हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|ज्ञानदशक मायोद्भवनाम| सूक्ष्मआशंकानाम ज्ञानदशक मायोद्भवनाम देवदर्शननाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम दुश्चितनिरूपणनाम मोक्षलक्षणनाम आत्मदर्शननाम सिद्धलक्षणनाम शून्यत्वनिरसननाम समास तीसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास तीसरा - सूक्ष्मआशंकानाम Translation - भाषांतर कर्ता परमात्मा परमेश्वर । सर्वकर्ता जो ईश्वर । उससे ही विस्तार । हुआ सभी ॥१२॥ ऐसे अनंत नाम धरे । अनंत शक्ति निर्माण करे । उसे ही जानें चतुर । मूलपुरुष ॥१३॥ उस मूलपुरुष की पहचान । वह मूलमाया ही स्वयं । सकल ही कर्तापन । आया वहीं ॥१४॥॥ श्लोक ॥ कार्यकारणकतृत्वे हेतुः प्रकृतिरूच्यते ॥छ ॥ यह खुलकर कह ना पाये । टूटने को देखे उपाय । अन्यथा ये देखने जाये । तो क्या सच है ॥१५॥ देव से सकल हुये । यह सभी मानते । परंतु पहचानना चाहिये । उस देव को ॥१६॥ सिद्ध का जो निरूपण । वह साधक को न होता मान्य जान । पक्व नहीं अंतःकरण । इस कारण ॥ १७॥अविद्यागुण से बोलते जीव । मायागुण से बोलते शिव । मूलमाया गुण से देव । बोलते हैं ॥१८॥ मूलमाया कारण इसलिये । अनंत शक्ति धरने के लिये । वहां के अर्थ जानने के लिये । अनुभवी चाहिये ॥१९॥ मूलमाया वही मूलपुरुष । वही सर्वो का ईश । अनंत नामी जगदीश । उसे ही कहें ॥२०॥ सारी माया विस्तृत हुई । पर यह निःशेष मिथ्या हुई । ऐसे वचनों की गहराई । बिरला जाने ॥२१॥ ऐसे अनिर्वाच्य बोलिये। तो भी यह स्वानुभव से जानिये । संतसंग बिन समझ न आये । करो कुछ भी ॥२२॥ माया ही है मूलपुरुष । साधक को नहीं मान्य निःशेष । तो फिर अनंतनामी जगदीश । किसे कहें ॥२३॥नामरूप माया को लगे । ये कहना ठीक ही है। यहां श्रोता अनुमान करें। क्यों कर ॥२४॥ अब रहने दो यह सारी बोली । पिछली आशंका रह गई । निराकार में कैसे हुई । मूलमाया ॥२५॥दृष्टिबंधन मिथ्या सकल । तो फिर वह कैसा हुआ खेल । यही अब सारा सरल । करके दिखाऊं ॥२६॥आकाश रहते निश्चल । उसमें वायु हुआ चंचल । वैसी जानिये केवल । मूलमाया ॥२७॥ रूप वायु का हो जाने से । आकाश भंग हुआ उससे । यह सत्य मान लिया ऐसे । कभी नहीं हुआ ॥२८॥वैसी मूलमाया हुई । और निर्गुणता व्याप्त रही । इस दृष्टांत से दूर हुई । पिछली आशंका ॥२९॥ वायु न था पुरातन । वैसी मूलमाया जान । सांच कहते ही पुनः लीन । हो जाता ॥३०॥ वायु रूप में है कैसा । देखो मूलमाया का वैसा । भासे पर न दिखे ऐसा । रूप उसका ॥३१॥ वायु सत्य कहें अगर । दिखाया नहीं जा सकता उसे मगर । देखने जाये उसकी ओर । धूल ही दिखे ॥३२॥ वैसी मूलमाया भासे । भासे पर वह नहीं दिखे । विस्तारित हुई आगे । माया अविद्या ॥३३॥ जैसे वायु के ही योग से । दृश्य उड़ता गगनमार्ग से । मूलमाया के संयोग से । वैसे जग ॥३४॥ गगन में मेघ नहीं थे । अकस्मात् उद्भव हो गये । माया के ही गुण से आये। वैसे ही जग ॥३५॥ मिथ्या गगन नहीं थे । अकस्मात वहां पर आये । वैसे दृश्य यहां पर हुये । उसी तरह ॥३६॥ पर उस मेघ के कारण । गगन का गया निश्चलपन । लगता ऐसे है लेकिन । तत्त्वतः वह वैसी ही रहती ॥३७॥ वैसे माया के कारण निर्गुण । लगता हो गया है सगुण । मगर वह देखने पर संपूर्ण । जैसे का वैसे ॥३८॥मेघ आये और गये । गगन वह व्याप्त ही रहे । वैसे ही गुण में नहीं आये । निर्गुण ब्रह्म ॥