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व्याधका उद्धार

प्रथम पाद - व्याधका उद्धार

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


श्रीसनकजी कहते हैं -

विप्रवर ! भगवान् ‌‍ लक्ष्मीपति विष्णुके माहात्म्यका वर्णन फिर सुनो । भवान‌की अमृतमयी कथा सुननेके लिये किसके मनमें प्रेम और उत्साह नहीं होता ? जो विषयभोगमें अन्धे हो रहे हैं , जिनका चित्त ममतासे व्याकुल है , उन मनुष्योंके सम्पूर्ण पापोंका नाश भगवान्‌के एक ही नामका स्मरण कर देता है । जो भगवान्‌की पूजासे दूर रह्ते , वेदोंका विरोध करते और गौ तथा ब्राह्नणोंसे द्वेष रखते हैं , वे राक्षस कहे गये हैं । जो भगवान् ‌ विष्णुकी आराधनामें लगे रहकर सम्पूर्ण लोकोंपर अनुग्रह रखते तथा धर्मकार्यमें सदा तत्पर रह्ते हैं , वे साक्षात् ‌ भगवान ‌ विष्णुके स्वरूप माने गये हैं । जिनका चित्त भगवान् ‌ विष्णुकी आराधनामें लगा हुगा है , उनके करोड़ों जन्मोंका पाप क्षणभरमें नष्ट हो जाता है ; फिरा उनके मनमें पापका विचार कैसे उठ सकता है ? भगवान्‌ विष्णुकी आराधना विषयान्ध मनुष्योंके भी सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेवाली है । जो मनुष्य किसीके सङ्रसे , स्त्रेहसे , भयसे , लोभसे अथवा अज्ञानसे भी भगवान् ‌‍ विष्णुकी उपासना करता है , वह अक्षय सुखका भागी होता है । जो भगवान् ‌ विष्णुके चरणोद्कका एक कण भी पी लेता है , वह सब तीर्थोंमें स्त्रान कर चुका । भगवान‌को वह अत्यन्त प्रिय होता है । भगवान् ‌ विष्णुका चरणोदक अकालमृत्युका निवारण , समम्त रोगोंका नाश और सम्पूर्ण दुःखोंकी शान्ति करनेवाला माना गया है । इस विषयमें भी ज्ञानी पुरुष यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं , इसे पढ़ने और सुननेवालोंके सम्पूर्ण पापोंका नाश हो जाता है । प्राचीन सत्ययुगकी बात है , गुलिक नामसे प्रसिद्ध एक व्याध था ; वह परायी स्त्री और पराये धनको हड़प लेनेके लिये सदा उद्यत रहता था । वह सदा दूसरोंकी निन्दा किया करता था । जीव - जन्तुओंको भारी सङ्कट्में डालना उसका नित्यका काम था । उसने सैसड़ों गौओं और हजारों ब्राह्यणोंकी हत्या की थी । नारदजी ! व्याधोंका सरदार गुलिक देवसम्पत्तिको हड़्पने तथा दूसरोंका धन लूट लेनेके लिये सदा कमर कसे रहता था । उसने बहुत - से बड़े भारी - भारी पाप किये थे । जीव - जन्तुओंके लिये वह यमराजके समान था । एक दिन वह महापापी व्याध सौवीर नरेशके नगरमें गया , जो सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे भरा - पूरा था । उसके उपवनमें भगवान् ‌ विष्णुका एक बड़ा सुन्दर मन्दिर था , जो सोनेके कलशोंसे छाय गया था । उसे देखकर व्याधको बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने निश्चय किया , यहाँ बहुत - से सुवर्ण - कलश हैं , उन सबको चुराऊँगा । ऐसा विचारकर व्याध चोरीके लिये लोलुप हो उठा और मन्दिरके भीतर गया । वहाँ उसने एक श्रेष्ट ब्राह्नणको देखा , जो परम शान्ता और तत्त्वार्थज्ञानमें निपुण थे । उनका नाम उत्तङ्क तपस्याकी निधि थे । वे एकान्तवासी , दयालु , निःस्पृह तथा भगवान्‌के ध्यानमें परायण थे । मुने ! उस व्याधने उन्हें अपनी चोरीमें विघ्र डालनेवाला समझा । वह देवताका सम्पूर्ण धन हड़प लेनेके लिये आया हुआ अत्यन्त साहसी लुटेरा था और मदसे उन्मत्त हो रहा था । उसने हाथमें तलवार उठा ली और उत्तङ्कजीको मार डालनेका उद्योग आरम्भ किया । मुनि ( - को भूमिपर गिराकर उन )- की छातीको एक पैरसे दबाकर उसने एक हाथसे उनकी जटाएँ पकड़ लों और उन्हें मार डालनेका विचार किया । इस अवस्थामें उस व्याधको देखकर उत्तङ्कजीने कहा ।

