यात्राप्रकरणम्‌ - श्लोक ५७ ते ७४

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथाभिजिन्मुहूर्त्तप्रशंसा । सर्वेषां वर्णानामभिजित्संज्ञको मुहूत्त : स्यात्‌ । अष्टमो दिवसस्यार्द्धे त्वभिजित्संज्ञक : क्षण : ॥५७॥

स ब्रह्मणो वरान्नित्यं सर्वकामफलप्रद : । चक्रमादाय गोविन्द् : सर्वान्‌ दोषान्निकृन्तति ॥५८॥

अभिजिन्न बुधे शस्तं याम्यां तु गमने तथा । अन्यदिग्गमने शस्तं सर्वसिद्धि : प्रजायते ॥५९॥

तिथ्यादिषु निषिद्धेषु चंद्रताराविलोमत : । उषां गोधूलियोगं वा स्वीकृत्य गमन भवेत्‌ ॥६०॥

प्राच्यामुषां प्रतीच्यां च गोधूलिं वर्जयेन्नर : । दक्षिणे चाभिजिच्चैवमुत्तरे च निशां तथा ॥६१॥

( अभिजित्‌ मुहूर्त्त ) संपूर्ण वर्णोंको अभिजित्‌ मुहूर्त्त गमन करनेमें श्रेष्ठ है और अभिजित्‌ मध्याह्नमें आठवां मुहूर्त्त होता है ॥५७॥

यह अभिजित्‌ मुहूर्त्त ब्रह्माके वरदानसे सर्व काम फलका देनेवाला है और भगवान्‌ गोविंद चक लेके संपूर्ण दोषोंको दूर करते हैं ॥५८॥

परंतु यह अभिजित्‌ मुहूर्त्त बुधवारको तथा दक्षिणकी यात्राको वर्जनीय है और अन्य दिशाओंमें गमन करनेसे सर्व सिद्धि देता है ॥५८॥

यदि तिथि , वार , नक्षत्र , आदि निषिद्ध हों और चंद्र , तारा विलोम अर्थात्‌ वामभाग अथवा पृष्ठभागमें हों और जानेकी जरूरत हो तो उषाकालमें अर्थात्‌ सूयोंदयसे पहले या गोधूलिक लग्नमें जाना श्रेष्ठ है ॥६०॥

परंतु पूर्वदिशामें उषाकाल वर्जनीय है और पश्चिमदिशामें गमन करते समय गोधूलिक निपिद्ध है और दक्षिण जानेवालेको अभिजित्‌ और उत्तर यात्रामें अर्द्धरात्रि ज्याज्य हैं ॥६१॥

अथ यात्रायां जन्मराशितश्चन्द्रविचार : । चतुर्थे द्वादशे चन्द्रे वारे भौमशनैश्वरे । प्रस्थितेऽपि न गन्तव्यमत्यन्तंगर्हिते दिने ॥६२॥

जन्मभे जन्ममासे वा यो गच्छेदष्टमे विधौ । आयु : क्षयमवाप्नोति व्याधिं च बधबन्धने ॥६३॥

अथ चन्द्रताराबलप्रशंसा । न विष्कंभो न वा गंडो न व्यतीपातवैधृती । चन्द्रताराबले प्राप्ते दोषा गच्छन्त्यसंमुखा : ॥६४॥

अथ यात्रायां शुक्रास्तादिदोष : । शुक्रे वाऽस्तं गते जीवे चन्द्रे वाऽस्तमुपागते । तयोर्बाल्ये वार्द्धके च सा यात्रा भयरोगदा ॥६५॥

वके नीचगते खेटैर्जिते चास्तं गते भृगौ । यात्रां नैव प्रकुर्वीत लक्ष्म्यायुर्बलहानिदा ॥६६॥

अथ प्रतिशुक्रम्‌ । दिशि यत्रोदेति शुक्रस्तां दिश न व्रजेन्नर : ॥ न व्रजेत्संमुखे ज्ञेऽपि शुभ : पृष्ठोऽपि वामत : ॥६७॥

प्रतिशुक्रकृतं दोषं हंति शुक्रो ग्रहा नहि । भृग्वादिगोत्रजातानां न दोष : प्रतिशुक्रज : ॥६८॥

( चंद्रविचार ) चौथे तथा बारहवें चन्द्रमामें और मंगल शनिवारको तथा निंदित ( खराब ) दिनमें प्रस्थान रखदिया हो तो भी गमन नहीं करे ॥६२॥

जन्मनक्षत्र , जन्ममास , अष्टम चंद्रमें गमन करे तो आयु : क्षय व्याधि ( रोग ) वध , बंधनको प्राप्त होता है ॥६३॥

