इक्कीसवाँ पटल - वीरभाव माहात्म्य

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


श्रीभैरव उवाच

श्री भैरव ने कहा --- हे कान्ते ! अब आप मुझसे उस रहस्य को कहिए , जिससे मनुष्य सिद्ध हो जाता है । विशेष रुप से उसके प्रकार को भी कहिए , क्योंकि वह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है ॥१॥

वीरभाव का माहात्म्य अकस्मात् सिद्धिदायक है । हे सुन्दरि ! यदि आपकी करुणापूर्ण , आनन्द देने वाली दृष्टि मुझ पर है तो उसे कहिए ॥२॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे योगज्ञ ! हे क्षेत्रपालक ! हे महाकालज्ञ ! हे भावज्ञ ! हे नाथ ! आप परमानन्द सार के ज्ञाता हैं , अब उस रहस्य को सुनिए ॥३॥

योगमार्ग का अनुसरण करने से कौन वीरभाव का आश्रय ले सकता है ? क्योंकि वह आनन्दोद्रेक का पुञ्ज है तथा शक्ति एवं वेदार्थ का निर्णय है । वेद के अधीन महायोग है और योग के आधीन कुण्डली है तथा कुण्डली के आधीन चित्त है और यह सारा चराचर जगत् चित्त के आधीन है । अतः मन की सिद्धि मात्र से ही निश्चित रुप से शक्ति सिद्ध हो जाती है , यदि शक्ति अपने वशीभूत हो गई तो समझ लेना चाहिए कि सारी त्रिलोकी अपने वश में हो गई है ॥४ - ६॥

हे कुलेश्वर ! वह अवश्य ही अमर हो जाता है । यह सत्य है , यह सत्य है । ऐसे तो वीरभाव के अर्थ का निर्णय एक हजार श्लोक के योग से किया गया है । ग्यारह पटलों के योग और क्षेम के द्वारा योग - मण्डल कहा गया है । अब षट्‍चक्र बोधिनी विद्या , सहस्त्र दल पङ्कज , कैलास नामक सूक्ष्म पथ , जो योगियों के ब्रह्मज्ञान के लिए हैं । हे महावीर ! क्रम से कहती हूँ आप उसे सुनिए ॥७ - ९॥

वीरों के उत्तम जनों के तथा भ्रष्ट लोगों के लिए जो अत्यन्त हितकारी हैं , किं बहुना जो साधात् सिद्धि प्रदान करने वाला है उन सबको आपसे कह्ती हूँ । योगशास्त्र के क्रम से चल कर जो सिद्धिफल की अभिलाषा करता है , वह बहुत शीघ्र ही ब्रह्ममार्ग में सिद्ध हो जाता है , इसमें संशय नहीं ॥१० - ११॥

जो साधक ब्रह्मविद्या की विधि के अनुसार , कामना सिद्धि के लिए जप , होम एवं अर्चनादि करता है , वही ब्रह्मज्ञानवान् तथा शुचि ( पवित्रात्मा ) है । साधन की इच्छा रखने वाले जिस साधक की षट्‍चक्र भेदन में रुचि हो गई हो , भले ही वह संसार में रहने वाला हो , वा वन में रहने वाला हो वह निश्चित रुप से सिद्ध हो जाता है ॥१२ - १३॥

जो षट्‍चक्रों को नहीं जानता किन्तु अम्बा के श्रीचरणों की सेवा करता है , उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं , किन्तु सात जन्म में उसे सिद्धि प्राप्त होती है । जो षट्‍चक्र भेदन का ज्ञानवान् है और उसके भेदन के लिए दिन रात कर्म करता रहता है , उसे मात्र एक संवत्सर में सिद्धि मिल जाती है , ऐसा तन्त्रार्थ का निर्णय है ॥१४ - १५॥

मात्र तीन महीने उस कर्म को करते रहने से साधक प्रस्वेदन ( शरीर में पसीना ) प्राप्त करने लगता है , आठ मास निरन्तर कर्म करते रहने से कम्पन की प्राप्ति तथा उस कर्म को एक संवत्सर करते रहने से आकाश में उठने की शक्ति प्राप्त हो जाती है । योग में प्रस्वेदन को अधम ( छोटा ) कहा गया है और कम्पन को मध्यम कहा गया है । हे नाथ ! भूमि से ऊपर उठ जाना

