यात्राप्रकरणम्‌ - श्लोक १४ ते ३४

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ विदिक्‌शूलम्‌ । आग्नेय्यां च गुरौ चद्रे नैऋत्यां रविशुक्रयो : । ऐशान्यां चंद्रजे वायौ मंगले गमनं त्यजेत्‌ ॥१४॥

अथ नक्षत्रशुलम्‌ । दिक्‌शूलं पूर्वदिग्भागे जेष्ठायां शनिसोमयो : । पूर्वाभाद्रपदे य़ाम्य तथैव गुरुवासरे ॥१५॥

रवौ शुक्रे च रोहिण्यं पश्विमायां त्यजेद्‌ बुध : । उदीच्यामुत्तराफाल्गुन्यभिधे मंगले बुधे ॥१६॥

अथ शूलफलम्‌ । शूलसंज्ञानि धिष्ण्यानि शूलसंज्ञास्व वासरा : । यायिनां मृत्युदा : शीघ्रमथवा चार्थहानिदा : ॥१७॥

अथात्यावश्यके शूलपरिहार : । सूर्यवारे घृतं प्राश्य सोमवारे पयस्तथा । गुडमंगारके वारे बुधवारे तिलानपि ॥१८॥

गुरुवारे दधि प्राश्य शुक्रवारे यवानपि । माषान्‌ भुक्त्वा शनेर्वारे गच्छञ्शूले न दोषभाक्‌ ॥१९॥

अन्य उपाय : तांबूलं चन्दनं मृच्च पुष्पं दधि घूतं तिला : । वारशूलहराण्यर्काद्दानाद्धारणतो‍ऽदनात्‌ ॥२०॥

( विदिकशूल ) गुरुवार चन्द्रवारको अग्निकोनमें नहीं जावे , और आदित्य , शुक्रवारको नैऋत्यकोणमें तथा बुधवारको ईशानमें और मंगलवारको वायु कोणमें गमन नहीं करे ॥१४॥

( नक्षत्रशूल ) ज्येष्ठा नक्षत्र तथा शनि , सोमवारको पूर्वमें दिशाशूल है , पूर्वाभाद्रपद गुरुवारको दक्षिणमें ॥१५॥

रोहिणी , सूर्य , शुक्रवारको पश्चिममें , उत्तराफाल्गुनी तथा मंगल , बुधवारको उत्तरदिशामें दिशाशूल जानना ॥१६॥

( शूलफल ) शूल संज्ञावाले नक्षत्र तथा सूलसंज्ञक वार संमुख जानेवालोंको मृत्युदायक हैं और धनका नाश करते हैं ॥१७॥

( अति जरूरतमें सम्मुख दिशाशूलका उपाय ) आदित्यवारको गमनसमयमें घृत चाटे , सोमवारको दुग्धपान करे , भौमवारको गुड खावे या दान देवे , बुधवारको तिलदान या भक्षण करे ॥१८॥

गुरुवारके दिन दही खावे , शुक्रवारको यव ( जौ ) भक्षण करे और शनिवारको माष ( उडद ) का दान देकर गमन करे तो शूलका दोष नहीं है , यह दिशाशृलका दोष तथा परिहार सम्मुख शूलका ही है कारण कि ज्योतिष शास्त्रमें सम्मूख ही वर्जिंत है , दक्षिण ( दहिना ), शूलका कहीं भी निषिद्धका लेख नहीं परंतु लोकाचारको भी धारण करना चाहिये ॥१९॥

( दूसरा उपाय ) आदित्यवारको तांबूल , सोमको चंदन , मंगलको मृत्तिका ( मिट्टी ), बुधको पुष्प , गुरुको दही , शुक्रको घृत , शनिवारको तिल इनका दान तथा धारण या भक्षण करके गमन करे तो शूलका दोष नहीं ॥२०॥

अथ कालपाश : । खावुदीच्यां मरुतीन्दुवारे भौमे प्रतीच्यां निऋतौ बुधे च । याम्ये गुरौ वह्निदिशीह शुक्रे मंदे च पूर्वे प्रवदंति कालम्‌ ॥२१॥

