अखंडध्याननाम - ॥ समास आठवां - अखंडध्याननिरूपणनाम ॥

‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन इस में है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
भला ऐसे प्रसंग हुआ । हुआ जो सो हो गया । अब तो ब्राह्मण ने स्वयं को सयाना । करना चाहिये ॥१॥
देव पूजें विमल हस्त से । भाग्य पायेंगे सभी जिससे । मूर्ख अभक्त अव्यवस्था से । दरिद्र भोगते ॥२॥
पहले देव को पहचानें । फिर अनन्यभाव से भजें । अखंड ही ध्यान धरें । सर्वोत्तम का ॥३॥
सभी में जो उत्तम । उसका नाम सर्वोत्तम । आत्मानात्मविवेकमर्म । ज्ञात करायें यथायोग्य ॥४॥
जान जानकर करे रक्षा देह की । आत्मा द्रष्टा अंतरसाक्षी । परीक्षा करे पदार्थ मात्रों की । ज्ञातापन से ॥५॥
वह सकल शरीरों में व्यवहार करता । इंद्रियग्राम चेतन करता । प्रचीति से प्रत्यय आता । प्राणिमात्र को ॥६॥
प्राणिमात्र का जगदंतर । इस कारण राखें अंतरंग । दाता भोक्ता परस्पर । सब कुछ ॥७॥
देव बरते जगदंतर में । वही अपने अंतरंग में । त्रैलोक्य के प्राणिमात्र में । देखें भला ॥८॥
मूल में देखनेवाला वह अकेला । सभी में विभाजित हुआ । देह प्रकृति से हुआ । भिन्न भिन्न ॥९॥
भिन्न भासे देहाकार से । प्रस्तुत एक ही भीतर से । बोलना चलना निश्चय से । उसी से होता ॥१०॥
अपने पराये सकल लोक । पक्षी श्वापद पशु आदि एक । कीडा चींटी देहधारक । सकल प्राणी ॥११॥
खेचर भूचर वनचर । नाना प्रकार के जलचर । चत्वार खाणी विस्तार । कहें भी तो कितना ॥१२॥
समझ से व्यवहार करते समस्त । देखें नगद प्रचीत । उसकी अपनी संगत । अखंड है ॥१३॥
जगदंतर में प्रसन्न धनी । तो कितने इक्कठे होंगे प्राणी । परंतु उसे प्रसन्न करने की करनी । अपने ही पास ॥१४॥
यह जिम्मेदारी अपनी ही । समस्तों को रखें राजी । देह की बनाये जो उत्तम स्थिति । वह आत्मा पाये ॥१५॥
दुर्जन प्राणी उसमें देव । उसका लाताड स्वभाव । क्रोध में आये भी राव । फिर भी ना लडें उससे ॥१६॥
प्रसंग में त्याग ही करें । आगे विवेक का विवरण करें । विवेक से सज्जन ही होयें । सभी लोगों में ॥१७॥
आत्मत्व में दिखता भेद । यह सारा ही देहसंबंध । एक जीवन से नाना स्वाद । औषधि भेद से ॥१८॥
हुये गरल और अमृत । परंतु नहीं गया आपत्व । वैसे ही रखकर साक्षित्व । देखना चाहिये आत्मा को ॥१९॥
अंतर्निष्ठ जो पुरुष । वह अंतर्निष्ठा से विशेष । जग में जो जगदीश । वह पहचाने उसे ॥२०॥
नयन से ही देखें नयन । मन से ही खोजें मन । वैसे ही यह भगवान । सभी घटों में ॥२१॥
उसके बिना कार्यभाग अड़े । सब कुछ उससे ही होये । प्राणी विवेक में विशान होये । उसके ही योग से ॥२२॥
जागृति में होते व्यवहार । वे उसी से संबंध रखकर । स्वप्न में होता घटित । वह भी इसी न्याय से ॥२३॥
अखंड ध्यान का लक्षण । अखंड देव का स्मरण । इनका समझते ही विवरण । सहज ही होये ॥२४॥
सहज छोड़कर सायास । यह भी कोई एक दोष । आत्मा त्याग अनात्मा का । ध्यान धरते ॥२५॥
