यात्राप्रकरणम्‌ - श्लोक ७५ ते ९५

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ लग्नशुद्धि : । हित्वा सप्तमगं शुक्रं केंद्रे १।४।७।१० कोणे ९।५ शुभा : शुभा : । पापाश्चोपचये ३।१०।११।६ शस्ता याने नो दशम : १० शनि : ॥७५॥

चन्द्रस्तु गमने नेष्टो लग्ना १ रि ६ व्यय १२ रंध्रग : ८ । द्यूने७षष्ठा ६ ष्ट ८ रि : फ १२ स्थो लग्नेशोऽपि न शोभन : ॥७६॥

बुधेज्यभृगुपुत्राणामेकश्चेत्केंद्र १।४।७।१० कोणग : ९ । ५ । तथा योगोऽत्र गमने क्षेमो भवति यायिनाम्‌ ॥७७॥

लग्नदोषाश्व ये केचिद्‌ ग्रहदोषास्तथाऽपरे । ते सर्वे विलयं यांति लग्ने गुरुभृगू यदा ॥७८॥

अथाऽवश्यके होराप्रकार : । वारात्षष्ठस्य षष्ठस्य होरा सद्धित्रिनाडिका । अर्कशुक्रौ बुधश्चंद्रो मंदो जीवधरासुतौ ॥७९॥

गुरुर्विवाहे गमने च शुक्रो बुधश्व बोधे सकलेपु चन्द्र : । कुजे च युद्धं रविराजसेवा मन्दे च वित्त त्विति होरयोगा : ॥८०॥

यस्य ग्रहस्य वारेऽपि कर्म किंचित्प्रकीर्त्तितम्‌ । तस्य ग्रहस्य होरायां सर्वं कर्म विधीयते ॥८१॥

( लग्नशुद्धि ) एक सप्तम स्थानमें शुक्रके विना केन्द्र अर्थात्‌ लग्न १ , चतुर्थ , सप्तम , दशम स्थानोंमें और त्रिकोण नवम , पंचम स्थानोंमें शुभग्रह शुभ जानना और उपचय अर्थात्‌ तीसरे , छठे , दशवें , ग्यारहवें , पापग्रह श्रेष्ठ हैं परन्तु शनैश्वर दशवें स्थानमें श्रेष्ठ नहीं है ॥७५॥

और यात्रामें लग्न १ , छठे , बारहवें , आठवें चन्द्रमा निषिद्ध है और सातवें , छठे , आठवें , बारहवें लग्नका स्वामी भी नेष्ट है ॥७६॥

यदि बुध , बृहस्पति , शुक्रमेंसे एक भी ग्रह केन्द्रमें १ । ४ । ७ । १० अथवा त्रिकोणमें ९ । ५ हो तो जानेवालोंको कल्याण करनेवाल योग है ॥७७॥

और यदि लग्नमें बृहस्पति या शुक्र हो तो लग्नदोष ग्रहदोष सम्पृर्ण विलय होजाते हैं ॥७८॥

( अब आवश्यक यात्राके लिये होरा अर्थात्‌ दुघडिया मुहूर्त लिस्त्रते हैं ) जो वार हो उसी वारकी होरा ( चौघडिया ) प्रथम प्रात : काल ३॥ घडीकी होती है , फिर उसी वारसे छठे छठे वारकी होरा जाननी , जैसे आदित्यवारको प्रथम आदित्यकी , फिर दूसरी शुक्रकी , तीसरी बुधकी , चौथी चन्द्रमाकी , पांचवी शनिकी , छठी बृहस्पतिकी , सातवीं मंगलकी जाननी इसीतरह सोमवार आदि वारोंमें जाननी चाहिये ॥७९॥

गुरुकी होरामें विवाह करना , शुक्रकीमें यात्रा , बुधकीमें विद्यारंभ और संपूर्ण कार्योंमें चन्द्रमाकी होरा श्रेष्ठ है और मंगलकी होरामें युद्ध , रविकी होरामें राजसेवा , शनिकी , होरामें धनस्थापन करना श्रेष्ठ है ॥८०॥

और जिस वारमें जो कर्म करना लिखा है सो उस ग्रहकी होरामें कार्य कर , लेना चाहिये ॥८१॥

अथ यात्रायां निषिद्धानि । प्रतिष्ठोद्वाहमुत्साहं व्रतं चौलं चसतकम्‌ । असमाप्य न गंतव्यमार्त्तवं योषितामपि ॥८२॥

