चतुर्दश पटल - नक्षत्राधिपतिफलविचार

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


नक्षत्राधिपति फल विचार --- आश्लेषा के अधिपति शुक्त हैं जो कभी विपत्ति तथा दुःख नहीं देते । दक्षिण वाले द्वितीय पत्र पर स्थित वह बिहार करवाते हैं , उत्तर में आने वाले भय को विनष्ट करता है , उसके प्रचण्ड ताप का हनन नहीं करता । मघा का अधिपति जीव ( बृहस्पति ) हैं जो विविध प्रकार की धन - सम्पत्ति प्रदान करते हैं । बृहस्पति ब्राह्मण है । उनके शरीर का वर्ण पीत

है । पूर्वाफल्गुनी के अधिपति चन्द्रमा के लड़के बुध हैं । जिनके शरीर का वर्ण नीला है । वे अपने पत्र पर तथा उत्तरा फाल्गुनी के अधिपति मङ्गल के साथ अनेक प्रकार के सुखों से चित्त को पूर्ण कर देते है , हस्त के अधिपति चन्द्रमा तथा चित्रा के अधिपति रवि हैं जो अनन्त वैभव संपन्न बनाते हैं ॥३७ - ३८॥

हे प्रभो ! अब अधः तृतीय पत्र पर रहने वाले नक्षत्रों को सुनिए , जो वार विशिष्ट होने पर प्रश्न के निष्कर्ष का उत्तम फल प्रदान करते हैं ॥३९॥

( १४ ) स्वाती नक्षत्र की रक्षा रवि अपने तेज से करते हैं । किन्तु जब विनाशकाल उपस्थित होता है तो वे ही विपरीत बुद्धि प्रदान करते हैं । ( १५ ) विशाखा के अधिपति इन्दु हैं जो सुख तथा सरस्वती प्रदान करते हैं । ( १६ ) अनुराधा के अधिपति कुज ( मङ्गल ) हैं जो समस्त विपत्तियों को प्रबाधित करते हैं ॥४०॥

( १७ ) सम्पूर्ण अर्थों का साधक ( ज्येष्ठा ) नक्षत्र है । उसके अधिपति बुध हैं जो रक्षा करते हैं । ( १८ ) इसी प्रकार मूल सुख देने वाले हैं । जीव ( बुहास्पति ) उसके अधिपति हैं । ( १९ ) पूर्वाषाढ़ के अधिपति शुक्रा है । वे सुख देते हैं तथा धन भी ॥४१॥

चौथा पत्र बाई ओर स्थित है , वहा महामङ्गलकारी है वह अर्थववेद का स्वरुप है , तथा सारे प्रश्नों के कथा से आवृत है । प्रश्न वर्ण के विपरीत होने पर महान् दुःख तथा वर्णोंअ के सुखकारक होने पर भी हानि उठानी पड़ती है । किन्तु यदि नक्षत्रों की शुभदृष्टि हो तो महान् अभ्युदय या लाभ होता है ॥४२ - ४३॥

यहा शुभाशुभ फला तारकों ( नक्षत्रों ) के अधिपति के गुण से प्रगट होते हैं , इसलिए प्रश्नवर्ण के समूहों का मत जानकर तब निर्णय देना चाहिए । ( २० ) उत्तराषाढ़ के अधिपति शनि हैं । वे विपाक ( परिणाम ) में होने वाली हानि ही देते हैं वहा दुख दारिद्रय देने वाले होते हैं किन्तु देवता में निष्ठा होने पर वह बाधित भी हो जाती है ॥४४ - ४५॥

( २१ ) श्रवण के अधिपति रवि धनादि द्वारा रक्षा करते हैं । प्रधान देव ( सूर्य ) के आश्रय लेने से उसका ऐसा फल निर्विकल्प समझना चाहिए। ( २२ ) धनिष्ठा के अधिपति सुधांशु ( चन्द्रमा ) हैं । इसलिए वह उत्तम फल देने वाले नक्षत्र हैं । ( २३ ) शतभिषा तारागणों के देवता कुज ( मङ्गाल ) है , जो विपत्ति प्रदान करते है ॥४६॥

विमर्श --- शतभिषा में १०० तारे होते हैं । उसका अधिपति होने के कारण मङ्गल को गणेश कहा गया है । ( द्र० १४ . ४८ ) । ’ शतभिशाजां गणनामीशा ’ या ’ शतभिग्गणेश ’ ।

( २४ ) पूर्वभाद्रपद के अधिपति बुधा हैं जो सुवर्ण की वृद्धि करते हैं । ( २५ ) उत्तरभाद्रपद के अधिपति महान‍देव बृहस्पति हैं जो उत्तम लोक प्रदान करते हैं तथा सुखों को उल्लसित करते हैं । ( २६ ) रेवती के अधिपति भृगु ( शुक्र ) हैं , जो अपने अपने पत्र पर रहने वाली राशियों के साथ परम आहलाद प्रदान करते हैं ॥४७ - ४८॥