परंतु वह धरने से भी धरें ना । ध्यान में आते व्यक्ति नाना । व्यर्थ ही मन थकाना । व्याकुल करके॥२६॥
मूर्ति ध्यान करते सायास से । वहां एक का एक दिखे । भासे नहीं वही भासे । विलक्षण ॥२७॥
ध्यान देव का धरें । अथवा देवालय का धरें । इसका ही अच्छे से विवरण करें । अपने आप से ॥२८॥
देह मंदिर आत्मा देव । सोचें कि कहां रखें भाव । देव पहचान कर जीव । जोडें उससे ही ॥२९॥
अंतरनिष्ठा ध्यान ऐसे । दंडक ध्यान भिन्न इससे । प्रत्यय बिन सारे पागल जैसे । अनुमानध्यान ॥३०॥
अनुमान से अनुमान बढ़े । ध्यान धरे तो सब कुछ टूटे । बेकार ही बेचारे थकते । स्थूलध्यान में ॥३१॥
देव को देहधारी कल्पित करते । वहां नाना विकल्प उठते । भोगना त्यागना विपत्ति । देहयोग से ॥३२॥
ऐसे मन में जब स्मरण होता । विचार करें तो कुछ भी न दिखता । नहीं जो वह भी दिखता । नाना स्वप्नों में ॥३३॥
दिखता वह कहते ना बने । बलात् भावार्थ धरना ना आये । साधक व्याकुल होये । अंतर्याम में ॥३४॥
सर्वांगीण हुआ ध्यान । इसका साक्षी अपना मन । मन में विकल्पदर्शन । हों ही नहीं ॥३५॥
टूटा मन इकट्ठा किया । उससे खंडित ध्यान किया । उससे क्या सार्थक हुआ । देखो तो भला ॥३६॥
अखंड ध्यान से न हो हित । फिर उसे जानिये पतित यही अर्थ सावध चित्त । कर देखें अच्छी तरह ॥३७॥
ध्यान धरता वह कौन । ध्यान में याद आता वह कौन । दोनों में अनन्य लक्षण । रहना चाहिये ॥३८॥
अनन्य सहज ही है । साधक यह खोज कर ना देखे । ज्ञानी यह विवरण कर रहे । समाधान से ॥३९॥
ऐसे ये प्रत्यय के काम । प्रत्यच बिन बाधते भ्रम । लोकदंडकसंभ्रम । से चलते प्राणी ॥४०॥
दंडकध्यान का लक्षण । लेकर बैठे अवलक्षण । प्रमाण और अप्रमाण । न जानते बाजारी ॥४१॥
मिथ्या समाचार फैलाते । व्यर्थ ही चिल्लाते । अंत में जब मन में लाते । सारा ही मिथ्या ॥४२॥
कोई एक ध्यानस्थ बैठा ऐसे । कोई एक सिखलाये उसे । मुकुट निकाल माला पहनाये । याने भला ॥४३॥
मन के पास कैसा अकाल । जो कल्पित की छोटी सी माला । कहने सुनने वाले केवल । मूर्ख जानिये ॥४४॥
प्रत्यक्ष श्रम न करने पडते । धागे में फूल पिरोने न पडते । कल्पना की माला छोटी करते । किस कारण ॥४५॥
बुद्धि बिन प्राणी समस्त । वे सारे ही असंबद्ध । उन मूर्षों से व्यर्थ बातचीत कौन करें ॥४६॥
जिसने किया परमार्थ जैसा । जग में चली वैसा ही प्रथा । सात पांच का बलवान हुआ । साभिमान ॥४७॥
प्रत्यय बिना साभिमान । याने रोगी को मारना ढांक कर । वहां सारा ही अनुमान । ज्ञान कैसा ॥४८॥
सर्व साभिमान छोड़ें । प्रत्यय से विवेक को खडा करें । मायापूर्वपक्ष का खंडन करें । विवेकबल से ॥४९॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे अखंडध्याननिरूपणनाम समास आठवां ॥८॥

N/A

References : N/A
Last Updated : December 09, 2023

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP