एकादशस्कन्धपरिछेदः - पञ्चनवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


आदौ हैरण्यगर्भीं तनुमविकलजीवात्मिकामास्थितस्त्वं

जीवत्वं प्राप्यं मायागुणगणखचितो वर्तसे विश्र्वयोने ।

तत्रोद्वृद्धेन सत्त्वेन तु गुणयुगलं भक्तिभावं गतेन

च्छित्त्वा सत्त्वं च हित्वा पुनरनुपहितो वर्तिताहे त्वमेव ॥१॥

सत्त्वोन्मेषात् कदाचित् खलु विषयरसे दोषबोधेऽपि भूमन्

भूयोऽप्येषु प्रवृत्तिः सतमसि रजसि प्रोद्धते दुर्निवारा ।

चित्तं तावद् गुणाश्र्च ग्रथितमिह मिथस्तानि सर्वाणि रोद्धुं

तुर्ये त्वय्येकभक्तिः शरणमिति भवान् हंसरूपी न्यगादीत् ॥२॥

सन्ति श्रोयांसि भूयांस्यापि रुचिभिदया कर्मिणां निर्मितानि

क्षुद्रानन्दाश्र्च सान्ता बहुविधगतयः कृष्ण तेभ्यो भवेयुः ।

त्वं चाचख्याथ सख्ये ननु महिततमां श्रेयसां भक्तिमेकां

त्वद्धक्त्यानन्दतुल्यः खलु विषयजुषां सम्मदः केन वा स्यात् ॥३॥

त्वद्भक्तो बाध्यमानोऽपि च विषयरसैरिन्द्रियाशान्तिहेतो -

र्भक्त्यैवाक्रम्यमाणैः पुनरपि खलु तैर्दुर्बलैर्नाभिजय्यः ।

सप्तार्चिर्दीपितार्चिर्दहति किल यथा भूरिदारुप्रपञ्चं

त्वद्भक्त्योघे तथैव प्रदहति दुरितं दुर्मदः क्वेन्द्रियाणाम् ॥५॥

चित्ताद्रीभावमुच्चैर्वपुषि च पुलकं हर्षबाप्पं च हित्त्वा

चित्तं शुध्येत् कथं वा किमु बहुतपसा विद्यया वीतभक्तेः ।

त्वद्गाथास्वादसिद्धाञ्जनसततमरीमृज्यमानोऽयमात्मा

चक्षुर्वत्तत्त्वसूक्ष्मं भजति न तु तथाभ्यस्तया तर्ककोट्या ॥६॥

ध्यानं ते शीलयेयं समतनुसुखबद्धासनो नासिकाग्र -

न्यस्ताक्षः पूरकाद्यैर्जितपवनपथश्र्चित्तपद्मं त्ववाञ्चम् ।

ऊर्ध्वाग्रं भावयित्वा रविविधुशिखिनः संविचिन्त्योपरिष्टा -

त्तत्रस्थं भावये त्वां सजलजलधरश्यामलं कोमलाङ्गम् ॥७॥

आनीलश्लक्ष्णकेशं ज्वलितमकरसत्कुण्ठलं मन्दहास -

स्यन्द्रार्द्रं कौस्तुभश्रीपरिगतवनमालोरुहाराभिरामम् ।

श्रीवत्साङ्कं सुबाहुं मृदुलसदुदरं काञ्चनच्छायचेलं

चारुस्निग्धोरुमम्भोरुहललितपदं भावयेऽहं भवन्तम् ॥८॥

सर्वाङ्गेष्वङ्ग रङ्गत्कुतुकमति मुहुर्धारयन्नीश चित्तं

तत्राप्येकत्र युञ्जे वदनसरसिजे सुन्दरे मन्दहासे ।

तत्रालीनं तु चेतः परमसुखचिदद्वैतरूपे वितन्व -

न्नन्यन्नो चिन्तयेयं मुहुरिति समुपारूढयोगो भवेयम् ॥९॥

इत्थं त्वद्ध्य़ानयोगे सति पुनरणिमाद्यष्टससंसिद्धयस्ता

दूरश्रुत्यादयोऽपि ह्यहमहमिकया सम्पतेयुर्मुरारे ।

त्वत्सम्प्राप्तौ विलम्बावहमखिलमिदं नाद्रिये कामयेऽहं

त्वामेवानन्दपूर्ण पवनपुरपते पाहि मां सर्वतापात् ॥१०॥

