नामरूप - ॥ समास नववां - आत्मविवरणनाम ॥

इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
आत्मा को शरीरयोग से । उद्वेग चिंता करनी पडे । शरीरयोग से आत्मा जगे । यह तो प्रकट ही है ॥१॥
देह अन्न ही खाये ना । फिर आत्मा कदापि जिये ना । आत्मा के बिन चेतना । देह में कैसी ॥२॥
ये एक से अलग एक । करने जायें तो निरर्थक । उभय योग से कोई एक । कार्य चले ॥३॥
देह में नहीं चेतना । आत्मा से पदार्थ उठे ना । स्वप्नभोजन से भरे ना । पेट कभी ॥४॥
आत्मा स्वप्न अवस्था में जाता । परंतु देह में ही रहता । नींद में भी खुजलाता । चमत्कार देखो ॥५॥
अन्न रस से बड़ता शरीर । शरीर अनुसार विचार । वृद्धावस्था में तद्नंतर । होते दोनों भी संकुचित ॥६॥
उन्मत्त द्रव्य शरीर खाता । देहयोग से आत्मा भूलता । विस्मरण से सुधबुध खोता । सब कुछ ॥७॥
देह ने लिया विष । आत्मा जाये सावकाश । बढना टूटना नेमस्त । है आत्मा को ॥८॥
बढना टूटना जाना आना । सुख दुःख देह के ही गुणों से । नाना प्रकार से भोगना । पड़ता आत्मा को ही ॥९॥
बांबी याने पोल । चीटियों के मार्ग ही सकल । वैसे ही केवल । यह शरीर जानो ॥१०॥
शरीर में नाड़ियों का जाल । नाड़ियों मे मार्ग पोकल । छोटी बडी सकल । भरी खचाखच ॥११॥
प्राणी अन्नोदक लेता । उससे अन्नरस बनता । उसे वायु प्रवर्तित करता । श्वासोच्छ्वास द्वारा ॥१२॥
नाड़ी द्वारा दौड़े जीवन । जीवन में खेले पवन । उस पवन समान जान । आत्मा का भी संचार ॥१३॥
तृषा से सूखा शरीर । आत्मा को समझे यह विचार । फिर उठवाकर शरीर । चलाये उदक की ओर ॥१४॥
उदक मांगे शब्द कहलवाये । मार्ग देखकर शरीर चलाये । सारी हलचल कराये । प्रसंगानुसार ॥१५॥
क्षुधा लगी ऐसे जानता । फिर देह को उठवाता । उल्टा सीधा कहलवाता । इससे उससे ॥१६॥
स्त्रियों में कहे हो गया हो गया । शरीर पवित्र कर लाया । पैरों में प्रवेश कर चलवाया । जल्दी जल्दी ॥१७॥
उसे थाली पर बिठाया । नेत्रों से भरकर पात्र को देखा । हांथ से आरंभ करवाया । आपोषण ॥१८॥
हांथ द्वारा ग्रास उठवाये । मुख में जाकर मुख फैलवाये । दांतों द्वारा चबवाये । सही तरह से ॥१९॥
स्वयं जिव्हा में खेले । स्वाद सुगंध को देखे । केश काडी कंकर समझे । तत्काल थूके ॥२०॥
फीका लगने पर नमक मांगे । पत्नी से कहे अरे क्यों रे । आंखे फाड़कर देखने लगे । क्रोधित होकर ॥२१॥
मीठा लगते ही आनंदित होये । मीठा न हो तो परम दुःखी होये । टेढ़ी बातें अंदर लगे । आत्मा को ॥२२॥
नाना अन्नों की मिठासें । नाना रसों में स्वाद खोजे । तीखा लगते ही सिर झटके । और खांसे ॥२३॥
मिरपुड ज्यादा डालने पर । क्या बनाया कहे चिल्लाकर । जिव्हा द्वारा कठिनोत्तर । बोले क्रोध से ॥२४॥
आज्य उदंड खाया । साथ ही लोटा उठाया । गटागट लेने लगा । सावकास ॥२५॥
देह में सुखदुःखभोक्ता । देखें तो वह एक ही आत्मा । आये बिन देह वृथा । होता शव ही ॥२६॥
मन की अनंत वृत्ति । जानना वही आत्मस्थिति । त्रैलोक में जितने भी व्यक्ति । उनके अंदर आत्मा ॥२७॥
जग में जगदात्मा । विश्व में विश्वात्मा । सर्व चलाये सर्वात्मा । नाना रूपों में ॥२८॥
सूंघे चखे, सुने देखे । मृदु कठिन पहचाने । शीत उष्ण मालूम होये । तत्काल ही ॥२९॥
सावधानी से लाघवी होता । बहुत उठापटक करता । इस धूर्त की धूर्तता । समझे धूर्त ही ॥३०॥
वायु के साथ परिमल आता । परंतु वह परिमल पिघल जाता । धूली लेकर वायु आता । परंतु वह भी जाये ॥३१॥
शीत उष्ण वायु के संग में । सुवास अथवा कुवासे । रहते परंतु सावकाश से । टिकते नहीं ॥३२॥
वायु के साथ रोग आते । वायु के साथ भूत भागते । धुआं और कोहरा आते । वायु के साथ ॥३३॥
वायु के साथ कुछ भी जिये ना । आत्मा के साथ वायु टिके ना । आत्मा की चपलता जान । होती अधिक ॥३४॥
कठिन पदार्थ से वायु अड़ता । आत्मा कठिन भेद कर जाता । अगर देखो उसकी कठिनता । अभेद्य हैं ॥३५॥
वायु हर हर बजे । आत्मा कुछ भी न बजे । मौन से ही अंतरंग में समझे । विवरण कर देखें तो ॥३६॥
शरीर का भला किया । तो वह आत्मा ने प्राप्त किया । शरीर योग से पाया । समाधान ॥३७॥
 देह से हटकर उपाय नाना । किये तो आत्मा तक पहुंचे ना । समाधाने पाये वासना । देह से ही ॥३८॥
देह आत्मा के कौतुक । देखने जाओ तो ये अनेक । देह से अलग । अड़चन होती आत्मा को ॥३९॥
एक रहते उदंड होता । अलग से देखें तो कुछ भी ना होता । विवेक से त्रैलोक्य का पता चलता । देहात्मयोग से ॥४०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे आत्मविवरणनाम समास नववां ॥९॥

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Last Updated : December 08, 2023

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