इक्कीसवाँ पटल - भूमिचक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


इन्द्र तथा पृथ्वी बीज ( लं ) के वामभाग में ब्रह्मदेव द्वारा सेवित प्रणव ( ॐ ) है , जो प्राणायाम करने से सिद्धि प्रदान करता है । अतः महर्षि लोग उस प्रकार के प्रणव का जप करते हैं । उसके नीचे सभी प्राणों का स्थान चन्द्रमा के समान उज्ज्चल वर्ण वाला प्रेत बीज ( हंसो ) है , वहीं उस भूमिचक्र में सदाशिव का स्वरुप है । उसका ध्यान करने से साधक शिव तुल्य हो जाता है ॥४८ - ४९॥

भूमि चक्र के नीचे करोड़ों विद्युत् के समान भासमान वाग्भव बीज ( ऐं ) का ध्यान करना चाहिए । वही गुरुबीज है । साधक उसका ध्यान करने से महाविद्याओं का ज्ञाता हो जाता है । दक्षिण दिशा में मध्य भाग में श्रीविद्या का निर्मल स्थान है । उनका मानस ध्यान करने से साधक सिद्ध हो जाता है । उसके दक्षिण शेष गृह में प्रणवान्त उत्तम मन्त्र का स्थान है । वही ब्रह्मा , विष्णु , शिव एवं दुर्गा का स्थान है इसलिए सर्वाधार है

॥५० - ५२॥

यह सब भूमिचक्र के अभिधेय हैं । सभी चैतन्य करने वाले हैं और मूलाधार के पूर्वदल में रहने वाले वकार को व्याप्त कर स्थित हैं । भूमिचक्र के मण्डल में समस्त ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर एक पत्ते वाले वकारस्थ उस मन्त्रोत्तम का स्मरण करे तो साधक ब्रह्माण्ड मण्डल का ईश्वर बन जाता है ॥५३ - ५४॥

कमल का वह एक पद्‍मपत्र रक्तवर्ण का एवं निर्मल द्युति वाला है । उसके मध्यान्त में स्थित भूमिचक्र के मध्य में जितेन्द्रिय साधक को ’ वं ’ बीज का ध्यान करना चाहिए । इस चक्र की कृपा से वरुण समस्त मदिरा के पति बन गए । इस चक्र के ध्यान से साधक का ह्रदय अमृतानन्द से परिपूर्ण हो जाता है , किं बहुना वह समस्त ऐश्व र्यों से युक्त हो जाता है ॥५५ - ५६॥

N/A

References : N/A
Last Updated : July 30, 2011

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP