भ्रम । अनुभव का अलग मर्म । कहता कोई ॥४७॥ कोई कहता यह न होता । अनिर्वाच्य वस्तु बनता । जो बोलने पर मौन्य होता । वेदशास्त्र ॥४८॥ तब श्रोता ने आक्षेप लिया । कहे निश्चय किसने किया । सिद्धांतमत से अनुभव का । शेष कहां ॥४९॥अनुभव देहों में भिन्न भिन्न । यह पहले किया कथन । अब उनका एकत्रीकरण । हो नहीं सकता ॥५०॥साक्षत्व से बर्ताव करता कोई। कहता साक्षी अलग ही । स्वयं द्रष्टा ऐसी स्थिति । स्वानुभव की ॥५१॥द्रष्टा अलग दृश्य से । अलिप्तपन की कला ऐसे । स्वयं निराला साक्षत्व से । स्वानुभव में ॥५२॥ सकल पदार्थ जानता । वह पदार्थ से परे रहता । देह में रहकर अलिप्तता । सहज ही हुई ॥५३॥ कोई ऐसे स्वानुभव से। कहता वर्तन करें साक्षत्व से । दृश्य रहकर भी अलग रहे ऐसे । द्रष्टापन से ॥५४॥कोई कहता नहीं भेद । वस्तु मूलतः अभेद । वहां कैसा मतिमंद । द्रष्टा लाया ॥५५॥ सारी मिठास ही स्वभाव से । वहां कडवा क्या चुनें कैसे। द्रष्टा कैसा स्वानुभव से । सारा ही ब्रह्म ॥५६॥प्रपंच परब्रह्म अभेद । भेदवादी मानते भेद । परंतु यह आत्मा स्वानंद । आकार में आया ॥५७॥ पिघला घी जम गया । वैसे निर्गुण में गुण आया । वहां क्या अलग किया । द्रष्टापन से ॥५८॥ इसलिये द्रष्टा और दृश्य । सारा एक ही जगदीश । द्रष्टापन के सायास । किस कारण ॥५९॥ ब्रह्म ही आकारित है सर्व । ऐसा किसी का अनुभव । ऐसे ये दोनों स्वभाव । निरूपित किये ॥६०॥ सारा आत्मा आकार में आया । स्वयं भिन्न कैसे रह गया । दूसरा अनुभव बोला । इस प्रकार ॥६१॥ सुन तीसरा अनुभव । प्रपंच बाजू हटाकर सर्व । कुछ नहीं वही देव । ऐसा कहते ॥६२॥सारा दृश्य अलग किया । केवल अदृश्य शेष रहा । है अनुभव वही ब्रह्म का । कहता कोई ॥६३॥ परंतु उसे न कहें ब्रह्म । उपाय के समान अपाय । शून्यत्व को क्या ब्रह्म । कह सकेंगे ॥६४॥ पार किया सारा दृश्य । रह गया शून्यरूप में अदृश्य । पलट गये कहकर ब्रह्म । वहां से पीछे ॥६५॥ इधर दृश्य उधर देव । बीच में रहता शून्यत्व का ठाँव । उसी को प्राणी मंदबुद्धिस्तव । ब्रह्म कहते ॥६६॥राया को न पहचाना । सेवक को राजा समझा । परंतु सारा व्यर्थ गया। जब देखा राजा को ॥६७॥ वैसे शून्यत्व में कल्पित किया ब्रह्म । सामने देखते ही परब्रह्म । शून्यत्व का सारा भ्रम । टूट गया ॥६८॥परंतु यह है सूक्ष्म अडचन । विवेक से करें उसका निवारण । जैसे दुग्ध करके प्राशन । जल त्यागे राजहंस ॥६९॥ पहले दृश्य का त्याग किया । फिर शून्यत्व पार किया । तब मूलमाया के पार देखा । परब्रह्म ॥७०॥भिन्नत्व से अगर देखें । तो वृत्ति शून्यत्व में पडे । मन में संदेह उठे । शून्यत्व का ॥७१॥ भिन्नता से जो अनुभव किया । उसको शून्य ऐसे कहा गया । वस्तु लक्ष्य करने पर अभिन्न होना । चाहिये पहले ॥७२॥ वस्तु स्वयं ही होयें । इस तरह वस्तु को देखें । निश्चिय ही भिन्नपन से । शून्यत्व मिले ॥७३॥ इसकारण शून्य कभी । परब्रह्म होगा नहीं । देखें वस्तुरूप होकर ही । स्वानुभव से ॥७४॥ स्वयं वस्तु सिद्ध ही है । मन मैं ऐसी कल्पना न करें । साधु उपाय कहते हैं। तू ही आत्मा ॥७५॥ मन मैं ऐसा होता नही । संतों ने निरूपित किया नहीं। किसके कहने पर मानें । मैं मन ऐसे ॥७६॥संतवचनों में रखा जो भाव । वही शुद्ध स्वानुभव । मन का वैसा ही स्वभाव । स्वयं वस्तु ॥७७॥ जिसका लेना है अनुभव । वही स्वयं निरावेव । स्वयं का लेते अनुभव । विश्वजन ॥७८॥ लोभी धन को साधने गये । तब वे लोभी धन ही हुये । फिर वह भाग्यपुरुषों ने भोगे । सावकाश ॥७९॥वैसे ही देहबुद्धि को जो छोड़ता । साधक का यही होता तत्त्वता । अनुभव की मुख्य वार्ता । वह है ऐसी ॥८०॥ स्वयं वस्तु मूलतः एक। ऐसा ज्ञाता का विवेक । यहां से यह ज्ञानदशक । हुआ संपूर्ण ॥८१॥ आत्मज्ञान निरूपित किया । यथामति कथन किया । न्यूनपूर्णता को क्षमा । करनी चाहिये श्रोताओं ने ॥८२॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे शून्यत्वनिरसननाम समास दसवां ॥१०॥ N/A References : N/A Last Updated : February 14, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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