यात्राप्रकरणम्‌ - श्लोक ९६ ते ११४

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ गमनसमयकृत्यम्‌ । स्वस्य देवस्य वा गेहादगुरोर्वा मुख्ययोषित : । हविष्यं प्राश्य मतिमान्‌ ब्राह्मणैरनुमोदित : ॥९६॥

एवं सन्मंमलान्येव संयायाद्विजयी नर : । गम्यदिकसंमुखं दत्त्वा वहन्नाडीपदं पुर : ॥९७॥

व्रजेद्दिगौशं ह्र्दये निधाय यथेंद्रमैंद्रचामपराश्व तद्वत । सुशुक्लमाल्यांबरभृन्नरेंद्रो विसर्जयेद्दक्षिणपादमादौ ॥९८॥

स्नात : सितांबरधर : सुमना : सुवेश : सपूजिताऽमरगुरुद्विजगोदिगौश : । कृत्वा प्रदक्षिणशिखं त्रिशिखं कृताशीर्गच्छेन्नर : शकुनसूचितकार्य्यसिद्धि : ॥९९॥

निमित्तशकुनादिश्र्य : प्रधानो हि मनोजय : । तस्माद्यियासतांनृणां फलसिद्धिमनोजयात्‌ ॥१००॥

( गमनसमयकृत्य ) निज ( अपने ) घरमें या देवालयमें गुरुके घरमें या अपनी मुख्य प्यारी स्त्रीके स्थानमें उत्तम पदार्थ भक्षण करके और ब्राह्मणोंके हुकुम लेके ॥९६॥

श्रेष्ठ मांगलिक शब्द सुनता हुआ लाभकी कामनावाला मनुष्य गमन करे , परंतु , जिस दिशामें जाना हो उसी दिशाके संमुख खडा होके तथा जो स्वर चलता हो उसी पाँवको अगाडी रखके गमन करना चाहिये ॥९७॥

प्रथम तो दिशाके अधिपतिका ह्रदयमें ध्यान , करे , जैसे पूर्वको जानेवाला इंद्रका , और दक्षिणको जानेवाला धर्मराजका , पश्चिमको वरुणका , उत्तरको कुबेरका घ्यान करके शुद्ध श्वेतवस्त्र धारण करे अगाडी दक्षिण ( दहना ) पैर रखके गमन करे ॥९८॥

परन्तु स्नान और श्वेतवस्त्र धारण करके प्रसन्नचित्तसे देवता , गुरु , ब्राह्मण , गौ , दिशाधिपतिका पूजन करे और उनकी आशिष लेकर अग्निको परिक्रमा देवे फिर उत्तम शकुन देखता हुआ कार्यकी सिद्धिके अर्थ गमन करे ॥९९॥

शकुन , मुहुर्त्त आदिसे प्रधान चित्तकी प्रसन्नता है इस वास्ते जब चित्त प्रसन्न हो तब जानेवालोंके कार्य सिद्ध होते हैं ॥१००॥

अथ स्वरविचार : । शशिप्रवाहे गमनादि शस्तं सूर्यप्रवाहे नहि किंचनापि । प्रष्टुर्यय : स्याद्वहमानभागे रिक्ते च भागे विफलं समस्तम्‌ ॥१०१॥

अस्मिन्विशेष : । अथ चंद्रस्वरकृत्यम्‌ । प्रवेशोद्वाहयात्राश्व वस्त्रालंकारधारणम्‌ । संधि : शुभानि कर्माणि कर्याणींदुस्वरोदये ॥१०२॥

अथ सूर्यस्वरकृत्यम्‌ कुर्यात्सूर्यस्वरे युद्धं व्यबहारं च भोजनम्‌ । मैथुनं बिग्रहं द्यूतं स्नानं भंगं भयं तथा ॥१०३॥

अथ नाडीलक्षणम्‌ । नाडीडा वामगा चांद्री पिंगला दक्षिणा रवे : । सुषुम्ना शांभवी मिश्रा सा तु योगींद्रगोचरा ॥१०४॥

अथ सुमुहूर्त्ते स्वगमनविलंबे प्रतिनिधित्वेन प्रस्थानम्‌ । तस्मिन्मुहूर्त्ते स्वयमप्रयाणे प्रयोजनापेक्षतया च दैवात्‌ । गंतव्यदेशाभिमुखप्रदेशे प्रस्थानमाह : शुभदं नराणाम्‌ ॥१०५॥

अथ प्रस्थानद्रव्याणि । यज्ञोपवीतकं शस्त्रं मधु च स्थापयेत्फलम्‌ । विप्रादिक्रमत : सर्वे स्वर्णधान्यांबरादिकम्‌ ॥१०६॥

छत्राद्यं ध्वजमक्षसूत्रमथवा यज्ञोपवीतं द्विजैवैंश्यस्य स्वकदेहवस्त्रतुरगौ क्षत्रस्य खडूगो धनु : । ग्रामोपांतनदीद्विजामरगृहोद्याने च वापीतटे स्थाने चापि मनोरमे प्रकथिता प्रस्थानयात्रा शुभा ॥१०७॥

( स्वरविचार ) चन्द्रमाके स्वरमें अर्थात्‌ बाएँ स्वरमें गमन प्रवेश आदि करना श्रेष्ठ है , और सूर्यके स्वरमें अर्थात्‌ दहने स्वरमें युद्ध , व्यवहार आदि करना शुभ होता है और प्रश्न करनेवालेका जिधरका स्वर हो उधर बैठके प्रश्न करे तो सर्व कार्य सिद्ध हों और विपरीत हो तो अशुभ है ॥१०१॥१०४॥