श्री सम्पन्नता एवं धन देने वाले शनि ( २७ ) अभिजित् तारे की रक्षा करते हैं । वस्तुतः प्रसन्नतापूर्वक फल प्रदान करने के लिए शनि राजा मृगान्तक ( सिंह ) है । उसमें भी यदि चद्रमा उच्च का हो तो बुद्धिमान् लोग उसे अत्यन्त उत्तम कहते है । राहु राजा ग्रहों के क्षेत्र में अभिजित् काल से परिवेष्टित है ॥४९ - ५०॥

वह काल अत्यन्त सूक्ष्म है , पृथ्वीतल में जो उसे जान लेता है वह असुखी रहता है । शनि और राहु एकत्रा रहने पर सुख का अन्त करने के लिए सन्ध्या काल के समान है । उनका सन्धिकाल इस प्रकार सत्त्वगुण का महान् ‍ उदय करने वाला होता है , उसे कुम्भक जानना चाहिए , जो मेरे शरीर से उप्तन्न हुँ है , वह क्षण कुण्डली मण्डल के समान अत्यन्त सूक्ष्म हैं । उसके प्रथम भाग में धारणा ’ नामक शनि प्रभु है ॥५१ - ५३॥

जहाँ परा निरञ्जन ( माया रहित ) ब्रह्मदेव स्वयं प्रसन्नता पूर्वक निवास करते है । उसके शेष भाग में संहार विग्रह वाले शुचि रेचन नाम से राहु रुप धारण करने वाले पञ्च तत्त्व विधान वेत्ता सदाशिव प्रभु हैं । ये महादेव ही काला स्वरुप है , जिनका मुख अत्यन्त विकट तथा भयङ्कर है ॥५४ - ५५॥

चन्द्रमा रुप में सुधाकर स्वरुप धारण कर वही महादेव अपने साधक के सारे पापाग्नि को विनष्ट कर देते हैं और वही काले स्वरुप वाले काल यम बनकर पुण्यापुण्य का फल भी प्रदान करते हैं । उन दोनों के मध्य में करोड़ों विद्युत के समान देदीप्यमान , सूक्ष्मरुप वाली , महासत्त्व का आश्रय लिए हुये , ग्रहों पर आश्रित रहने वाली , विष्णुमाया स्वरुपा , सूक्ष्मा एवं जया अभिजित् नक्षत्र है जिसका लय सन्धिकाल में होता है । उसका ह्रदय कुम्भक से आक्रान्त है वही अभिजित् ‍ समस्त ग्रहसमूहों के आगे चलता है ॥५६ - ५८॥

तिथिविवेचन --- नक्षत्रा मण्डल समूहों के मध्य में रहने वाली षोडशी तिथि हैं जिसका समय निर्धारित नहीं है और वह सूक्ष्म कला से युक्त है । वह तरुणों के समान आनन्द से परिपूर्ण रहने वाली तिथि है । इसके प्रथम भाग में स्थित रहने वाला ब्रह्मरुप रजोगुण है , इसका शेष ( भाग ) काल रुप धारण करने वाला तमोगुण है और सबको अपने में लय कर लेना ही इसे प्रिय

है ॥५९ - ६०॥

सुषुम्ना नाडी़स्था आत्रेयी शक्ति का विवेचना --- चन्द्रमा ब्रह्मा हैं , सूर्य शिव हैं जो महामाया के उत्तर ( पश्चात् ‍ ) शरीर है , उसकी आत्रेयी नाम की शक्ति है जो सुषुम्ना के भीतर गमन करती है । वह सुषुम्ना ब्रह्मा और शिव के मध्य में रहने वाली है जो विधि शास्त्र की सिद्धि दात्री है ।जिससे सब कुछ का ज्ञान होता है । किं बहुना , वह सबको आनन्द देने वाली है तथा ह्रदय में निवास करने वाली है ॥६१ - ६२॥

वहा ( आत्रेयी शक्ति ) आनन्द रुप फलों से युक्त होने के कारण सत्त्व के संभोगो को प्रदान करने वाली हैं । यहा महाविष्णु स्वरुपा है और महामाया हैं तथा चन्द्र तारा स्वरुपिणी है । वहा भोग तथा मुक्ति प्रदान करती हैं तथाअ सदाशिव की भोग्या है । यहा आद्या माहेश्वरी है । अज्ञान से आवृत होने पर यह घोर अन्धकार वाली है तथा काल का संहार करने वाली एवं हंसिनी है ॥६३ - ६४॥

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Last Updated : July 29, 2011

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