हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|ज्ञानदशक मायोद्भवनाम| सूक्ष्मआशंकानाम ज्ञानदशक मायोद्भवनाम देवदर्शननाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मआशंकानाम सूक्ष्मपंचभूतनिरूपणनाम स्थूलपंचमहाभूत स्वरूपाकाशभेदो नाम दुश्चितनिरूपणनाम मोक्षलक्षणनाम आत्मदर्शननाम सिद्धलक्षणनाम शून्यत्वनिरसननाम समास दूसरा - सूक्ष्मआशंकानाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास दूसरा - सूक्ष्मआशंकानाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ पीछे श्रोताओं ने आक्षेप किये। उसे निरूपित करना चाहिये । हुआ निरावयव से कैसे । चराचर ॥१॥ इसका ऐसा प्रतिवचन । ब्रह्म जो है सनातन । वहां माया मिथ्याभान । विवर्तरूप भासता ॥२॥आदि एक परब्रह्म । नित्यमुक्त अक्रिय परम । वहां अव्याकृत सूक्ष्म । हुई मूलमाया ॥३॥॥ श्लोक ॥ आद्यमेकं परब्रह्म नित्यमुक्तमविक्रियम । तस्य माया समावेशो जीवमव्याकृतात्मकम् ॥६॥॥ आशंका ॥ एक ब्रह्म निराकार । मुक्त अक्रिय निर्विकार । वहां माया का आडम्बर । हुआ कहां से ॥४॥ब्रह्म अखंड निर्गुण । वहां इच्छा करें कौन । निर्गुण में सगुण के बिन । इच्छा नहीं ॥५॥ मूलतः ही नहीं सगुण । इस कारण नाम से निर्गुण । वहां हुआ सगुण । किस प्रकार ॥६॥ निर्गुण को ही गुण आये। ऐसा अगर अनुवाद किये। है लगता बोलना ये । मूर्खपन ॥७॥ कोई कहता निरावयव । करके अकर्ता वह देव । उसकी लीला बेचारे जीव । क्या जानते ॥८॥ कोई कहता वह परमात्मा । कौन जाने उसकी महिमा । प्राणी बेचारा जीवात्मा । क्या जाने ॥९॥ व्यर्थ ही महिमा कहते । शास्त्रार्थ समस्त लोप करते । बलपूर्वक निर्गुण को कहते । करके भी अकर्ता ॥१०॥ मूल में नहीं कर्तव्यता । कौन करके अकर्ता । कर्ता अकर्ता यही वार्ता । समूल मिथ्या ॥११॥ जो तत्त्वतः निर्गुण । वहां कैसे कर्तापन । तो फिर यह इच्छा करे कौन । सृष्टि रचने की ॥१२॥ इच्छा परमेश्वर की। ऐसी युक्ति बहुतों की। परंतु उस निर्गुण को इच्छा कैसी। यह समझेना ॥१३॥ तो फिर यह इतना किसने किया। अथवा अपने आप ही हुआ। देवबिना निर्माण किया । किस तरह ॥१४॥देवबिना हुआ सर्व । तब देव का कैसा ठांव । यहां देव का अभाव । दिखाई दिया ॥१५॥ देव को कहें सृष्टिकर्ता । तो उससे जुडती सगुणता । निर्गुणपन की वार्ता । लुप्त हुई देव की ॥१६॥ देव शाश्वत निर्गुण । तो फिर सृष्टिकर्ता कौन । कर्तापन का सगुण । नाशवंत ॥१७॥ यहां उत्पन्न हुआ विचार । कैसे हुआ सचराचर । माया को कहें स्वतंत्र अगर । तो यह भी विपरीत दिखे ॥१८॥ माया का निर्माता नहीं कोई । वह स्वयं ही विस्तारित हुई । ऐसे कहते ही लुप्त हुई । वार्ता देव की ॥१९॥देव निर्गुण स्वतः सिद्ध। उसका माया से क्या संबंध । ऐसे कहते ही विरूद्ध । दिखने लगा ॥२०॥ सभी कुछ कर्तव्यता । आई माया के माथा । फिर भक्तों के उद्धारकर्ता । देव नहीं क्या ॥२१॥ देव बिन केवल माया को । कौन ले जायेगा विलय को । सम्भालने हम भक्तों को। कोई भी नहीं ॥२२॥इस कारण माया स्वतंत्र । ऐसा न होने दो जी विचार । माया का निर्माता सर्वेश्वर । है वह एक ही ॥२३॥तो फिर कैसा है ईश्वर । माया का कैसा विचार । अब यह सब सविस्तर । कथन करना चाहिये ॥२४॥श्रोता होकर सावधान । एकाग्र करके मन । अब कथानुसंधान । सावधानी से सुनें ॥२५॥ एक आशंका का भाव । लोगों के अलग अलग अनुभव । कहता हूं वे भी सर्व । यथानुक्रम से ॥