३९॥ नभ माथे को लगता दिखे । मगर वह जैसे के वैसा रहे । वैसे जानिये विश्वास से । निर्गुण ब्रह्म ॥४०॥उर्ध्व देखो तो आकाश । नीलिमा दिखे सावकाश । मगर वह जानिये मिथ्या भास । भासित हुआ ॥४१॥आकाश उल्टा किया । चारों ओर से सीमित हुआ । लगता विश्व को बंदी बनाया । मगर वह मुक्त ही है ॥४२॥ पर्वतो पर नीला रंग दिखे । मगर वह नहीं लगा उसे । अलिप्त जानिये वैसे । निर्गुण ब्रह्म ॥४३॥ रथ दौड़ने से पृथ्वी चंचल । लगती मगर वह रहे निश्चल । वैसे परब्रह्म केवल । निर्गुण जानिये ॥४४॥मेघ के कारण मयंक' । लगे कि दौडता निशंक । मगर वह सारा ही मायिक । मेघ चंचल होते ॥४५॥ लू अथवा अग्निज्वाल । उससे कंपित दिखता अंतराल । लगता मगर वह निश्चल । जैसे का वैसा ॥४६॥वैसे स्वरूप यह व्याप्त हुआ । ऐसे लगता गुणों में आया । ऐसे कल्पना ने माना । मगर वह मिथ्या ॥४७॥ दृष्टिबंधन का खेल । वैसे माया चंचल । वस्तु शाश्वत निश्चल । जैसे की वैसी ॥४८॥ ऐसी वस्तु निरअवयव । माया दिखाती अवयव । इसका ऐसा ही स्वभाव । मिथ्या यह ॥४९॥ माया देखो तो नहीं मूलतः । मगर भासे जैसे सत्य । उद्भव होकर होती अदृश्य । मेघ जैसे ॥५०॥ ऐसे माया उद्भव हुई । वस्तु निर्गुण व्याप्त रही । अहं ऐसी स्फूर्ति हुई । वही माया ॥५१॥ गुणमाया के पंवाडे । निर्गुण में यह कुछ भी न होये । परंतु यह बने और बिगडे । सस्वरूप में ॥५२॥जैसे दृष्टि तरल हुई । उससे सेना ही भासित हुई । देखो तो आकाश में हुई । मगर यह मिथ्या ॥५३॥मिथ्या माया का खेल । उद्भव कहा है सकल । नाना तत्त्वों का कोलाहल । त्याग कर ॥५४॥ तत्त्व के मूल में ही रहते । ॐकार वायु की गति । उसका अर्थ जानते । दक्ष ज्ञानी ॥५५॥ मूलमाया का चलन । वही वायु के लक्षण । सूक्ष्म तत्त्व वे भी जान । जडत्व पा गये ॥५६॥ ऐसे पंचमहाभूत । पहले थे अव्यक्त । आगे हुये व्यक्त । सृष्टिरचना में ॥५७॥ मूलमाया के लक्षण । वे ही पंचभौतिक जान । उसकी देखो पहचान। सूक्ष्म दृष्टि से ॥५८॥आकाशवायुबिन । इच्छा शब्द करे कौन । इच्छाशक्ति वही जान । तेजस्वरूप ॥५९॥ मृदुपन वही है जल । जडत्व पृथ्वी केवल । ऐसी मूलमाया सकल । पंचभौतिक जानो ॥६०॥ एक एक भूत में । पंचभूत स्थित है । सभी समझे सूक्ष्म दृष्टि से । देखने पर ॥६१॥ आगे जडत्व में आई । फिर भी थी समाई । ऐसी माया विस्तारित हुई । पंचभूतिक ॥६२॥मूलमाया देखने पर मूल में । अथवा अविद्या भूमंडल में । स्वर्गमृत्यु पाताल में । पांच ही भूत ॥६३॥॥ श्लोक ॥ स्वर्गे मृत्यौ पाताले वा यत्किंचित सचराचरम् । सर्व पंचभूतकं राम षष्ठं किंचिन्न दृश्यते ॥ सत्य स्वरूप आदिअंत में । पंचभूतों के व्यवहार मध्य में । पंचभूतिक जानिये । श्रोताओं मूलमाया ॥६४॥यहां आशंका उठी । सुनो सावध कर स्थिति । पंचभूतों की निर्मिति । हुई एक तमोगुण के कारण ॥६५॥मूलमाया गुण से परे । वहां भूत कैसे होते । ऐसी आशंका इन श्रोतां ने । ली पीछे ॥६६॥ ऐसा श्रोता ने आक्षेप किया । संशय को खड़ा किया। इसका उत्तर दिया। अगले समास में ॥६७॥ इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सूक्ष्मआशंकानाम समास तीसरा ॥३॥ N/A References : N/A Last Updated : February 14, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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