( चंद्रताराबल - प्रशंसा ) यदि तारा चंद्रमा बलवान्‌ हो तो विष्कंभ , गंड , व्यतीपात , वैधृति आदि बहुतसे दोष नष्ट होजाते हैं ॥६४॥

( शुक्रका अस्तादिदोष विचार ) शुक्रका अस्त हो या जीव ( बृहस्पति ) अस्त हो या चंद्र अस्त हो अथवा शुक्र बृहस्पति बालक या वृद्धि हों तो यात्रा भय , रोगकी देनेवाली होती है ॥६५॥

और शुक्र वक्री हो या नीचका अर्थात्‌ कन्याका हो या अन्य ग्रहों करके जीता हुआ हो या अस्तका हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिये , क्योंकि लक्ष्मी , आयु , बलहानिके देनेवाली होती है ॥६६॥

( सम्मुखशुक्रविचार ) जिस दिशामें शुक्र उदय होता हो या बुध उदय होता हो उस दिशामें गमन नहीं करे यदि पृष्ठभागमें , या वामभागमें , हो तो शुभ है ॥६७॥

संमुख शुक्रका दोष शुक्र ही दूर कर सकता है अन्य सूर्यादि ग्रह नहीं करसकते हैं परंतु भृगुगोत्रमें जन्मनेवालोंशु संमुख शुक्रका दोष नहीं हैं ॥६८॥

अथ प्रतिशुक्रदोषापवाद : । रेवत्यां मेषगे चन्द्रे भवत्यंधो भृगो : सुत : । यात्रादौ नैव दोषाय संमुखे दक्षिणेऽपि वा ॥६९॥

वसिष्ठ : काश्यपेयोऽत्रिर्भरद्वाज : सगौतम : । एतेषां पंचगोत्राणां प्रतिशुक्रो न बिद्यते ॥७०॥

अथ सामान्ययात्रायां प्रतिशुक्रादिदोषाभाव : । नृणां प्रथमयात्रायां प्रतिशुक्रादिदूषणम्‌ । ययार्थिनो नृपस्यापि नान्येषां तु कदाचन ॥७१॥

अर्द्धोदयोपरागादौ पुण्ययोगे सुदुर्लभे । तीर्थार्थी तु सुखं यायात्कालेष्वस्तादिकेष्वपि ॥७२॥

एकग्रामे विवाहे च दुर्भिक्षे राजविप्लवे । द्विजक्षोभे नृपक्षोभे प्रतिशुको न विद्यते ॥७३॥

अथ प्रथमयात्रायामावश्ये प्रतिशुक्रे दानम्‌ । सितमश्वं सितं छत्रं हेम मौक्तिकसंयुतम्‌ । ततो द्विजातये दद्यात्प्रतिशुक्रप्रशांतये ॥७४॥

( संमुख शुक्रके दोषका परिहार ) रेवती नक्षरमें और मेषराशिमें चंद्रमा रहे तबतक शुक्र अंधा रहता है , सो यात्रामें और स्त्रियोंके आनेजानेमें सन्मुख या दक्षिण शुक्रका दोष नहीं है ॥६९॥

और वसिष्ठ , काश्यप , अत्रि , भारद्वाज और गौतम इन पांच गोत्रोंमें जन्मनेवालोंको संमुख शुक्रका दोष नहीं है ॥७०॥

( दूसरी रीतिसे संमुख शुक्रका परिहार ) मनुष्योंको प्रथम ( नवीन ) यात्रामें और जयकी कामनावाले , राजाके गमनमें संमुख शुक्रका दोष है और सदैव जाने आने वालोंको दोष नहीं है ॥७१॥

और अर्द्धोदय योगमें या सूर्य चंद्रमाके ग्रहणमें और अन्य कोई दुर्लभ पुण्य योगमें तीर्थयात्रा जानेवालेको शुक्रके अस्तका या सन्मुखका दोष नहीं ॥७२॥

और एकग्राम या नगरके जाने आनेमें और विवाहमें , दुर्भिक्षमें , राजनाश होनेमें , ब्राह्मणोंके क्रोधमें और राजके भयमें संमुख शुक्रका दोष नहीं है ॥७३॥

( प्रथम यात्राकी जरूरतमें शुक्रदान ) श्वेत घोडा १ , श्वेत छत्र १ , सुवर्ण , मोती सच्चा ब्राह्मणको दान देकर गमन करे तो प्रतिशुक्रका दोष नहीं है ॥७४॥

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Last Updated : November 11, 2016

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