गुणरूपनाम - ॥ समास नववां - संदेहवारणनाम ॥

श्रीसमर्थ ने इस सम्पूर्ण ग्रंथ की रचना एवं शैली मुख्यत: श्रवण के ठोस नींव पर की है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
ब्रह्म निवारित करने से होये ना । ब्रह्म हटाने से हटेना । ब्रह्म का संचयन हो सकेना । एक ओर ॥१॥
ब्रह्म भेदने से भेदेना । ब्रह्म छेदने से छिदेना । ब्रह्म पीछे हटेना । हटाने पर भी ॥२॥
ब्रह्म न हो खंडित अखंड । ब्रह्म में नहीं अन्य गड़बड़ । फिर भी कैसे यह ब्रह्मांड । आ गया बीच में ॥३॥
पर्वत पाषाण शिला शिखर । नाना स्थल स्थलांतर । भूगोलरचना किस प्रकार । हुई ब्रह्म में ॥४॥
भूगोल है ब्रह्म के भीतर । ब्रह्म है भूगोल के अंदर । देखें तो एक दूसरे के भीतर । प्रत्यक्ष दिखे ॥५॥
ब्रह्म ने भूगोल को व्याप्त किया। और भूगोल भी ब्रह्म से भेदित हुआ । विचार देखने पर प्रत्यय आया । प्रत्यक्ष अब ॥६॥
ब्रह्म ने ब्रह्मांड को भेदा । यह तो देखने पर स्पष्ट ही हुआ । मगर ब्रह्मांड ने ब्रह्म को भेदा । यह विपरीत दिखे ॥७॥
भेदा नहीं कहें ऐसे । फिर भी ब्रह्म में ब्रह्मांड स्वभाव से । सब को यह अनुभव से । दिखता ही है ॥८॥
फिर यह हुआ कैसे । विचारपूर्वक बोलना चाहिये । श्रोताओं ने आक्षेप लिये । आक्षेपवचन ॥९॥
अब इसका प्रत्युत्तर । सुनो सावधानी से हों निरूत्तर । यहां आया कि विचार । संदेह का ॥१०॥
ब्रह्मांड नहीं कहें तो भी दिखे । और दिखे कहें तो भी नाश होये । अब यह कैसे समझते । श्रोताजन ॥११॥
तब श्रोता हुये उत्सुक । वक्ता कहे बैठो सचेत । कहता हूं प्रसंगानुसार उचित । प्रत्योत्तर ॥१२॥
आकाश में दीप लगाया । दीप ने आकाश धकेल दिया । यह तो होता नहीं देखना । चाहिये श्रोताओं ने ॥१३॥
आप तेज अथवा पवन । हटा ना सकते गगन । गगन देखें तो सघन । हिलेगा कैसे ॥१४॥
अथवा कठिन हुई मेदिनी । फिर भी गगन ने उसे भेदी । पृथ्वी का सर्वांग भेदकर ही । रहता गगन ॥१५॥
इसकी प्रचीति है ऐसे । जो जडत्व पाता वह सारा नासे । आकाश रहे जैसे के वैसे । चंचल होता नहीं ॥१६॥
देखें भिन्न दृष्टि से । तो कहते आकाश उसे । अभिन्न होते ही सहजता से । आकाश ब्रह्म ॥१७॥
तस्मात आकाश चलित होये ना । गगन का भेद समझे ना । ब्रह्म का जो भास हुआ । जानिये वही आकाश ॥१८॥
निर्गुण ब्रह्म सा भास हुआ । कल्पना करने पर अनुमान किया । इस कारण आकाश कहा । कल्पना के कारण ॥१९॥
कल्पना को भासे भास । उतना जानिये आकाश । परब्रह्म निराभास । निर्विकल्प वह ॥२०॥
पंचभूतों में वास । इस कारण कहते आकाश । भूतों के भीतर जो ब्रह्मांश । वही गगन ॥२१॥
प्रत्यक्ष होता रहता ऐसे । अचल कैसे कहें उसे । गगन को इस कारण से । भेदा जाता ही नहीं ॥२२॥
पृथ्वी पिघलकर रहे जीवन । जीवन न रहने पर रहे अग्न । अग्न बुझनेपर रहे पवन । वह भी नाश पाये ॥२३॥
मिथ्या आया और गया । उससे सत्य तो भंग हुआ । ऐसा यह प्रचीति में आया । किस प्रकार ॥२४॥
भ्रम से प्रत्यक्ष दिखे । विचार देखें वहां क्या है । भ्रममूल इस जगत में । सत्य कैसे कहें ॥२५॥
भ्रम खोजें तो कुछ भी नहीं । वहां छेदेगा किसका क्या कोई । भ्रम छेदन किया कहते ही । भ्रम ही मिथ्या ॥२६॥
भ्रम का रूप मिथ्या हुआ । फिर सुख से कहो छेदन किया । मूलतः झूठा उसने किया । वह भी वैसा ॥२७॥
झूठे ने उदंड किया । तो हमारा क्या गया। किया कहते ही मिथ्या हुआ । जानते सयाने ॥२८॥
सागर में खसखस । वैसे परब्रह्म में दृश्य । मतिसमान मतिप्रकाश । बढ़े भीतर ॥२९॥
मति करनेपर विशाल । सिमटने लगे अंतराल । देखने पर भासे ब्रह्मगोल । कबीट जैसा ॥३०॥
वृत्ति उससे भी विशाल । करने पर ब्रह्मांड लगे बद्रिफल । ब्रह्माकार होने पर केवल । कुछ भी नहीं ॥३१॥
स्वयं विवेक से विशाल हुआ । मर्यादा को लांघ दिया । तब ब्रह्मगोल दिखाई दिया । वटबीजन्याय से ॥३२॥
होने पर उससे भी विस्तीर्ण । वटबीज कोटिप्रमाण । स्वयं होते ही परिपूर्ण। कुछ भी नहीं ॥३३॥
स्वयं भ्रम से छोटा हुआ । केवल देहधारी हुआ । तो फिर ब्रह्मांड उसके लिये सिमटेगा । कैसे ॥३४॥
वृत्ति इतनी बढ़ाये । फैलाकर है ही नहीं करें । पूर्णब्रह्म को समेटे । चारो ओर से ॥३५॥
एक जौ सुवर्ण लाया । उससे ब्रह्मांड मढ़ा । कैसे होगा वह तत्त्वतः । देखो सही तरह ॥३६॥
वस्तु वृत्ति में न सिमटे । उससे वृत्ति फटकर पिघले । निर्गुण आत्मा ही शांत होये । रहे जैसे का वैसे ॥३७॥
यहां आशंका टूटे । श्रोता संदेह ना धरें । अनुमान हो फिर भी अवलोकन करें । विवेक से ॥३८॥
विवेक से टूटे अनुमान । विवेक से होये समाधान । विवेक से आत्मनिवेदन । मिले मोक्ष लाभ ॥३९॥
उपेक्षित किया मोक्ष । विवेक से हटाया पूर्वपक्ष । सिद्धांत आत्मा प्रत्यक्ष । को प्रमाण न लगे ॥४०॥
प्रचीत के उत्तर ऐसे । समझते सारासार विचार से । मननध्यास साक्षात्कार से । पावन होइये ॥४१॥
इति श्रीदासबोध गुरुशिष्यसंवादे संदेहवारणनाम समास नववां ॥९॥

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Last Updated : December 04, 2023

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