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श्राद्धकी विधि

प्रथम पाद - श्राद्धकी विधि

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


श्रीसनकजी कहते हैं --

मुनिश्रेष्ठ ! मैं श्राद्धकी उत्तम विधिका वर्णन करता हूँ , सुनो । उसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । पिताकी क्षयाह तिथिके पहले दिन स्त्रान करके एक समय भोजन करे । जमीनपर सोये , ब्रह्यचर्यका पालन करे तथा रातमें ब्राह्यणोंको निमन्त्रण दे । श्राद्धकर्ता पुरुष दाँतुन करना , पान खाना , तेल और उबटन लगाना , मैथुन , औषध - सेवन तथा दूसरोंके अन्नका भोजन अवश्य त्याग दे । रास्ता चलना , दूसरे गाँव जाना , कलह , क्रोध और मैथुन करना , बोझ ढोना तथा दिनमें सोना - ये सब कार्य श्राद्धकर्ता और श्राद्धभोक्ताको छोड़ देने चाहिये । यदि श्राद्धमें निमन्त्रित पुरुष मैथुन करता है तो वह ब्रह्यहत्याको प्राप्त होता और नरकमें जाता है । श्राद्धमें वेदके ज्ञाता और वैष्णव ब्राह्यणको नियुक्त करना चाहिये । जो अपने वर्ण और आश्रमधर्मके पालनमें तत्पर , परम शान्त , उत्तम कुलमें उत्पन्न , राग - द्वेषसे रहित , पुराणोंके अर्थज्ञानमें निपुण , सब प्राणियोंपर दया करनेवाला , देवपूजापरायण , स्मृतियोंका तत्त्व जाननेमें कुशल , वेदान्त - तत्त्वका ज्ञाता , सम्पूर्ण लोकोंके हितमें संलग्र , कृतज्ञ , उत्तम गुणयुक्त , गुरुजनोंकी सेवामें तप्तर तथा उत्तम शास्त्रवचनोंद्वारा धर्मका उपदेश देनेवाला हो , उसे श्राद्धमें निमन्त्रित करे ।

किसी अङ्रसे हीन अथवा अधिक अङ्रवाला , कदर्य , रोगी , कोढ़ी , बुरे नखोंवाला , अपने व्रतको खण्डित करनेवाला , ज्योतिषी , मुर्दा जलानेवाला , कुत्सित वचन बोलनेवाला , परिवेत्ता ( बड़े भाईके अविवाहित रह्ते हुए स्वयं विवाह करनेवाला ), देवल , दुष्ट , निन्दक , असहनशील , धूर्त , गाँवभरका पुरोहित ‌‍ असत् ‌‍- शास्त्रोंमें अनुराग रखनेवाला , वृषलीपति , कुण्डगोलक , यज्ञके अनधिकारियोंसे यज्ञ करानेवाला , पाखण्डपूर्ण आचरणवाला , अकारण सिर मुँड़ानेवाला , परायी स्त्री और पराये धनका लोभ रखनेवाला , भगवान् ‌‍ विष्णुकी भक्तिसे रहित , भगवान् ‌‍ शिवकी भक्तिसे विमुख , वेद बेचनेवाला , व्रतका विक्रय करनेवाला , स्मृतियों तथा मन्त्रोंको बेचनेवाला , गवैया , मनुष्योंकी झूठी प्रशंसाके लिये कविता करनेवाला , वैद्यक - शास्त्रसे जीविका चलानेवाला , वेदनिन्दक , गाँक और वनमें आग लगानेवाला , अत्यन्त कामी , रस बेचनेवाला , झूठी युक्ति देनेमें तत्पर रहनेवाला - ये सब ब्राह्यण यत्नपूर्वक श्राद्धमें त्याग देने योग्य हैं । श्राद्धसे एक दिन पहले या श्राद्धके दिन बाह्यणोंकी निमन्त्रित करे । श्राद्धकर्ता पुरुष हाथमें कुश लेकर इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए विद्वान् ‌‍ ब्राह्यणको निमन्त्रण दे और इस प्रकार कहे ’ हे साधुशिरोमणे ! श्राद्धमें अपना समय देकर मुझपर कृपा प्रसाद करें । ’ तदनन्तर प्रातःकाल उठकर सबेरेका नित्यकर्म समाप्त करके विद्वान् ‌‍ पुरुष कुतपकालमें श्राद्ध प्रारम्भ करे । दिनके आठवें मुहूर्तमें जब सूर्यका तेज कुछ मन्द हो जाता है , उस समयको ’ कुतपकाल ’ कहते हैं । उसमें पितरोंकी तृप्तिके लिये दिया हुआ दान अक्षय होता है । ब्रह्याजीने पितरोंको अपराह्लकाल ही दिया है । मुनिश्रेष्ठ ! विभिन्न द्रव्योंके साथ जो कव्य असमयमें पितरोंके लिये दिया जाता है , उसे राक्षसका भाग समझना चाहिये । वह पितरोंके पास नहीं पहुँच पाता है । सायंकालमें दिया हुआ कव्य राक्षसका भाग हो जाता है । उसे देनेवाला नरकमें पड़ता है और उसको भोजन करनेवाला भी नरकगामी होता है । ब्रह्यन् ‌‍ ! यदि निधनतिथिका मान पहले दिन एक दण्ड ही हो और दूसरे दिन वह अपराह्लतक व्याप्त हो तो विद्वान् ‌‍ पुरुषको दूसरे ही दिन श्राद्ध करना चाहिये । किंतु मृत्युतिथि यदि दोनों दिन अपराह्लकालमें व्याप्त हो तो क्षयपक्षमें पूर्वतिथिको श्राद्धमें ग्रहण करना चाहिये और वृद्धिपक्षमें परतिथिको । यदि पहले दिन क्षयाहतिथि चार घड़ी हो और दूदरे दिन वह सायंकालतक व्याप्त हो तो श्राद्धके लिये दूसरे दिनवाली तिथि ही उत्तम मानी गयी है । द्विजोत्तम ! निमन्त्रित ब्राह्यणोंके एकत्र होनेपर प्रायश्चित्तसे शुद्ध ह्रदयवाला श्राद्धकर्ता पुरुष उनसे श्राद्धके लिये आज्ञा ले । ब्राह्यणोंसे श्राद्धके लिये आज्ञा मिल जानेपर श्राद्धकर्ता पुरुष फिर उनमेंसे दोको विश्वेदेव श्राद्धके लिये और तीनको विधिपूर्वक पितृश्राद्धके लिये पुनःनिमन्त्रित करे । अथवा देवश्राद्ध तथा पितृश्राद्धके लिये एक - एक ब्राह्यणको ही निमन्त्रित करे । श्राद्धके लिये आज्ञा लेकर एक - एक मण्डल बनावे । ब्राह्यणके लिये चौकोर , क्षत्रियके लिये त्रिकोण तथा वैश्यके लिये गोल मण्डल बनाना आवश्यक समझना चाहिये और शुद्रको मण्डल न बनाकर केवल भूमिको सींच देना चाहिये । योग्य़ ब्राह्यणोंके अभावमें भाईको , पुत्रको अथवा अपने - आपको ही श्राद्धमें नियुक्त करे । परंतु वेदशास्त्रके ज्ञानसे रहित ब्राह्यणको श्राद्धमें नियुक्त न करे । ब्राह्यणोंके पैर धोकर उन्हें आचमन करावे और नियत आसनपर बैठाकर भगवान् ‌‍ विष्णुका स्मरण करते हुए उनकी विधिपूर्वक पूजा करे । ब्राह्यणोंके बीचमें तथा श्राद्धमण्डपके द्वारदेशमें श्राद्धकर्ता पुरुष ’ अपहता असुरा रक्षाँसि वेदिषदः। ’

