स्तवणनाम - ॥ समास नववां परमार्थस्तवननाम ॥

इस ग्रंथ के श्रवण से ही ‘श्रीमत’ और ‘लोकमत’ की पहचान मनुष्य को होगी.


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
अब करु स्तवन यह परमार्थ । जो साधकों का निजस्वार्थ । अथवा समर्थों में समर्थ योग यह ॥१॥
है तो यह परम सुगम । मगर हुआ जनों को दुर्गम । समझने में चूके जो मर्म । सत्समागम का ॥२॥
नाना साधनों के हैं उधार । यह नगद ब्रह्मसाक्षात्कार । वेदशास्त्रों में जो सार । अनुभव में आये ॥३॥
है तो चारों ओर । दृष्टि से न दिखे अणुमात्र मगर । उदास एकात देखनेपर भी ना दिखे ॥४॥
आकाशमार्गी गुप्त पंथ । जानते योगीवर समर्थ । अन्यों को यह गुह्यार्थ । सहसा न समझे ॥५॥
सार का भी निजसार । अखंड अक्षय अपार । ले ना जा सकते जिसे तस्कर करें कुछ भी ॥६॥
उसे नहीं राजभय । अथवा नहीं अग्निमय । अथवा श्वापद भय । बोलो ही नहीं ॥७॥
परब्रह्म वह हिला ना । अथवा ठौर भी चूके ना । कालांतर में भी चंचल होये ना । जहां का वहां ॥८॥
ऐसा यह निज निधान । उसमें कभी न हो परिवर्तन । अथवा न हो अधिक न्यून । प्रदीर्घ काल तक ॥९॥
अथवा न वह घिसता । अथवा न अदृष्य होता । अथवा देखने से भी न दिखता । गुरू अंजन बिन ॥१०॥
पहले थे जो योगी समर्थ । उनका भी था यही निजस्वार्थ । इसे कहते परमार्थ । परम गुह्य ऐसे ॥११॥
देखा जिन्होंने भी खोजकर । हुआ प्राप्त उन्हें अर्थ । औरों को भी अलभ्य रहा निकट होकर । जन्म जन्मों तक ॥१२॥
अपूर्वता इस परमार्थ की । नहीं वार्ता जन्म मृत्यू की । और पदवी सायुज्यता की । संन्निध ही होती प्राप्त ॥१३॥
विवेक से माया का अस्त । सारासार विचारों से बोध । परब्रह्म भी होते प्राप्त । अंतर्याम में ॥१४॥
ब्रह्म भासता उदंड । ब्रह्म में डूबा ब्रह्मांड । पंचभूतों का पाखंड । तुच्छ लगता ॥१५॥
प्रपंच लगे खोटा । माया लगे मिथ्या । शुद्ध आत्मा विवेक से आया । अंतरंग में ॥१६॥
ब्रह्मस्थित दृढ होते ही अंदर । संदेह गया ब्रह्मांड के बाहर । दृश्य जगत यह जर्जर । तुच्छ हुई ॥१७॥
ऐसा यह परमार्थ । जो करे उसका निजस्वार्थ । अब ऐसे समर्थों के जो समर्थ । क्या वर्णन करें उसका ॥१८॥
इस परमार्थ के कारण । ब्रह्मादिक भी पाते विश्राम । योगी होते तन्मय । परब्रह्म में ॥१९॥
परमार्थ विश्राम सबका । सिद्ध साधु महानुभावों का । अंत में सात्विक जड़जीवों का । सत्संग करने से ॥२०॥
परमार्थ जन्म का सार्थक । परमार्थ संसार से तारक । परमार्थ दिखायें परलोक । धार्मिक को ॥२१॥
परमार्थ तपस्वियों का ठौर । परमार्थ साधकों का आधार। परमार्थ दिखलाता पार । भवसागर का ॥२२॥
परमार्थी वह राज्यधारी । परमार्थी नही वह भिखारी । इस परमार्थ की बराबरी । किससे करें ॥२३॥
अनंत जन्मों के पुण्य जुडे । तभी परमार्थ रचे । मुख्य परमात्मा समझे । अनुभव से ॥२४॥
जिसने परमार्थ पहचान लिया । उसीने जन्म सार्थक किया । अन्य वह पापी जन्म लिया । कुलक्षय कारण बना ॥२५॥
अस्तु भगवद्प्राप्ति के बिन पाये संसार में थकान । उस मूर्ख का मुखावलोकन । करें ही नहीं ॥२६॥
भले जन हो करो परमार्थ । शरीर को करो सार्थ । पूर्वजों के उद्धरार्थ । करो हरीभक्ति तुम ॥२७॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे परमार्थस्तवननाम समास नववां ॥९॥

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Last Updated : November 27, 2023

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