हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|ज्ञानदशक मायोद्भवनाम| स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम ज्ञानदशक मायोद्भवनाम देवदर्शननाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम दुश्चितनिरूपणनाम मोक्षलक्षणनाम आत्मदर्शननाम सिद्धलक्षणनाम शून्यत्वनिरसननाम समास पांचवा - स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास पांचवा - स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ केवल मूर्ख वे ना जाने । इस कारण कहना पड़े । लक्षण पंचभूतों के । विशद करके ॥१॥पंचभूतों का कर्दम हुआ । अब कहने से ना अलग होता । परंतु जो कुछ अलग ना हो सकता। वह करके दिखलाऊं ॥२॥ पर्वत पाषाण शिला शिखर । नाना वर्णों के छोटे बड़े आकार । कंकड़ पत्थर के बहुत प्रकार । जानिये पृथ्वी ॥३॥ मृत्तिका नाना रंगो की । जो कि नाना जगहों की । धूल बालू नाना प्रकारों की । मिलकर पृथ्वी ॥४॥ पुर पट्टण मनोहर । नाना मंदिर दामोदर । नाना देवालय शिखर । मिलकर पृथ्वी ॥५॥ सप्त द्वीपावती पृथ्वी । कैसे कहें उसकी महती । जानिये नवखंड मिलाकर बनती । वसुंधरा ॥६॥ नाना देव नाना नृपति । नाना भाषा नाना रीति । लक्ष चौरासी उत्पत्ति । मिलकर पृथ्वी ॥७॥ नाना उध्वस्त' जो बन । नाना तरूवरों के बन । गिरीकंदर नाना स्थान । मिलकर पृथ्वी ॥८॥ नाना रचना की देव ने । जो जो निर्माण की मानव ने । सकल मिलकर श्रोता जानें । बनी पृथ्वी ॥९॥नाना धातु सुवर्णादिक । नाना रत्न जो अनेक । नाना काष्ठवृक्षादिक । मिलकर पृथ्वी ॥१०॥ अब रहने दो बहुत यह बस । जड़ांश और कठिनांश । सकल पृथ्वी यह विश्वास । मानना चाहियें ॥११॥कहे पृथ्वी के रूप । अब कहा जाता आप । श्रोता पहचानें रूप । सावधान होकर ॥१२॥ वापी कूप सरोवर । नाना सरिताओं का नीर। मेघ और सप्त सागर। मिलकर आप ॥१३॥श्लोकार्ध- क्षारक्षीरसुरासर्पिर्दधि इक्षुर्जलं तथा ॥छ॥क्षारसमुद्र दिखता है । सकल जन दृष्टि से देखते हैं । जहां लवण होता है । वही क्षारसिंधु ॥१४॥ एक दूध का सागर । उसका नाम क्षीरसागर । देवने दिया निरंतर । उपमन्यु को ॥१५॥ एक समुद्र मद्य का । एक जानें घृत का । एक शुध्द दही का । समुद्र है ॥१६॥ एक ईख के रस का । एक वह शुद्ध जल का । ऐसे सात समुद्रों का । आवरण पृथ्वी को ॥१७॥ एवं भूमंडल का जल । नाना स्थलों के सकल । मिलकर सारा केवल । आप जानें ॥१८॥ पृथ्वीगर्भ में कई एक । पृथ्वी तल पर आवरणोदक। तीनो लोकों के उदक । मिलकर आप ॥१९॥ नाना वल्ली बहुविध । नाना तरूवरों के रस । मधु पारा अमृत विष । मिलकर आप ॥२०॥ नाना रस स्नेहादिक । इनसे भी अलग अनेक । जल से अलग आवश्यक । आप कहलाते ॥२१॥ सार्द्र और शीतल । जल के समान तरल । शुक्लीत श्रोणित मूत्र लार । आप कहलाते ॥२२॥ आप को संकेत से जानें। तरल गीला पहचानें। मृद शीतल स्वभाव से । आप कहलाते ॥२३॥ हुआ आप का संकेत । तरल मृद चिकनाहट । स्वेद श्लेष्मा अश्रु समस्त । आप जानिये ॥२४॥ तेज सुनें हो सावधान । चंद्र सूर्य तारांगण । दिव्य देह सतेजपन । को तेज बोलिये ॥२५॥ वन्हि मेघों की विद्युल्लता । वन्हि सृष्टि का संहारकर्ता । वन्हि सागर को जलाता । वडवाग्नि ॥२६॥ वन्हि शंकर के नेत्रों का । वन्हि काल की क्षुधा का । वन्हि परिघ भूगोल का । तेज कहलाये ॥२७॥ जो जो प्रकाशरूप । वह सारा तेज का स्वरूप । शोषक उष्णादि आरोप । तेज जानिये ॥२८॥ वायु जानिये चंचल । चैतन्य को चेताये केवल । बोलना हिलना सकल । वायु के कारण ॥२९॥ हिले डुले वह सारा पवन । कुछ न चले पवन बिन । सृष्टि संचालन का कारण । मूल वह वायु ॥३०॥चलन मुड़ना और प्रसारण । निरोध और आकुंचन । सकल जानिये पवन । चंचलरूपी ॥३१॥ प्राण अपान और व्यान । चौथा उदान और समान । नाग कूर्म कर्कश जान । देवदत्त धनंजय ॥३२॥जितना भी कुछ होता चलन । उतने वायु के लक्षण । चंद्र सूर्य तारांगण । वायु ही धर्ता ॥३३॥ आकाश जानिये पोला । निर्मल और निश्चल । अवकाशरूप सकल । आकाश जानिये ॥३४॥ आकाश सभी को व्यापक । आकाश अनेकों में एक । आकाश में कौतुक । चार भूतों का ॥३५॥ नहीं आकाश जैसा सार । आकाश सभी से बढकर । देखें अगर आकाश का विचार । है स्वरूपसमान ॥३६॥ तब शिष्य ने लिया आक्षेप । दोनों के समान ही रूप । फिर आकाश को ही स्वरूप । क्यों ना कहें ॥३७॥आकाश स्वरूप में क्या भेद । देखने पर दिखते अभेद । आकाश वस्तु ही स्वतः सिद्ध । क्यों न कहें ॥३८॥ वस्तु अचल अढल । वस्तु निर्मल निश्चल । वैसे ही आकाश केवल । वस्तु के समान ॥३९॥ सुनकर वक्ता कहे वचन । वस्तु निर्गुण पुरातन । आकाश में सप्त गुण । शास्त्रों में है निरूपित ॥४०॥काम क्रोध शोक मोहो । भय अज्ञान शून्यत्व देखो । ऐसा सप्तविध स्वभाव जो । है आकाश का ॥४१॥ऐसा शास्त्राधार से कहा । इस कारण आकाश भूत हुआ । स्वरूप निर्विकार व्यापक रहा । उपमारहित ॥४२॥ कांच का फर्श और जल । समान ही लगता सकल । परंतु एक कांच एक जल । सयाने जानते ॥४३॥ रूई में स्फटिक गिरा । लोगों ने तद्रूप देखा । उससे कपालमोक्ष हुआ। कपास से ना होता ॥४४॥ चांवल में श्वेत कंकड़ । चांवल समान ही वक्र । चबाने पर गिरते दांत । तब समझे ॥४५॥त्रिभाग में पत्थर रहता । त्रिभाग समान ही दिखता । खोजने पर अलग दिखता । कठोर गुण से ॥४६॥गुड़समान गुड़पत्थर । परंतु वह सख्त कठोर । मूलहटी और नागवेल । एक कहें नहीं ॥४७॥ सोना और सोनपीतल । एक ही लगते केवल । परंतु पीतल को लगते ही ज्वाल । कालिमा चढ़े ॥४८॥छोड़ो ये हीन दृष्टांत । आकाश याने केवल भूत । वह भूत और अनंत । एक कैसे ॥४९॥ वस्तु का होता ही नहीं वर्ण । आकाश है श्यामवर्ण । दोनों में साम्यता विचक्षण । करेंगे कैसे ॥५०॥श्रोता कहते कैसा रूप । आकाश मूलतः ही अरूप । आकाश वस्तु ही तद्रूप । भेद नहीं ॥५१॥ चारों भूतों को नाश है । आकाश को कहां नाश है । आकाश को न शोभे । वर्ण व्यक्ति विकार ॥५२॥आकाश अचल दिखता । उसका क्या नष्ट होते दिखता । हमारे मत से अगर देखा । तो आकाश शाश्वत ॥५३॥ ऐसे सुनकर वचन । वक्ता बोले प्रतिवचन । सुन अब लक्षण । आकाश के ॥५४॥ आकाश तम से बना । इस कारण काम क्रोध से वेष्टित हुआ । अज्ञान शून्यत्व कहा गया । नाम उसका ॥५५॥ अज्ञान से काम क्रोधादिक । मोह भय और शोक । यह अज्ञान का विवेक । आकाशगुण से ॥५६॥नास्तिक नकारवचन । वही शून्य का लक्षण । उसे कहते हृदयशून्य । अज्ञान प्राणी ॥५७॥ आकाश स्तब्धता से शून्य । शून्य याने वह अज्ञान । अज्ञान याने कठिन । रूप उसका ॥५८॥ कठिन शून्य विकारवंत । उसे कैसे कहें संत । मन को लगे ये तद्वत ! बाह्य दृष्टि से ॥५९॥ आकाश में मिल गया अज्ञान । ज्ञान से नष्ट होता यह कर्दम । आकाश को इस कारण । नाश है ॥६०॥ वैसे आकाश और स्वरूप । देखने पर लगते एकरूप । परंतु दोनों में विक्षेप । शून्यत्व का ॥६१॥ यू ही देखें अगर कल्पना से । सरीखा ही लगे निश्चय से। परंतु आकाश स्वरूप में। भेद है ॥६२॥ उन्मनी और सुषुप्ति अवस्था । एकसी ही लगे तत्त्वता । परंतु विवेचन कर देखा जाता। तो भेद है ॥६३॥खोटे खरे के समान भासते । परंतु परीक्षवंत चुनते । अथवा कुरंग' भ्रमित होते । देखकर मृगजल को ॥६४॥ अब रहने दो यह दृष्टांत । कहा गया समझाने को संकेत । इसकारण भूत और अनंत । एक नहीं ॥६५॥आकाश देखें दूर रहकर । स्वरूप में रहें स्वरूप होकर । वस्तु को देखना सहज । ऐसा है ॥६६॥ यहां आशंका मिटी । संदेह वृत्ति अस्त हुई । भिन्नता से अनुभव न मिलती । स्वरूप स्थिती ॥६७॥आकाश अनुभव में आये । स्वरूप अनुभव से परे । इस कारण आकाश से । साम्यता न होती ॥६८॥दुग्धसमान जलांश । चुनना जानते राजहंस । वैसे स्वरूप और आकाश । संत जानते ॥६९॥ सकल माया है उलझन जैसे । उसे सुलझाये संत संग से। मोक्ष की पदवी पायें। सत्समागम से ॥७०॥इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदोनाम समास पांचवां ॥५॥ N/A References : N/A Last Updated : February 14, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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