( प्रस्थान ) यदि यात्राके मुहूर्त्तमें किसी कार्यवशसे जाना नहीं हो तो उसी मुहूर्त्तमें जानेवाली दिशाके संमुख प्रस्थान रखना श्रेष्ठ है ॥१०५॥

( प्रस्थानद्रव्य ) ब्राह्मण प्रस्थानमें यज्ञोपवीत रक्खे , क्षत्री खड्‌ग आदि शस्त्र रक्खे और वैश्य शहद रख देवे । अथवा तीनों ही सुवर्ण , धान्य अर्थात्‌ चावल और वस्त्र रख देवें ॥१०६॥

अथवा ब्राह्मणको छत्र , ध्वजा , माला , यज्ञांपवीत आदि रखना योग्य है और वैश्यको अपना शुद्ध वस्त्र , अश्व और क्षत्रियको खड्रग ( तलवार ) धनुप ( कमाण ) रखना चाहिये परन्तु ग्रामके समीप नदी या ब्राह्मणके घर या देवमंदिर , बगीचा , बावडी आदि रमणीयक शुद्ध स्थानमें रक्खे तो शुभ यात्रा होती है ॥१०७॥

अथ प्रस्थानदेशा : । गेहाद्रेहान्तरं गर्ग : सीम्न : सीमांतरं भृगु : बाणक्षेप भरद्वाजो वसिष्ठो नगराद्वहि : । प्रस्थानेऽपि कृते नोऽयान्महादोषान्विते दिने ॥१०८॥

अथ दिङनियमेन प्रस्थानस्थिति : सप्ताहान्येव पूर्वस्यां प्रस्थानं पंच दक्षिणे । पश्विमें त्रीणि शस्तानि सौम्यायां तु दिनद्वयम्‌ ॥१०९॥

धृतप्रस्थानको वाऽपि स्वयं संप्रस्थितोऽपि वा । ततोऽपि गमने चिंत्यं सच्चंद्रशकुनादिकम्‌ ॥११०॥

अथ प्रस्थानकर्तुर्नियमा : । त्रिरात्रं वर्जयेत्क्षीरं पंचाहं क्षौरकर्म च । तदहश्वावशेषाणि सप्ताहं मैथुनं त्यजेत्‌ ॥१११॥

अथ वर्षादिषुछत्रादिधारणम्‌ । वर्षातपादिके छत्त्री दंडी रात्र्यटवीषु च । शरीरत्राणकामो वै सोपानत्क : सदा व्रजेत्‌ ॥११२॥

नोर्द्धंव न तिर्य्यग्‌ दरं वा निरीक्षन्‌ पर्य्यटेद्‌ बुध : । युगमात्रं महीपृष्ठं नरो गच्छेद्विलोकयन्‌ ॥११३॥

चतुष्पथान्नमस्कुर्याच्चैत्यवृक्ष तथैव च । चेवालयं गुरून्वृद्धान्‌ स्वपूज्यान्‌ वृषभं च गाम्‌ ॥११४॥

प्रस्थानमें गर्ग ऋषिका मत छोटे ग्राममें अपने घससे दूसरे घरमें प्रस्थान रखने का है और भृगुजीका मत बडे ग्राममें ग्रामकी सीमासे बाहरका है , भरद्वाजका मत शहरमें बाणप्रक्षेप हो उतनी दूरका है और वसिष्ठजीका मत नगरका नगरसे बाहर रखनेका जानना चाहिये । प्रस्थान रखनेके अनन्तर भी यदि निषिद्ध दिन अर्थात्‌ अकाल वृष्टि या धूर पडी हो तो नहीं जाना योग्य है ॥१०८॥

( प्रस्थान स्थिति ) पूर्वयात्रामें सात रोजतक प्रस्थानकी अवधि है , दक्षिणमें पांच दिनकी , पश्चिममें तीन दिनकी और उत्तरमें दो दिनकी अवधि जानना ॥१०९॥

प्रस्थान लेकर जानेमें और प्रस्थान रखते समयमें भी चन्द्रमाका बल तथा श्रेष्ठ शकुन तो देखने ही चाहिये ॥११०॥

( प्रस्थान रखनेके अनन्तर नियम ) प्रस्थान रखनेके पहले ही तीन रोजतक दुग्ध नही पीवे और पांचरोज पहले क्षौर ( हजामत ) त्याग देवे और सातरोज पहले स्त्रीसंग त्याग देना चाहिये ॥१११॥

वर्षा या घाम हो तो छत्र धारण करे और रात्रिमें या नंगलमें जाना हो तो दंड ( छडी ) धारण करे और शरीररक्षाके अर्थ जूता सदैव धारके गमन करे ॥११२॥

गमन करते हुएको ऊपरकोया टेढा नहीं देखना चाहिये , दूरसे चार हाथ जमीनतक देखता हुआ गमन करे ॥११३॥

यदि रास्तेमें ( चौघट ), यज्ञ स्थानका वृक्ष , देवालय , गुरु , वुद्ध , माता - पिता आदि पूज्य , वृषभ , गौ आदि मिलें तो नमस्कार करे और दक्षिण भागमें लेवे ॥११४॥

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Last Updated : November 11, 2016

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