अथाऽकालवृष्टि : । पौषादिचतुरो मासान्प्राप्ता वृष्टिरकालजा । व्रतयात्रादिकं तत्र वर्जयेत्सप्त वासरान्‌ ॥८३॥

मतांतरम । मार्गान्मासात्प्रभृति मुनयो व्यासवाल्मीकिगर्गाश्चैत्रं यावत्सलिलपतने नेति कालं वदंति । नाडीजंघ : सुरगुरुमुनिर्वक्ति वृष्टेरकालौ मासावेतौ न शुभफलदौ पौषमाघौ न शेषा : ॥८४॥

[ यस्मिन्‌ देशे यो वर्षाकालस्ततोऽन्यत्राकलवृष्टिरिति सिद्धांत : ] भूयान्‌ दोषो महोवृष्टावल्पदोषोऽल्पवर्षणे । न दोषो वृष्टिजस्तावद्यावद्भूर्न पदांऽकिता ॥८५॥

त्र्यहे पौषे द्वयहं माघे दिनमेकं तु फाल्गुने । चैत्रे घटीद्वय दोषो नायं गर्भसमुद्भवे ॥८६॥

( यात्रामें निषिद्भकर्म ) प्रतिष्ठा , विवाह , उत्साह , यज्ञोपवीत , चौलकर्म , सूतक , स्त्रीके रजोदर्शनकी शुद्धि इत्यादि कार्य हों तो समाप्ति होजानेके पहले गमन नहीं करना चाहिये ॥८२॥

( अकालवृष्टि विचार ) पौष , माघ , फाल्गुण , चैत्र इन चार मासमें वृष्टि हो तो अकालवृष्टि ( वर्षा ) जाननी , सो यह अकाल वृष्टि होनेसे सात रोजतक यज्ञोपवीत , यात्रा आदि शुभ कार्य नहीं करने योग्य हैं , यह नारदका मत है ॥८३॥

( दूसरा मत कहते हैं ) मृगशिरको आदिलेके चैत्रतक व्यास , वाल्मिकि , गर्ग आदि महर्षि अकालवर्षा मानते हैं और नाडीजंघ ऋषि तथा बृहस्पति अकालवृष्टिके पौष , माघ यह दो मास ही कहते हैं अन्य नहीं ॥८४॥

[ अब यहां हैं , परन्तु जिस देशमें जो वर्षाका काल है जिस वर्षासे अन्न पैदा होता है उसीको वर्षाकाल समझना चाहिये और उसीसे अन्यकालको अकालवृष्टिका काल जानना यह सिद्धांत है , और मारवाडदेशमें तो ज्येष्ठ , आषाढ , श्रावण , भाद्रपद , आश्विनके विना संपूर्ण ही मास अकालवृष्टिके हैं ] इस अकालवृष्टि समयमें ज्यादा वर्षा हो तो बहुत दोष जानना , यदि कम वर्षा हो तो थोडा दोष जानना , यदि बिलकुल ही थोडी वर्षा हो तो जबतक पृथिवीपर मनुष्य आदिके पदचिह्न न हों या सूखी हुई रेती न निकले तब तक दोष नहीं जानना चाहिये ॥८५॥

पौषमें वर्षा हो तो तीन दिन , माघमें दो दिन , फाल्गुनमें एक दिन , चैत्रमें दो घडी शुभकार्योंमें त्याज्य हैं यदि बादल ही हुआ हो तो दोष नहीं है ॥८६॥

अथावश्यकेऽकालवृष्टिदोषपरिहार : । सूर्यांचद्रमसोर्बिबे कृत्वा हेममये तदा । दत्त्वा नत्वा नरो यायात्कार्येऽत्यावश्यके सति ॥८७॥

अथैकस्मिन्दिने यात्राप्रवेशयोर्विचार : । एकस्मिन्नपि दिवसे यदि चेद्रमनं प्रवेशश्व । प्रतिशुक्रवारशूलं न चिंतयेद्योगिनीपूर्वम्‌ ॥८८॥

प्रवेशनिर्गमौ स्यातामेकस्मिन्नपि वासरे । तदा प्रावेशिक चिंत्यं बुधैनैंव तु यात्रिकम्‌ ॥८९॥