उत्तङ्क बोले -

अरे , ओ साधु पुरुष ! तुम व्यर्थ ही मुझे मार रहे हो । मैं तो निरपराध हूँ । महामते ! बताओ तो सही , मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है । लोकमें शक्तिशाली पुरुष अपराधियोंको दण्ड देते हैं , किंतु सज्जन पुरुष पापियोंको भी अकारण नहीं मारते हैं । जिनके चित्तमें शान्ति विराज रही है , वे साधु पुरुष अपनेसे विरोध रखनेवाले मूर्खोंमें भी जो गुण विद्यमान हैं , उन्हींपर दृष्टि रखकर उनका विरोध नहीं करते हैं । जो मनुष्य अनेक बार सताये जानेपर भी क्षमा करता है , उसे उत्तम कहा गया है । वह भगवान् ‌‍ विष्णुको सदा ही अत्यन्त प्रिय है । वह भगवान् ‌‍ विष्णुको सदा ही अत्यन्त प्रिय है । जिनकी बुद्धि सदा दूसरोंके हितमें लगी हुई है , वे साधु पुरुष मृत्युकाल आनेपर भी किसीसे वैर नहीं करते । चन्दनका वृक्ष काटे जानेपर भी कुठारकी धारको सुगन्धित ही करता है । मृग तृणसे , मछलियाँ जलसे तथा सज्जन पुरुष संतोषसे जीवन - निर्वाह करते हैं , परंतु संसारमें क्रमशः तीन प्रकारके व्यक्ति इनके साथ भी अकारण वैर रखनेवाले होते हैं - व्याध , धीवर और चुगलखोर । अहो ! माया बड़ी प्रबल है । वह समस्त जगत‌‍को मोहमें डाल देती है । तभी तो लोग पुत्र - मित्र और स्त्रीके लिये सबको दुःखी करते रह्ते हैं । तुमने दूसरोंका धन लूटकर अपनी स्त्रीका पालना - पोषण किया है , परंतु अन्तकालमें मनुष्य सबको छोड़कर अकेला ही परलोककी यात्रा करता है । मेरी माता , मेरे पिता , मेरी पत्नी , मेरे पुत्न और मेरी यह वस्तु - इस प्रकारकी ममता प्राणियोंको व्यर्थ पीड़ा देती रहती है । पुरुष जबतक धन कमाता हैं , तभीतक भाई - बन्धु उससे सम्बन्ध रखते हैं , परंतु इहलोक और परलोकमें केवल धर्म और अधर्म ही सदा उसके साथ रहते हैं , वहाँ दुसरा कोई साथी नहीं है । धर्म और अधर्मसे कमाये हुए धनके द्वारा जिसने जिन लोगोंका पालन - पोषण किया है , वे ही मरनेपर उसे आगके मुखमें झोंककर स्वयं घी मिलाया हुआ अन्न खाते हैं । पापी मनुष्योंकी कामना रोज बढ़ती है और पुण्यात्मा पुरुषोंकी कामना प्रतिदिन क्षीण होती है । लोग सदा धन आदिके उपार्जनमें व्यर्थ ही व्याकुल रहते हैं । ’ जो होनेवाला है , वह होकर ही रहता है और जो नहीं होनेवाला है , वह कभी नहीं होता ’ जिनकी बुद्धिमें ऐसा निश्चय होता है , उन्हें चिन्ता कभी नहीं सताती । यहा सम्पूर्ण चराचर जगत ‌‍ दैवके अधीन है ; अतः दैव ही जन्म और मृत्युको जानता है , दूसरा नहीं । अहो ! ममतासे व्याकुल चित्तवाले मनुष्योंका दुःख महान् ‌‍ है ; क्योंकि वे बड़े - बड़े पाप करके भी दूसरोंका यत्नपूर्वक पालन करते हैं । मनुष्यके कमाये हुए सम्पूर्ण धनको सदा सब भाई -- बन्धु भोगते हैं , किंतु वह मूर्ख अपने पापोंका फल स्वयं अकेला ही भोगता है।

ऐसा कहते हुए महार्षि उत्तङ्कको गुलिकने छोड़ दिया । फिर वह भयसे व्याकुल हो उठा और हाथा जोड़कर बार - बार कहने लगा -’ मेरा अपराध क्षमा कीजिये । ’ सत्सङ्रके प्रभावसे तथा भगवद्विग्रहका सामीप्य मिल जानेसे व्याधका सारा पाप नष्ट हो गया । उसे अपनी करनीपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह इस प्रकार बोला -’ विप्रवर ! मैंने बहुल बड़े - बड़े पाप किये हैं । वे सब आपके दर्शनसे नष्ट हो गये । अहो ! मेरी बुद्धि सदा पापमें ही लगी रही और मैं शरीरसे भी सदा महान् ‌‍ पापोंका ही आचरण करता रहा । अब मेरा उद्धार कैसे होगा ? भगवन ‌‍ ! मैं किसकी शरणमें जाऊँ ? पूर्वजन्ममें किये हुए पापोंके कारण मेरा व्याधके कुलमें जन्म हुआ।

अब इस जीवनमें भी ढेर - के - ढेर पाप करके मैं किसे गतिको प्राप्त होऊँगा ? अहो ! मेरी आयु शीघ्रतापूर्वक नष्ट हो रही है । मैंने पापोंके निवारणके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं किया , अतः उन पापोंका फल मैं कितने जन्मोंतक भोगूँगा ?’- इस प्रकार स्वयं ही अपनी निन्दा करते हुए उस व्याधने आन्तरिक संतापकी अग्रिसे झुलसकर तुरंत प्राण त्याग दिये । व्याधको गिरा हुआ देख महर्षि उत्तङ्को बड़ी दया आती और उन महाबुद्धिमान ‌‍ मुनिने भगवान् ‌‍ विष्णुके चरणोदकसे उसके शरीरको सींच दिया । भगवान्‌के चरणोदकका स्पर्श पाकर उसके पाप नष्ट हो गये और वह व्याध दिव्य शरीरसे दिव्य विमानपर बैठकर मुनिसे इस प्रकार बोला ।

गुलिकने कहा -

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनिश्रेष्ठ उत्तङ्कजी ! आप मेरे गुरु हैं । आपके ही प्रसादसे मुझे इन महापातकोंसे छुटकारा मिला है । मुनीश्वर ! आपके उपदेशसे मेरा संताप दूर हो गया और सम्पूर्ण पाप भी तुरंत नष्ट हो गये । मुने ! आपने मेरे ऊपर जो भगवान्‌का चरणोदक छिड़का है , उसके प्रभावसे आज मुझे आपने भगवान् ‌ विष्णुके परम पदको पहुँचा दिया । विप्रवर ! आपके द्वारा इस पापमय शरीरसे मेरा उद्धार हो गया ; इसलिये मैं आपके चरणोंमें मस्तक नवाता हूँ । विद्वन् ‌ ! मेरे किये हुए अपराधको आप क्षमा करें । ऐसा कहकर उसने मुनिवर उत्तङ्कपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की और विमानसे उतरकर तीन बार परिक्रमा करके उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर पुनः उस दिव्य विमानपर चढ़्कर गुलिक भगवान् ‌‍ विष्णुके धामको चला गया । यह सब प्रत्यक्ष देखकर तपोनिधि उत्तङ्कजी बड़े विस्मयमें पड़े और उन्होंने सिरपर अञ्जलि रखकर लक्ष्मीपति भगवान् ‌‍ विष्णुका स्तवन किया। उनके द्वारा स्तुति करनेपर भगवान् ‌‍ महाविष्णुने उन्हें उत्तम वर दिया और उस वरसे उत्तङ्कजी भी परम पदको प्राप्त हो नये ,

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Last Updated : May 06, 2013

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