उत्तम है । वही महासुख है तथा खेचरी गति कही गई है ॥१६ - १७॥

इस शरीर में मूलाधार पर्यन्त बत्तीस ग्रन्थियाँ हैं जो मेरुदण्डाश्रित देश में रहती हैं उनका भेदन कर देने से साधक साक्षात् ब्रह्ममय हो जाता है । हे प्रभो ! सुषुम्ना से बाहर प्रदेश में रहने वाले जितने ग्रत्थि स्थान हैं उनका एक - एक क्रम से भेदन करने वाला साधक निश्चित रुप से खेचर हो जाता है ॥१८ - १९॥

जो ध्यान और ज्ञान से रहित है और अन्य कार्यों में मन लगाता है , वह अवश्य ही उन्मत्त हो जाता है । अन्यथा स्वयं योगादि ( प्राणायामों में मन लगाने वाला ) सभी शास्त्रों का ज्ञाता योगिराज बना जाता है । हिम एवं कुन्दपुष्प तथा इन्दु के समान धवल वर्ण वाली , अत्यन्त प्रकाश युक्त जो कलि काल में आनन्द रुप फल वाली है , उस महाशक्ति बाला का , मूलाधार में ध्यान करने से साधक जितेन्द्रिय हो जाता है ॥२० - २१॥

अत्यन्त मनोहर दल वाले मूलपद्‍म में ध्यान करने से साधक महाज्ञानी हो जाता है , ऐसा योगिराज साधक करोड़ों कपिला के दान का फल प्राप्त कर लेता है । मूलाधार रुप पद‍म में करोड़ों चन्द्रमा की कलाओं से युक्त , रक्त वर्ण वाले , आमोद युक्ता मुख कमल , जिससे सुधारस प्रवाहित हो रहा है . उसका ध्यान कर साधक सब प्रकार का फल प्राप्त कर लेता है ॥२२ - २३॥

कुण्डलिनी की बायीं ओर अत्यन्त निर्मल करोड़ों वीरों के समान उग्र तेज वाले ब्रह्मस्वरुप का ध्यान कर साधक शीतल हो

जाता है । उसके बाद योगिराज उससे उत्पन्न उसी आकार वाले , श्रीयामल वीर , जो ललाटस्थ वहिन से उत्पन्न हैं और देवी के नाथ हैं , उनकी सेवा करता है ॥२४ - २५॥

तदनन्तर योगिराज , उस कमल के पूर्व दिशा वाले पत्र पर सिन्दूर के समान अरुण विग्रह वाले करोड़ों चपला के समान देदीप्यमान , वकार अक्षर की सेवा में संलग्न हो जाता है । उसी के पार्श्वभाग में स्थित रक्त वर्ण वाले दल पर अत्यन्त मनमोहक आज्ञाचक्रं है , पूर्व में कुण्डलिनी का ध्यान जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार का ध्यान इस आज्ञाचक्र में करना चाहिए ॥२६ - २७॥

भूमिचक्रनिरुपण --- हे योगियों का कल्याण करने वाले शङ्कर ! हे नाथ ! अब भूमिचक्र के क्रम को सुनिए जिसका ध्यान करने से साधक सिद्धि प्राप्त करता है तथा षड्‍गृह भी उसे सिद्धि प्रदान करता है । महाप्रभा से युक्त षड्‍गृह तथा त्रिकालागेह (?) एक स्थान पर ही स्थित हैं । उनके मध्य वाले गेह में र बीज वाले योगिनी गेह का ध्यान करना चाहिए ॥२८ - २९॥

उसके दक्षिण भाग वाले गेह में , सुवर्ण की माला पहने , अञ्जन के आकार वाले , डाकिनी के परम बीज ’ ब्रह्मबीज ’ वकार का ध्यान करना चाहिए । वकार के बायीं ओर योगियों के योग का साधन सदाशिव का महाबीज है । उसका ध्यान करने से साधक योगिराज बन जाता है । वं बीज वारुण बीज है , जो हिम एवं कुन्द्पुष्प तथा इन्दु के समान निर्मल है , वहीं विष्णु के जन्म का संस्थान है और वह सत्त्व से युक्त एवं द्रव वाला है । अतः उसकी उपासना करनी चाहिए ॥३० - ३२॥