इस ऋचाका उच्चारण करते हुए तिल बिखेरे । जौ और कुशोंद्वारा विश्वेदेवोंको आसन दे । हाथमें जौ और कुश लेकर कहे --’ विश्वेषां देवनाम् ‌‍ इदम् ‌‍ आसनम् ‌‍ ’ ऐसा कहकर विश्वेदेवोंके बैठनेके लिये आसनरूपसे उस कुशाको रख दे और प्रार्थना करे - हे विश्वेदेवो ! आपलोग इस देवश्राद्धमें अपना क्षण ( समय ) दें और प्रतीक्षा करें । अक्षय्योदक और आसन समर्पणके वाक्यमें विश्वेदेवों और पितरोंके लिये षष्ठी विभक्तिका प्रयोग करना चाहिये । आवाहन - वाक्यमें द्वितीया विभक्ति बतायी गयी है । अन्न समर्पणके वाक्यमें चतुर्थी विभक्तिका प्रयोग होना चाहिये । शेष कार्य सम्बोधनपूर्वक करना चाहिये । कुशकी पवित्रीसे युक्त दो पात्र लेकर उनमें ’ शं नो देवी ’ इत्यादि ऋचाका उच्चारण करके जल डाले । फिर ’ यवोऽसि ’ इत्यादि मन्त्र बोलकर उसमें जव डाले । उसके बाद चुपचाप बिना मन्त्रके ही गन्ध और पुष्प छोड़ दे । इस प्रकार अर्घ्यपात्र तैयार हो जानेपर ’ विश्वेदेवाः स ’ इत्यादि मन्त्रसे विश्वेदेवोंका आवाहन करे । तदनन्तर ’ या दिव्या आपः ’ इत्यादि मन्त्रसे अर्घ्यको अभिमन्त्रित करके एकाग्रचित्त हो पितृ और मातामह - सम्बन्धी विश्वेदेवोंको संकल्पपूर्वक क्रमशः अर्घ्य दे । उसके बाद गन्ध , पत्र , पुष्प , यज्ञोपवीत , धूप , दीप आदिके द्वारा उन देवताओंका पूजन करे । तत्पश्चात् ‌‍ विश्वेदेवोंसे आज्ञा लेकर पितृगणोंका पूजन करे । उनके लिये सदा तिलयुक्त कुशोंवाला आसन देना चाहिये । उन्हें अर्घ्य देनेके लिये द्विज पूर्ववत् ‌‍ तीन पात्र रखे । ’ तिलोऽसि सोमदैवत्यो ’ इत्यादि मन्त्रसे तिल डाले । फिर ’ उशन्तस्त्वा ’ इत्यादि मन्त्रद्वारा पितरोंका आवाहन करके ब्राह्यण एकाग्रचित्त हो ’ या दिव्या आपः ’ इत्यादि मन्त्रसे अर्घ्यको अभिमन्त्रित करके पूर्ववत् ‌‍ संकल्पपूर्वक पितरोंको समर्पित करे ( अर्घ्यपात्रको उलटकर पितरोंके वामभागमें रखना चाहिये ) । साधुशिरोमणे ! तदनन्तर गन्ध , पत्र , पुष्प , धूप , दीप , वस्त्र और आभूषणसे अपनी शक्तिके अनुसार उन सबकी पूजा करे । तत्पश्चात ‌‍ विद्वान् ‌‍ पुरुष घृतसहित अन्नका ग्रास ले ’ अग्नौ करिष्ये ’ ( अग्रिमें होम करूँगा ) ऐसा कहकर उन ब्राह्यणोंसे इसके लिये आज्ञा ले । मुने ! ’ करवै ’-- अथवा ’ करवाणि ’ ( करूँ ? ) ऐसा कहकर श्राद्धकर्ताके पूछनेपर ब्राह्यण लोग ’ कुरुष्व ’ ’ क्रियताम् ‌‍ ’ अथवा ’ कुरु ’ ( करो ) ऐसा कहें । इसके बाद अपनी शाखाके गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार उपासनाग्रिकी स्थापना करके उसमें पूर्वोक्त अन्नके ग्रासकी दो आहुतियाँ डाले । उस समय ’ सोमाय पितृमते स्वधा नमः ’ ऐसा उच्चारण करे । फिर ’ अग्रये कव्यवाहनाय स्वधा नमः ’ ऐसा उचारण करे । विद्वान् ‌‍ पुरुष अन्तमें स्वधाकी जगह स्वाहा लगाकर भी पितृयज्ञकी भाँति आहुति दे सकते हैं । इन्हीं दो आहुतियोंसे पितरोंको अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है । अग्रिके अभवामें अर्थात् ‌‍ यजमानके अग्रिहोत्री न होनेपर ब्राह्यणके हाथमें दानरूप होम करनेका विधान है । ब्रह्यन् ‌‍ ! जैसा आचार हो , उसके अनुसार ब्राह्यणके हाथ या अग्रिमें उक्त होम करना चाहिये । पार्वण उपस्थित होनेपर अग्रिको दूर नहीं करना चाहिये । विप्रवर ! यदि पार्वण उपस्थित होनेपर अपनी उपास्य अग्रि दूर हो तो पहले नूतन अग्रिकी स्थापना करके उसमें होम आदि आवश्यक कार्य करनेके पश्चात् ‌‍ विद्वान् ‌‍ पुरुष उस अग्रिका विसर्जन कर दे । यदि क्षयाह ( निधनदिन ) तिथि प्राप्त हो और उपासनाग्रि दूर हो तो अपने अग्रिहोत्री द्विज भाइयोंसे विधिपूर्वक श्राद्धकर्म सम्पन्न करावे । द्विजश्रेष्ठ ! श्राद्धकर्ता प्राचीनावीती होकर ( जनेऊको दाहिने कंधेपर करके ) अग्रिमें होम करे और होमावशिष्ट अन्नको ब्राह्यणके पात्रोंमें भगवत्स्मरणपूर्वक डाले । फिर स्वादिष्ट भक्ष्य , भोज्य , लेह्य आदिके द्वारा ब्राह्यणोंका पूजन करे । तदनन्तर एकाग्रचित्त हो विश्वेदेव और पितर - दोनोंके लिये अन्न परोसे । उस समय इस प्रकार प्रार्थना करे --

आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः ॥

ये यत्र विहिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ।

( ना० पूर्व० २८।५७ - ५८ )

’ महान् ‌‍ बलवान् ‌‍ महाभाग विश्वेदेवगण यहाँ पधारें और जो जिस श्राद्धमें विहित हों वे उसके लिये सावधान रहें । ’

इस प्रकार विश्वेदेवोंसे प्रार्थना करे । ’ ये देवासः ’ इत्यादि मन्त्रसे भी उनकी अभ्यर्थना करनी चाहिये । देवपक्षके ब्राह्यणोंसे भी ऐसी ही प्रार्थना करे । उसके बाद ’ ये चेह पितरो ’ इत्यादि मन्त्रसे पितरोंकी अभ्यर्थना करके निम्राङ्रित मन्त्रसे उनको नमस्कार करे --

अमूर्तानां च मूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ‌‍ ॥

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां योगचक्षुषाम् ‌‍ ।

( ना० पूर्व० २८।५९ - ६० )

’ जिनका तेज सब ओर प्रकाशित हो रहा है , जो ध्यानपरायण तथा योगदृष्टिसे सम्पन्न हैं , उन मूर्त पितरोंको तथा अमूर्त पितरोंको भी मैं सदा नमस्कार करता हूँ । ’ इस प्रकार पितरोंको प्रणाम करके श्राद्धकर्ता पुरुष भगवान् ‌‍ नारायणका चिन्तन करते हुए दिये हुए हविष्य तथा श्राद्धकर्मको भगवान् ‌‍ विष्णुकी सेवामें समर्पित कर दे । इसके बाद वे सब ब्राह्यण मौन होकर भोजन प्रारम्भ करें । यदि कोई ब्राह्यण उस समय हँसता या बात करता है तो वह हविष्य राक्षसका भाग हो जाता है । पाक आदिकी प्रशंसा ( या निद्ना ) न करे । सर्वथा मौन रहे । भोजनपात्रको हाथसे स्पर्श किये हुए ही भोजन करे । यदि कोई श्राद्धमें नियुक्त हुआ ब्राह्यण पात्रको सर्वथा छोड़ देता है तो उसे श्राद्धहन्ता जानना चाहिये । वह नरकमें पड़ता है । भोजन करनेवाले ब्राह्यणोंमेंसे कुछ लोग यदि एक - दूसरेका स्पर्श कर लें और अन्नका त्याग न करके उसे खा लें तो उस स्पर्शजनित दोषका निवारण करनेके लिये उन्हें आठ सौ गायत्री - मन्त्रका जप करना चाहिये । जब ब्राह्यणलोग भोजन करते हों उस समय श्राद्धकर्ता पुरुष श्रद्धापूर्वक कभी पराजित न होनेवाले अविनाशी भगवान् ‌‍ नारायणका स्मरण करे । रक्षोघ्नमन्त्र , वैष्णवसूक्त तथा विशेषतः पितृसम्बन्धी मन्त्रोंका पाठ करे । इसके सिवा पुरुषसूक्त , त्रिणाचिकेत , त्रिमधु , त्रिसुपर्ण , पवमानसूक तथा यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंका जप करे । अन्यान्य पुण्यदायक प्रसंगोंका चिन्तन करे । इतिहास , पुराण तथा धर्मशास्त्रोंका भी पाठ करे । नारदजी ! जबतक ब्राह्मणलोग भोजन करें , तबतक इन सबका जप या पाठ करता चाहिये । जब बे भोजन कर लें , उस समय परोसनेवाले पात्रमें बचा हुआ उच्छिष्टके समीप भूमिपर बिखेर दे । यह विकिरान्न कहलाता

उस समय ’ मधुवाता ऋतायते ’ इत्यादि सूक्तका जप करे । नारदजी ! इसके बाद श्राद्धकर्ता पुरुष स्वयं दोनों पैर धोकर भलीभाँति आचमन कर ले । फिर ब्राह्यणोंके आचमन कर लेनेपर पिण्डदान करे । स्वस्तिवाचन कराकर अक्षय्येदक दे ( तर्पण करें ) । उसे देकर एकाग्रचित्त होकर ब्राह्यणोंका अभिवादन करे । उलटे हुए अर्घ्यपात्रोंको सीधा करके ब्राह्यणोंको दक्षिणा दे और उनसे स्वस्तिवाचनपूर्वक आशीर्वाद ले । जो द्विज अर्घ्यपात्रको हिलाये या सीधा किये बिना ( दक्षिणा लेते और ) स्वस्तिवाचन करते हैं , उनके पितर एक वर्षतक उच्छिष्ट भोजन करते हैं । स्मृति - कथित ’ गोत्रं नो वर्धताम् ‌‍ ’ ’ दातारो नोऽभिवर्धन्ताम् ‌‍ ’ इत्यादि वचन कहकर ब्राह्यणोंसे आशीर्वाद ग्रहण करे । तदनन्तर उन्हें प्रणाम करे और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा , गन्ध एवं ताम्बूल अर्पित करे । उलटे हुए अर्घ्यपात्रको उत्तान करनेके बाद हाथमें लेकर ’ स्वधा ’ का उच्चारण करे । फिर ’ वाजे वाजे ’ इत्यादि ऋचाको पढ़्कर पितरोंका , देवताओंका विसर्जन करे ।

श्राद्ध - भोजन करनेवाला ब्राह्यण तथा श्राद्धकर्ता यजमान दोनों उस रातमें मैथुनका त्याग करें । उस दिन स्वाध्याय तथा रास्ता चलनेका कार्य यत्नपूर्वक छोड़ दें । जो कहीं जानेके लिये यात्रा कर रहा हो , जिसे कोई रोग हो तथा जो धनहीन हो , वह पुरुष पाक न बनाकर कच्चे अन्नसे श्राद्ध करे और जिसकी पत्नी रजस्वला होनेसे स्पर्श करने योग्य़ न हो , वह दक्षिणारूपसे सुवर्ण देकर श्राद्धकार्य सम्पन्न करे । यदि धनका अभाव हो और ब्राह्यण भी न मिलें तो बुद्धिमान् ‌‍ पुरुष केवल अन्नका पाक बनाकर पितृसूक्तके मन्त्रसे उसका होम करे । ब्रह्यन् ‌‍ ! यदि उसके पास अन्नमय हविष्यका अभाव हो तो यथाशक्ति घास ले आकर पितरोंकी तृप्तिके उद्देश्यसे गौओंको अर्पण करे । अथवा स्त्रान करके विधिपूर्वक तिल और जलसे पितरोंका तर्पण करे । अथवा विद्वान् ‌‍ पुरुष निर्जन वनमें चला जाय और मैं महापापी दरिद्र हूँ - यह कहते हुए उच्चस्वरसे रुदने करे । मुनीश्वर ! जो मनुष्य श्रद्धपूर्वक श्राद्ध करते हैं , वे सम्पत्तिशाली होते हैं और उनकी संतानपरम्पराका नाश नहीं होता । जो श्राद्धमें पितरोंका पूजन करते हैं , उनके द्वारा साक्षात् ‌‍ भगवान् ‌‍ विष्णु पूजित होते हैं और जगदीश्वर भगवान् ‌‍ विष्णुके पूजित होनेपर सब देवता संतुष्ट हो जाते हैं । देवता , पितर , गन्धर्व , अप्सरा , यक्ष , सिद्ध और मनुष्यके रूपमें सनातन भगवान् ‌‍ विष्णु ही विराजमान हैं । उन्हींसे यह स्थावर - जंगमरूप जगत् ‌‍ उत्पन्न हुआ है । अतः दाता और भोक्ता सब भगवान् ‌‍ विषु ही हैं । भगवान् ‌‍ विष्णु सम्पूर्ण जनत्‌के आधार सर्वभूतस्वरूप तथा अविनाशी हैं । उनके स्वभावकी कहीं भी तुलना नहीं है , वे ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं । एकमात्र भगवान् ‌‍ जनार्दन ही परब्रहा परमात्मा कहलाते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार तुमसे श्राद्धकी उत्तम विधिका वर्णन किया गया । इस विधिसे श्राद्ध करनेवालोंका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है । जो श्रेष्ठ द्विज श्राद्धकालमें भक्तिपूर्वक इस प्रसंगका पाठ करता है , उसके पितर संतुष्ट होते हैं और संतति बढ़ती है ।

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Last Updated : May 05, 2013

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