कालस्याभिमुख : पाशो वैपरीत्यं तयोर्निशि । तावुभौ संमुखौ त्याज्यौ वामदक्षिणगौ शुभो ॥२२॥

अथ यामार्द्धात्मको राहु : । अष्टसु प्रहरार्द्धेषु ८ प्रथमाद्येष्वहर्निशम्‌ । पूर्वस्यां वामतो राहुस्तुर्यांतुर्यां ४ दिंश व्रजेत्‌ ॥२३॥

राहु : प्राच्यां ततो वायुर्दक्षिणेशानपश्विमे । अग्नावत्तरनैऋत्यां प्रहरार्द्धं च तिष्ठति ॥२४॥

अथ राहुफलम्‌ । यूति युद्धे विवादे च यात्रायां संमुखस्थितम्‌ राहुं विवर्जयेद्यत्नाद्यदीच्छेत्कर्मण : फलम्‌ ॥२५॥

अन्यच्च । यात्रायां दक्षिणे राहुयोंगिनी वामत : शुभा ॥२६॥

( कालपाश ) आदित्यवारको उत्तरदिशामें काल दिनमें रहता है , सोमको वायुकोणमें , मंगलको पश्चिममें , बुधको नैऋत्यकोणमें . गुरुको दक्षिणमें , शुक्रकी अग्निकोणमें और शनिवारको पूर्वदिशामें काल रहता है ॥२१॥

और कालके संमुख दिशामें पाश ( फांसी ) जानना और रात्रिमें दिनसे दोनों विपरीत रहते हैं अर्थात्‌ कालकी दिशामें पाश और पाशकी दिशामें काल हो जाता है सो यह दोनों ही काल तथा पाश संमुख निषिद्ध है और वाम भागमें तथा दक्षिणभागमें श्रेष्ठ हैं ॥२२॥

( प्रहरार्द्धसंज्ञक राहु ) प्रथम प्रहरसे लेकर आठवें प्रहरतक पूर्व आदि अष्टदिशाओंमें वाम मार्गसे चार चार घडी राहु रहता है अर्थात्‌ प्रथम प्रहरकी पहली चार घडियोंमें तो पूर्वदिशामें रहता है , फिर दूसरे प्रहरकी चार घडियोंमें वायुकोणमें चला जाता है और तीसरे प्रहरमें , दक्षिणमें , चौथे प्रहरमें ईशानमें , पांचवें प्रहरमें पश्चिममें , छठे प्रहरमें अग्निकोणमें , सातवें प्रहरमें उत्तरमें , आठवे प्रहरकी चार घडियोंमें नैऋत्यकोणमें राहु रह्ता है ॥२३॥

अर्थात्‌ पूर्वसे वायुकोणमें फिर दक्षिणमें , दक्षिणसे ईशानमें फिर पश्चिममें , पश्चात्‌ अग्निकोणमें फिर उत्तरमें , उत्तरसे नैऋत्यकोणमें चार घडी रहता है ॥२४॥

( राहुफल ) जूवा , युद्ध , विवाद , यात्रा इत्यादिकार्योंमें यत्नसे संमुख राहु वर्जना चाहिये यदि शुभ फल कार्यकी सिद्धि चाहे तो ॥२५॥

धनाद्यर्थ यात्रामें दक्षिण ( दहना ) राहु और वामभागमें योगिनी श्रेष्ठ हैं ॥२६॥

अथ योगिनी । प्रतिपन्नवमी १।९ पूर्वे ईशान्यां दर्शका ३० ष्टमी ८ । तृतीयैकादशी ३ । ११ वह्नौ याम्यां पंच ५ त्रयोदशी १३ ॥२७॥

द्वादशी १२ च चतुर्थी ४ च नैऋत्ये योगिनी सदा । षष्ठी ६ चतुर्दशी १४ चैव पश्वमायां वसेत्यदा ॥२८॥

सप्तमी ७ पूर्णिमा १५ चैव वायव्ये योगिनी वसेत्‌ । द्वितीया २ दशमी १० युक्ता शिवा वमति उत्तरे ॥२९॥

अथ योगिनीफलम्‌ । योगिनी सुखदा वामे पृष्ठे वांछितदायिनी । दक्षिणे धनहत्री च संमुखे मरणप्रदा ॥३०॥

[ ज्योति : सारेऽपि ] पृष्ठे च शुभदा प्रोक्ता वामे चैव विशेषत : । योगिनी सा भवेन्नित्यं प्रयाणे शुभदा नृणाम्‌ ॥३१॥

[ ज्योतिस्तत्त्वेऽपि ] वामे शुभकरा देवी पृष्ठे सर्वार्थसाधिनी । वधबन्धकरी चाग्रे दक्षिणे मृत्युदायिनी ॥३२॥

[ ज्योतिर्निबन्धेऽपि ] दक्षसंमखयोगिन्यां गमनं नैव कारयेत्‌ । कृते व्याधिमवाप्नोति ह्यर्थहानिं पदेपदे ॥३३॥

रिपोर्ज यार्थिनां याने योगिनी दक्षिणे शुभा । व्यवहारार्थिनां याने वामे शस्ता समीरिता ॥३४॥

( योगिनी ) प्रतिपदा , नवमी को पूर्वदिशामें योगिनी रहती है , अमावास्या , अष्टमीको ईशानकोणमें , तृतीया , एकादशीको अग्निकोणमें , पंचमी , त्रयोदशीको दक्षिणमें रह्ती है ॥२७॥

द्वादशी चतुथींको नैऋत्यकोणमें , पष्ठी , चतुर्दशीको पश्चिममें और सप्तमी , पूर्णिमाको वायुकोणमें , द्वितीया , दशमीको शिवानाम योगिनी उत्तरदिशामें रहती है ॥२८॥२९॥

( योगिनीफल ) वामभागमें योगिनी सुख देती है , पृष्ठ ( पिछाडीमें ) अर्थात्‌ पीठकी योगिनी मनवांछित कार्य करती है और दहिनी योगिनी चौर , राजा , शत्रु , आदिद्वारा धननाश करती है तथा संमुख योगिनी मृत्युकारक है ॥३०॥

( ज्योति : सारमें ) पिछाडीकी योगिनी शुभकारक और बांईं योगिनी अति ही शुभफलके देनेवाली होती है ॥३१॥

( ज्योतिस्तत्त्वमें भी लिखा है ) वामभागमें देवी योगिनी शुभ करनेवाली है , पिछाडीकी संपूर्ण प्रयोजन सिद्ध करती है और संमुख योगिनी शुभ करतेवाली है , पिछाडीकी संपूर्ण प्रयोजन सिद्ध करती है और संमुख योगिनी वध बंधन करती है तथा दहनी योगिनी मृत्युके देनेवाली है ॥३२॥

( ज्योतिर्निबंधमें ) दहनी और सम्मुख योगिनीमें गमन कदापि नहीं करना चाहिये , यदि करे तो व्याधि ( रोग ), धननाश हो जावे जहांही होवेगा ॥३३॥

शत्रुको जीतनेवालोंको दहनी योगिनी श्रेष्ठ है और धन तीर्थ व्यवहार करनेवालोंको यात्रामें बांईं योगिनी श्रेष्ठ कही है , परन्तु आजकल भूदेव लोभके तथा ईर्षाके वश होके दहनी योगिनीमें धनाद्यर्थ यात्रा मुहूर्त्त देते हैं सो शास्त्रविरुद्ध है और अशुभ फल ही जहां तहां देखते हैं सो विचार करना चाहिये , दहनी योगिनी देनेमें मुहूर्तचिन्तामणि , मुहूर्त्तमार्तण्ड , मुहूर्त्तगणपति , नृपतिजयचर्या इत्यादि ग्रन्थोंका प्रमाण देते हैं , परन्तु यह नहीं विचारते हैं कि इन ग्रन्थोंमें क्रूरयात्रा राजाको शत्रु जीतनेकी है या धनाद्यर्थके निमित्त सौम्य यात्रामें लेनी लिखी है ॥३४॥

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Last Updated : November 11, 2016

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