२६॥ कोई कहते देव ने किया। इसलिये इसका विस्तार हुआ । न होती अगर देव की इच्छा । तो कैसे होती माया ॥२७॥ कोई कहता देव निर्गुण । वहां इच्छा करें कौन । माया मिथ्या अपने आप निर्माण । हुई ही नहीं ॥२८॥कोई कहता प्रत्यक्ष दिखे । उसे नहीं कैसे कहते । माया है अनादि काल से। शक्ति ईश्वर की ॥२९॥ कोई कहता यह सच्ची है । तो फिर ज्ञान से निरसित होती कैसे । सच समान ही दिखे । मगर यह मिथ्या ॥३०॥ कोई कहता मिथ्या स्वभाव से । तो फिर साधन करें किस कारण से । भक्तिसाधन कहे देव ने । मायात्याग के लिये ॥३१॥ कोई कहता मिथ्या दिखे । भय अज्ञान सन्निपात से । साधन औषध लेने से । फिर भी वह दृश्य मिथ्या ॥३२॥ अनंत साधन कहे गये । अनेक मत भ्रमित हुये। फिर भी माया त्याग न हुई वचनों से । उसे मिथ्या कहें कैसे ॥३३॥ योगवाणी कहे मिथ्या । वेदशास्त्र पुराणों में मिथ्या । अनेक निरूपणों में मिथ्या । कही गई माया ॥३४॥माया गई मिथ्या कहते ही । यह वार्ता सुनी नहीं। मिथ्या कहते ही। लगी समागम में ॥३५॥ जिसके अंतरंग में ज्ञान । नहीं पहचाने सज्जन । उसे माया मिथ्याभान । सत्य ही लगे ॥३६॥ जिसने किया निश्चय जैसा । उसे फलित हुआ वैसा । प्रतिबिंब दिखता दर्पण में जैसा । वैसे ही माया ॥३७॥ कोई कहता माया कैसी । है वह सर्व ब्रह्म ही । जमे और तरल घृत की । एकता न टूटे ॥३८॥ जम गया और तरल हुआ । यह स्वरूप को नहीं कहा गया। ऐसे वचनों से साहित्य भंग हुआ । कहता कोई ॥३९॥ कोई कहता सर्व ब्रह्म । जिसे न समझे यह मर्म । उस के अंदर का भ्रम । गया ही नहीं ॥४०॥ कोई कहता एक ही देव । वहां कैसे लाये सर्व । सर्व ब्रह्म यह अपूर्व । आश्चर्य लगे ॥४१॥ कोई कहता एक ही खरा । अन्य नहीं दूसरा । सर्व ब्रह्म इस तरह । सहज ही हुआ ॥४२॥ सर्व मिथ्या एक साथ । बाकी रहा वही ब्रह्म सत्य । शास्त्राधार से ऐसे वाक्य । बोलता कोई ॥४३॥अलंकार और सुवर्ण। वहां नहीं भिन्नपन । वाद से आती व्यर्थ थकान । कहता कोई ॥४४॥ हीन उपमा एकदेशी । वस्तु को शोभा कैसे देगी। वर्ण व्यक्ति से अव्यक्त की। साम्यता ना होती ॥४५॥सुवर्ण दृष्टि से देखें तो । मूलतः है व्यक्तता उसको । अलंकार में सोना देखो तो । सोना ही है ॥४६॥मूलतः सोना है व्यक्त । जड एकदेशीय पीत । पूर्ण को अपूर्ण का दृष्टांत । कैसे लागू होगा ॥४७॥ दृष्टांत एकदेशीय रहता । समझाने के लिये देना पडता । सिंधू और लहरों में भिन्नता । होगी कैसे ॥४८॥उत्तम मध्यम कनिष्ठ । एक दृष्टांत से समझे स्पष्ट । एक दृष्टांत से नष्ट । संदेह बढ़ता ॥४९॥ कैसा सिंधु कैसी लहरी । अचल से चल की बराबरी । सांच के समान जादूगरी । मानें ही नहीं ॥५०॥जादूगरी यह कल्पना । जनों को दिखाती भास नाना । जानो यह अन्यथा । ब्रह्म ही है ॥५१॥ वाद ऐसे आपस का । लगने पर रह गई आशंका । वही अब सुनें आगे का । सावधान होकर ॥५२॥ माया मिथ्या समझ में आई । परंतु वह ब्रह्म में कैसे हुई । कहें अगर उसे निर्गुण ने बनाई । तो भी वह मूलतः ही मिथ्या ॥५३॥ कुछ भी नहीं मिथ्या शब्द में । वहां किया क्या किसने ! करना निर्गुण में । यह भी अघटित ॥५४॥ N/A References : N/A Last Updated : February 14, 2025 Comments | अभिप्राय Comments written here will be public after appropriate moderation. 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