उसके ऊपर पूर्व वाले गेह में इन्द्र द्वारा पूजित ’ लं ’ बीज है जो विद्युल्लता के समान एवं सुवर्ण के समान देदीप्यमान है उसका ध्यान करने से साधक योगियों का स्वामी बना जाता है । उसके दाहिने भाग में इन्द्रबीज (?) तथा बिन्दु से युक्त श्रीबीज ( श्रीं ) तथा स्थिर विद्युत् ‍ लता के समान रुपवाले इन्द्राणी के बीज की भली प्रकार से भावना करे ॥३३ - ३४॥

उसके बायें भाग में , ब्रह्मदेव द्वारा सेवित , करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान प्रणव का ध्यान कर साधक निश्चित रुप से योगिराज बन जाता है । वं बीज के नीचे वाले मन्दिर में श्रीविद्या का तैजस बीज है , जो करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी है , उसका ध्यान करने से साधक सर्वगामी बन जाता है ॥३५ - ३६॥

नित्यरुपा देवी के वामभाग के नीचे सुवर्णमय मन्दिर में श्रीगुरु के रमण वाला , जो वाग्भत एवं ईश्वर हैं , उसका ध्यान करे । उसी नित्य देवी के दाहिने भाग में करोड़ों सूर्य के समान प्रकाश वाले तैजस दीर्घ प्रणव ( आँ ) का ध्यान कर योगी यति बन जाता है । वहाँ पर स्थित पद्‍म में नित्य देवी का , मन को सद्‍वाक्य से युक्त कर , जिस प्रकार ध्यान एवं मौन धारण किया जाता है उसी प्रकार वहाँ जगत्पति का ध्यान करे ॥३७ - ३९॥

वहाँ उस भूमिचक्र में पूरक प्राणायाम के द्वारा महायोग क्रम के द्वारा तथा सूक्ष वायु की उत्पत्ति के द्वारा ब्रह्मदेव के मन्त्र का जप करना चाहिए । वह धराचक्र चतुष्कोण है जिसमें नव पृथ्वी के घर हैं , उनमें आठ गृहों का भेदन कर वसु ( ८ ) से शून्य वाले नवें गृह में यति को जप पूजा करनी चाहिए ॥४० - ४१॥

’ व ’ है अन्त में जिसके अर्थात् ’ ल ’ अक्षर धरा बीज है , जिसका पूजन इन्द्र देव ने स्वयं किया था , वहाँ कुण्डली तत्त्व का ध्यान कर साधक सर्वसिद्धिश्वर हो जाता है । वहाँ के आकाश मण्डल में श्वेत हाथी पर विराजमान् , विद्युत्पुञ्ज के समान देदीप्यमान् तथा संसारचक्र के विनाशक चार बाहुओं वाले देवराज इन्द्र का ध्यान करना चाहिए ॥४२ - ४३॥

डाकिनी के मन्दिर में अत्यन्त सुन्दर हंस पर गमन करने वाले , चार भुजा तथा चार मुख दाले , नवीन उदीयमान सूर्य के समान भासमान ब्रह्मदेव का जितेन्द्रिय साधक को ध्यान करना चाहिए । डाकिनी से संयुत्क , सिन्दूर से परिपूर्ण , भास्कर के समान तेजस्वी तथा अत्यन्त आनन्द में मदमत्त ब्रह्मदेव का ध्यान कर साधक योगिराज बन जाता है ॥४४ - ४५॥

विद्युल्लता के समान प्रकाशित श्रीदेव डाकिनी का , जिनके नेत्र रक्त वर्ण के हैं तथा जो हंस की सवारी पर आसीन हैं , वशी एवं सुराट साधक उनका बारम्बार ध्यान करे । हंस के ऊर्ध्वभाग में सर्वालङ्कार से विभूषित कमलाबीज ( श्रीं ) है जो महालक्ष्मी का स्वरुप है , ऐसे स्वरुप का ध्यान महर्षि लोग करते हैं ॥४६ - ४७॥

N/A

References : N/A
Last Updated : July 30, 2011

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP