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दुख भोगनेकी अवस्था

प्रथम पाद - दुख भोगनेकी अवस्था

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


श्रीसनकजी कहते हैं --

इस प्रकार कर्मपाशमें बँधे हुए जीव स्वर्ग आदि पुण्यस्थानोंमें पुण्यकर्मोंका फल भोगकर तथा नरक - यातनाओंमें पापोंका अत्यन्त दुःखमय फल भोगकर क्षीण हुए कर्मोंके अवशेष भागसे इस लोकमें आकर स्थावर आदि योनियोंमें जन्म लेते हैं । वृक्ष , गुल्म , लता , वल्ली और पर्वत तथा तृण - ये स्थावरके नामसे विख्यात हैं । स्थावर जीव महामोहसे आच्छन्न होते हैं । स्थावर योनियोंमें उनकी स्थिति इस प्रकार होती है। पहले वे बीजरूपसे पृथ्वीमें बोये जाते हैं । फिर जलसे सींचनेके पश्चात् ‌‍ मूलभावको प्राप्त होते हैं । उस मूलसे अङ्कुरकी उत्पत्ति होती है । अङ्कुरसे पत्ते , तने और पतली डाली आदि प्रकट होते हैं । उन शाखाओंसे कलियाँ और कलियोंसे फूल प्रकट होते हैं । उन फूलोंसे ही वे धान्य वृक्ष फलवान् ‌‍ होते हैं । स्थावर योनिमें जो बड़े - बड़े वृक्ष होते हैं , वे भी दीर्घकालतक काटने , दावानलमें जलने तथा सर्दी - गरमी लगने आदिके महान् ‌‍ दुःखका अनुभव करके मर जाते हैं । तदनन्तर वे जीव कीट आदि योनियोंमें उत्पन्न होकर सदा अतिशय दुख उठाते रहते हैं । अपनेसे बलवान् ‌‍ प्राणियोंद्वारा पीड़ा प्राप्त होनेपर वे उसका निवारण करनेमें असमर्थ होते हैं । शीत और वायु आदिके भारी क्लेश भोगते हैं और नित्य भूखसे पीड़ित हो मल - मूत्र आदिमें विचरते हुए दुःख - पर - दुःख उठाते रह्ते हैं । तदनन्तर इसी क्रमसे पशुयोनिमें आकर अपनेसे बलवान् ‌‍ पशुओंकी बाधासे भयभीत रहते हुए वे जीव अकारण भी भारी उद्वेगसे कष्ट पाते रह्ते हैं । उन्हें हवा , पानी आदिका महान् ‌‍ कष्ट सहन करना पड़ता है । अण्डज

( पक्षी )- की योनिमें भी वे कभी वायु पीकर रहते हैं और कभी मांस तथा अपवित्र वस्तुएँ खाते हैं । ग्रामीण पशुओंकी योनिमें आनेपर भी उन्हें कभी भार ढोने , रस्सी आदिसे बाँधे जाने , डंडोंसे पीटे जाने तथा हल आदि धारण करनेके समस्त दुःख भोगने पड़्ते हैं । इस प्रकार बहुत - सी योनियोंमें क्रमशः भ्रमण करके वे जीव मनुष्य - जन्म पाते हैं । कोई पुण्यविशेषके कारण बिना क्रमके भी शीघ्र मनुष्य - योनि प्राप्त कर लेते हैं । मनुष्य - जन्म पाकर भी नीची जातियोंमें नीच पुरुषोंकी टहल बजानेवाले , दरिद्र , अङ्रहीन तथा अधिक अङ्रवाले इत्यादि होकर वे कष्ट और अपमान उठाते हैं तथा अत्यन्त दुःखसे पूर्ण ज्वर , ताप , शीत , गुल्मरोग , पादरोग , नेत्ररोग , सिरदर्द , गर्भ - वेदना तथा पसलीमें दर्द होने आदिके भारी कष्ट भोगते हैं ।

मनुष्य - जन्ममें भी जब स्त्री और पुरुष मैथुन करते हैं , उस समय वीर्य निकलकर जब जरायु ( गर्भाशय )- में प्रवेश करता है , उसी समय जीव अपने कर्मोंके वशीभूता हो उस वीर्यके साथ गर्भाशयमें प्रविष्ट हो रज - वीर्यके कललमें स्थित होता है । वह वीर्य जीवके प्रवेश करनेके पाँच दिन बाद कललरूपमें परिणत होता है । फिर पंद्रह दिनके बाद वह पलल ( मांसपिण्डकी - सी स्थिति ) भागको प्राप्त हो एक महीनेमें प्रादेशमार बड़ा हो जाता है । तबसे लेकर पूर्ण चेतनाका अभाव होनेपर भी माताके उदरमें दुस्सह ताप और क्लेश होनेसे वह एक स्थानपर स्थिर न रह सकनेके कारण वायुकी प्रेरणासे इधर - उधर भ्रमण करता है । फिर दूसरा महीना पूर्ण होनेपर वह मनुष्य्के - से आकारको पाता है । तीसरे महीनेकी पूर्णता होनेपर उसके हाथ - पैर आदि अवयव प्रकट होते हैं और चार महीने बीत जानेपर उसके सब अवयवोंकी सन्धिका भेद ज्ञात होने लगता है । पाँच महीनेपर अँगुलियोंमें नख प्रकट होते हैं । छः मास पूरे हो जानेपर नखोंकी सन्धि स्पष्ट हो जाती है । उसकी नाभिमें जो नाल होती है , उसीके द्वारा अन्नका रस पाकर वह पुष्ट होता है । उसके सारे अङ्र अपवित्र मल - मूत्र आदिसे भीगे रहते हैं । जरायुमें उसका शरीर बँधा होता है और वह माताकेरक्त , हड्डी , कीड़े , वसा , मज्जा , स्त्रायु और केश आदिसे दूशित तथा घृणित शरीरमें निवास करता है । माताके खाये हुए कड़वे , खट्टे , नमकीन तथा अधिक गरम भोजनसे वह अत्यन्त दग्ध होता रहता है । इस दुरवस्थामें अपने - आपको देखकर वह देहधारी जीव पूर्वजन्मोंकी स्मृतिके प्रभावसे पहलेके अनुभव किये हुए नरकके दुःखोंको भी स्मरण करता और आन्तरिक दुःखसे अधिकाधिक जलने लगता है । ’ अहो ! मैं बड़ा पापी हूँ ! कामसे अन्धा होनेके कारण परायी स्त्रियोंको हरकर उनके साथ सम्भोग करके मैंने बड़े - बड़े पाप किये हैं । उन पापोंसे अकेला मैं ही ऐसे - ऐसे नरकोंका कष्ट भोगता रहा । फिर स्थावर आदि योनियोंमें महान्‌‍दुःख भोगकर अब मानवयोनिमें आया हूँ । आन्तरिक दुःख तथा बाह्य संतापसे दग्ध हो रहा हूँ । अहो ! देहधारियोंको कितना दुःख उठाना पड़ता है । शरीर पापसे ही उत्पन्न होता है । इसलिये पाप नहीं करना चाहिये । मैंने कुटुम्ब , मित्र और स्त्रीके लिये दूसरोंका धन चुराया है । उसी पापसे आज गर्भकी झिल्लीमें बँधा हुआ जल रहा हूँ । पूर्वजन्ममें दूसरोंका धन देखकर ईर्ष्यावश जला करता था ; इसीलिये मैं पापी जीव इस समय भी गर्भकी आगसे निरन्तर दग्ध हो रहा हूँ । मन , वाणी और शरीरस मैंने दूसरोंको बहुत पीड़ा दी थी । उस पापसे आज मैं अकेला ही अत्यन्त दुःखी होकर जल रहा हूँ । ’ इस प्रकार वह गर्भस्थ जीव नाना प्रकारसे विलाप करके स्वयं ही अपने - आपको इस प्रकार आश्वासन देता है --’ अब मैं जन्म लेनेके बाद सत्सङ्र तथा भगवान् ‌‍ विष्णुकी कथाका श्रवण करके विशुद्ध - चित्त हो सत्कर्मोंका अनुष्ठान करूँगा और सम्पूर्ण जगत्‌‍के अन्तरात्मा तथा अपनी शक्तिके प्रभावसे अखिल विश्वकी सृष्टि करनेवाले सत्य - ज्ञानानन्दस्वरूप लक्ष्मीपति भगवान् ‌‍ नारायणके उन युगल - चरणारविन्दोंका भक्तिपूर्वक पूजन करूँगा । जिनकी समस्त देवता , असुर , यक्ष , गन्धर्व , राक्षस , नाग , मुनि तथा किन्नरसमुदाय आराधना करते रह्ते हैं । भगवान्‌‍के वे चरण दुस्सह संसार - बन्धनके मूलोच्छेदके हेतु हैं । वेदोंके रहस्यभूत उपनिषदोंद्वारा उनकी महिमाका स्पष्ट ज्ञान होता है । वे ही सम्पूर्ण जगत्‌के आश्रय हैं । मैं उन्हीं भगवच्चरणारविन्दोंको अपने हृदयमें रखकर अत्यन्त दुःखसे भरे हुए संसारको लाँघ जाऊँगा । ’ इस प्रकार वह मनमें भावना करता है । नारदजी ! जब माताके प्रसवका समय आता है , उस समय वह गर्भस्थ जीव वायुसे अत्यन्त पीड़ित हो माताको भी दुःख देता हुआ कर्मपाशसे बँधकर जबरदस्ती योनिमार्गसे निकलता है । निकलते समय सम्पूर्ण नरक - यातनाओंका भोग उसे एक ही साथ भोगना पड़ता है । बाहरकी वायुका स्पर्श होते ही उसकी स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है । फिर वह जीव बाल्यावस्थाको प्राप्त होता है । उसमें भी अपने ही मल - मूत्रमें उसका शरीर लिपटा रहता है । आध्यात्मिक आदि त्रिविध दुःखोंसे पीड़ित होकर भी वह कुछ नहीं बता सकता । उसके रोनेपर लोग यह समझते हैं कि यह भूख - प्याससे कष्ट पा रहा है , इसे दूध आदि देना चाहिये और इसी मान्यताके अनुसार वे लोग प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार वह अनेक प्रकारके शारीरिक कष्ट - भोगका अनुभव करता है । मच्छरों और खटमलोंके काट लेनेपर वह उन्हें हटानेमें असमर्थ होता है । शैशवसे बाल्यावस्थामें पहुँचकर वहाँ माता - पिता और गुरुकी डाँट सुनता और चपत खाता है । वह बहुत - से निरर्थक कार्योंमें लगा रहता है । उन कार्योंके सफल न होनेपर वह मानसिक कष्ट पाता है । इस प्रकार बाल्य - जीवनमें अनेक प्रकारके कष्टोंका अनुभव करता है । तत्पश्चात् ‌‍ तरुणावस्थामें आनेपर जीव धनोपार्जन करते हैं कमाये हुए धनकी रक्षा करनेमें लगे रह्ते हैं । उस धनके नष्ट या खर्च हो जानेपर अत्यन्त दुःखी होते हैं । मायासे मोहित रहते हैं । उनका अन्तःकरण काम - क्रोधादिसे दूषित हो जाता है । ये सदा दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखा करते हैं । पराये धन और परायी स्त्रीको हड़प लोनेके प्रयत्नमें लगे रहते हैं । पुत्र , मित्र और स्त्री आदिके भरण - पोषणके लिये क्या उपाय किया जाय ? अब इस बढ़े हुए कुटुम्बका कैसे निर्वाह होगा ? मेरे पास मूल - धन नहीं है ( अतः व्यापार नहीं हो सकता ), इधर वर्षा भी नहीं हो रही है ( अतः खेतीसे क्या आशा की जाय ), इधर मैं भी रोगी हो चला और निर्धन ही रह गया । मेरे विचार न करनेसे खेती - बारी नष्ट हो गयी । बच्चे रोज रोया करते हैं । मेरा घर टूट - फूट गया । कोई जीविका भी नहीं मिलती । राजाकी ओरसे भी अत्यन्त दुःसह दुःख प्राप्त हो रहा है । शत्रु रोज मेरा पीछा करते हैं । मैं इन्हें कैसे जीतूँगा । इस प्रकार चिन्तासे व्याकुल तथा अपने दुःखको दूर करनेमें असमर्थ हो , वे कहते है -- विधाताको धिक्कार है । उसने मुझ भाग्यहीनको पैदा ही क्यों किया ? इसी तरह जीव जब बृद्धावस्थाको प्राप्त होता है तो उसका बल घटने लगता है । बाल सफेद हो जाते हैं और जरावस्थाके कारण सारे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं । अनेक प्रकारके रोग उसे पीड़ा देने लगते हैं । उसका एक - एक अङ्र काँपता रहता है । दमा और खाँसी आदिसे वह पीड़ित होता है । कीचड़से मलिन हुई आँखें चञ्चल एवं कातर हो उठती हैं । कफसे कण्ठ भर जाता है । पुत्र और पत्नी आदि भी उसे ताड़ना करते हैं । मैं कब मर जाऊँगा - इस चिन्तासे वह व्याकुल हो उठता है और सोचने लगता है कि मेरे मर जानेके बाद यदि दूसरोंने मेरा धन हड़प लिया तो मेरे पुत्र आदिका जीवन - निर्वाह कैसे होगा ? इस प्रकार ममता और दुःखमें डूबा हुआ बह लंबी साँस खींचता है और अपनी आयुमें किये हुए कर्मोंको बार - बार स्मरण करता है तथा क्षण - क्षणमें भूल जाता है । फिर जब मृत्युकाला निकट आता है तो वह रोगसे पीड़ित हो आन्तरिक संतापसे व्याकुल हो जाता है । मेरे कमाये हुए धन आदि किसके अधिकारमें होंगे - इस चिन्तामें पड़कर उसकी आँखोंमें आँसू भर आते हैं । कण्ठ घुरघुराने लगता है और इस दशामें शरीरसे प्राण निकल जाते हैं । फिर यमदूतोंकी डाँट - फटकार सुनता हुआ वह जीव पाशमें बँधकर पूर्ववत् ‌‍ नरक आदिके कष्ट भोगता है । जिस प्रकार सुवर्ण आदि धातु तबतक आगमें तपाये जाते हैं . जबतक कि उनकी मैल नहीं जल जाती । उसी प्रकार सब जीवधारी कर्मोंके क्षय होनेतक अत्यन्त कष्ट भोगते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! इसलिये संसाररूपी दावानलके तापसे संतप्त मनुष्य परम ज्ञानका अभ्यास करे । ज्ञानसे वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ज्ञानशून्य मनुष्य पशु कहे गये हैं । अतः संसार - बन्धनसे मुक्त होनेके लिये परम ज्ञानका अभ्यास करे । सब कर्मोंको सिद्ध करनेवाले मानव - जन्मको पाकर भी जो भगवान् ‌‍ विष्णुकी सेवा नहीं करता , उससे बढ़कर मूर्ख कौन हो सकता है ? मुनिश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंके दाता जगदीश्वर भगवान् ‌‍ विष्णुके रहते हुए भी मनुष्य ज्ञानरहित होकर नरकोंमें पकाये जाते हैं -- यह कितने आश्चर्यकी बात है । जिससे मल - मूत्रका स्त्रोत बहता रहता है , ऐसे इस क्षणभङ्रर शरीरमें अज्ञानी पुरुष महान्‌‍ मोहसे आच्छन्न होनेके कारण नित्यताकी भावना करते हैं । जो मनुष्य मांस तथा रक्त आदिसे भरे हुए उस घृणित शरीरको पाकर संसार - बन्धनका नाश करनेवाले भगवान् ‌‍ विष्णुका भजन नहीं करता , वह अत्यन्त पातकी है । ब्रह्मन् ‌‍ ! मूर्खता या अज्ञान अत्यन्त कष्टकारक है , महान् ‌ दुःख देनेवाला है , परंतु भगवान्‌के ध्यानमें लगा हुआ चाण्डाल भी ज्ञान प्राप्त करके महान् ‌‍ सुखी हो जाता है । मनुष्यका जन्म दुर्लभ है । देवता भी उसके लिये प्रार्थना करते हैं । अतः उसे पाकर विद्वान् ‌‍ पुरुष परलोक सुधारनेका यत्न करे । जो अध्यात्मज्ञानसे सम्पन्न तथा भगवान्‌की आराधनामें तत्पर रहनेवाले हैं , वे पुनरावृत्तिरहित परम धामको पा लेते हैं । जिनसे यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है , जिनसे चेतना पाता है और जिनमें ही इसका लय होता है , वे भगवान् ‌‍ विष्णु ही संसार - बन्धनसे छुड़ानेवाले हैं । जो अनन्त परमेश्वर निर्गुण होते हुए भी सगुण - से प्रतीत होते हैं , उन देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा - अर्चा करके मनुष्य संसार - बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

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Last Updated : May 05, 2013

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