प्रवेशान्निगमश्वैव निर्गमाच्च प्रवेशनम्‌ । नवमे जातु नो कुर्य्याद्दिने वारे तिथावपि ॥९०॥

अथ यात्रादिनकृत्यम्‌ । हुताशनं तिलैर्हुत्वा पूजयेत्तु दिगीश्वरम्‌ । तथा प्रणम्य भूदेवानाशीर्वादेर्नरो व्रजेत्‌ ॥९१॥

अथ त्याज्यकर्माणि । क्रोधक्षौररतिश्रमामिषगुडद्यूताश्रुदुग्धासव : क्षाराश्र्यंगभया‍ऽसितांबरवमीस्तैलं कटूज्झेद्रमें । क्षीरक्षौररती : क्रमात्त्रि ३ शर ५ साप्ता ७ हं परं तद्दिने रोगं ख्यार्तवकं सितान्यतिलकं प्रस्थानकेऽपीति च ॥९२॥

यात्राकाले तु संप्राप्ते मैथुनं नं यो निषेवते । रोगार्त्त : क्षीणकोशश्व स निवर्त्तेत वा नवा ॥९३॥

अवमान्य स्त्रियं विप्रान्‌ बिरुद्धय स्वजनै : सह । ऋतुमत्यां च भर्यायां गच्छन्मृत्युमवाप्नुयात्‌ ॥९४॥

ऋतुस्नानोत्तरं नार्या यात्रा त्वावश्यकी यदि । कृतभोगो नरो यायाद्दानं शांतिं विधाय च ॥९५॥

( अकाल वर्षाके परिहार ) यदि अकाल वर्षा होगयी हो और यात्रा जानेकी जरूरत हो तो सुवर्णका सूर्य और चन्द्रमा बनाके ब्राह्मणको दान करे और नमस्कार करके गमन करे ॥८७॥

( गमन प्रवेशका विचार ) यदि एक ही दिनमें गमन और प्रवेश हो तो संमुख शुक्र , बारशूल , योगिनी आदि नहीं देखने चाहियें ॥८८॥

और एक दिनके गमन प्रवेशमें प्रवेशका ही मुहूर्त्त लेना योग्य है और गमनके मुहूर्त्तकी कोई जरूरत नहीं है ॥८९॥

और प्रवेशसे पहले दिनमें गमन और गमनसे नौवें दिनक वार तिथियोंमें प्रवेश कदापि नहीं करना ॥९०॥

( यात्रादिनकर्म ) अग्निमें तिलोंका होम करके तथा दिशाके पतिको और ब्राह्मणोंको पूजके प्रणाम करे फिर आशीर्वाद लेकर गमन कर ॥९१॥

( त्याज्यकर्म ) क्रोध , क्षौर ( हजामत ), स्त्रीसंग , खेचल , मांस , गुडभक्षण , जूवा , अश्रुपात ( रोना ) दुग्ध , मद्यपान , खारभक्षण , तैलाभ्यंग , भय , कालावस्त्र , वमन , तैल अथवा कडवा पदार्थ भक्षण नहीं करे , परंतु दुग्धपान तीन दिन पहले . और क्षौर ( हजामत ) पांच दिन पहले , स्त्रीसंग सात दिन पहले , और यदि स्त्री रजस्वला हो जावे या रोग हो जावे तो यात्राका दिन अर्थात्‌ मुहूर्त्त ही त्याग द्ना चाहिये और श्वेतचंदनके विना तिलक नहीं करना योग्य है ॥९२॥

यात्राके समय जो पुरुष स्त्रीसंग करता है सो रोगयुक्त और धनरहित होकर पीछा आता है अथवा नहीं भी आता है ॥९३॥

जो कोई पुरुष अपनी स्त्रीका , ब्राह्मणोंका या माता , पिता भाई , बांधबोंका तिरस्कार करके अथवा उनके साथ वैर करके तथा रजस्वला स्त्रीको ऋतुदान दिये विना गमन करता है सो मृत्युको प्राप्त होता है ॥९४॥

यदि रजस्वला स्त्रीने शुद्धिस्नान करलिया हो और जानेकी अत्यंत ही जरूरत हो तो ऋतुदान देकर तथा शांति करके स्त्रीका संग करे तदनंतर गमनके करनेमें दोष नहीं है ॥९५॥

N/A

References : N/A
Last Updated : November 11, 2016

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP