इक्कीसवाँ पटल - तुलाचक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


तुलाचक्रनिरुपण --- तृतीयदल का माहात्म्य योगियों के ज्ञान के उदय का कारण हैं , अतः जो आत्म चिन्तन करता है , उसे भावसिद्धि हो जाती है । इस तृतीयदल के मध्य में तुलाचक्र है जिसके चारों कोनों पर बत्तीस ग्रन्थि रुप गृह हैं । इन्हीं ग्रन्थियों का विभेदन करना चाहिए ॥८१ - ८२॥

तुलाचक्र की नाडियों द्वारा इन ग्रन्थियों का भेदन किया जाता है अतः मेरुदण्ड के भीतर गलादेश पर्यन्त भाग में इनका ध्यान करना चाहिए । इन बत्तीस ग्रन्थियों वाले गृह के मध्य में अत्यन्त कल्यणकारी तीन वृत्त हैं । उनके मध्य में तथा त्रिकोण में वशी साधक मूर्धान्य ’ खं ’ बीज का ध्यान करे ॥८३ - ८४।

इन बत्तीस गृहों में दक्षिणावर्त वर्ण समूहों के फलकों को स्थापित करना चाहिए । ऐसा कर साधक वाक्पति हो जाता है । प्रथम गृह में अकार , द्वितीय में अनुस्वार , तृतीय में विसर्ग स्थापित करने वाला साधक वशी हो जाता है ॥८५ - ८६॥

इसके अतिरिक्त शेष उन्तीस गृहों में बिन्दु सहित व , श , ष , स - इन अक्षरों को छोड़कर क वर्ग से ह पर्यन्त ( क , च , ट , त , प कुल पच्चीस किन्तु व श ष स इन अक्षरों को छोड़कर य , र , ल , ह पर्यन्त चार को लेकर ) कुल उन्तीस वर्णों को स्थापित करे तो साधक वशी हो जाता है ॥८७॥

तुलाचक्र की फलश्रुति --- आज्ञाचक्र के मूलपद्‍म में वर्णों को स्थापित करने से जैसा फल प्राप्त होता है वही तुलागृह में भी वर्णों के स्थापन से प्राप्त होता है । त्रिवृत्तस्थ त्रिकोण में सकार के मध्य भाग का , जो सहस्त्रों ज्वालाओं से परिपूर्ण एवं स्वर्ण से अलंकृत है , उसका आश्रय ग्रहण करना चाहिए । तुलाचक्र में मौन व्रत धारण कर प्रत्येक वर्ण से सम्पुटित षकार पर्यन्त वर्ण ( व , श , ष , स ) का जो साधक मौन हो कर जप करता है वह योगिराज हो जाता है ॥८८ - ९०॥

इस योग की कृपा होने पर ही कुण्डली चेत ना प्राप्त करती है । ऐसे साधक को त्रितापनाश करने वाली वाक्सिद्धि भी प्राप्त हो जाता है । हे शङ्कर ! ऐसे तो मन्त्रों के वर्णों के जप करने से भी सिद्धि प्राप्त होती है , किन्तु तुलाचक्र के मध्य में रहने वाले स्थान के ध्यान से भी साधक मन्त्रसिद्धि का भाजन बन जाता है । हे नाथ ! इस तुलाचक्र के बिना कुण्डलिनी किसी भी हालत में सिद्ध नहीं होती । भला भावज्ञान के बिना इस भारत में कब कौन योगी हुआ है ? ॥९१ - ९३॥

वारिचक्रनिरुपण --- अब हे शङ्कर ! अन्य दलों का माहात्म्य कह्ती हूँ , श्रवण कीजिए जो योग सञ्चार में सार हैं तथा कुण्डली शक्ति की सिद्धि के साधन हैं ॥९४॥

आठ कोणों में रहने वाले निर्मल बिन्दु युक्त शक्ति बीज ( हिं ) जो विद्युत् के पुञ्ज तथा स्वर्णमाला से वेष्टित है यति उसकी भावना करे । चतुष्कोण का भेदन करने पर भी एक मनोहर चतुष्कोण है । उसके मध्य में शक्तिबीज सहित चतुष्कोण की भावना करे ॥९५ - ९६॥

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Last Updated : July 30, 2011

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