॥ इति भगवत्स्वरूपध्यानयोग्यतावर्णनं पञ्चनवतितमदशकं समाप्तम् ॥

विश्र्वयोने ! सृष्टिके आदिमें आप सम्पूर्ण जीवमय हिरण्यगर्भसम्बन्धी शरीर धारण करते हैं अर्थात् ब्रह्माके रूपमें प्रकट होते हैं । तत्पश्र्चात् जीवत्वको प्राप्त होकर मायाके गुणसमूहोंसे संयुक्त हो संसारीका -सा व्यवहार करते हैं । उस समय बढ़े हुए अतएव भक्तिभावको प्राप्त हुए सत्त्वगुणसे रज -तम -इन दोनों गुणोंका छेदन करके पुनः सत्त्वगुणको भी त्यागकर उपाधिरहित हो जाते हैं और एकमात्र आप ही शेष रहते हैं , उस अवस्थामें मैं आपसे अभिन्न हो जाता हूँ ॥१॥

भूमन् ! ‘सत्त्वगुणके उद्रेकसे कभी -कभी विषय -रसके आस्वादमें दोषका ज्ञान होनेपर भी रजोगुण और तमोगुणके उत्कृष्ट होनेपर उन विषयोंमें प्रवृत्तिको रोकना दुष्कर हो जाता है ; क्योंकि उस समय विषय और चित्त परस्पर ग्रथित हो जाता हैं , अतः उन सबका त्याग करनेके लिये अवस्थात्रयातीत आपकी भक्ति ही एकमात्र शरण है ’—— ऐसा उपदेश हंसरूपधारी आपने ब्रह्माके समक्ष सनकादिकोंको दिया था ॥२॥

श्रीकृष्ण ! कर्माधिकारियोंके रुचि -भेदसे निर्मित बहुत -से श्रेयः - साधन वर्णित हैं और उन श्रेयः साधनोंसे अनेक प्रकारकी गतियॉं भी प्राप्त होती हैं , परंतु वे गतियॉं स्वल्प सुखवाली तथा सान्त होती हैं । उन श्रेयः साधनोंमें केवल भक्ति ही अतिशय श्रेष्ठ है - ऐसा आपने अपने सखा उद्धवसे वर्णन किया है ; क्योंकि आपकी भक्तिसे जो आनन्द सुलभ होता है उसके तुल्य सुख विषयी जनोंको किस विषयसे प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् किसीसे भी नहीं ॥३॥

आपकी भक्तिके आश्रयसे जिसकी बुद्धि संतुष्ट हो गयी है अतएव जो विषय -तृष्णासे रहित हो गया है , वह सर्वत्र सुखपूर्वक विचरण करता है ; क्योंकि उसके लिये सारी दिशाएँ उसी प्रकार सुखमयी हो जाती है , जैसे अगाध जलाशयमें पहुँच जानेपर जल -जन्तुके लिये सर्वत्र जल -ही -जल दीखता है । वह भक्त इन्द्रलोक , सत्यलोक तथा मनोहर योगसिद्धियोंकी भी आकांक्षा नहीं करता । इनकी बात तो जाने दिजिये , वह तो अनायास प्राप्त हुए मोक्ष -सुखके प्रति भी निरीह हो जाती है ॥४॥

यद्यपि विषय -वासनाएँ इन्द्रियोंकी अशान्तिके कारण आपके भक्तको अपनी और आकर्षित करनेकी चेष्टा करती हैं , परंतु वे उसपर विजय नहीं कर पातीं ; क्योंकि बलवती भक्ति आक्रमण करके उन्हें पुनः दुर्बल बना देती है । जैसे दहकती हुई लपटोंवाली अग्नि महती काष्ठराशिको जला डालती है , उसी प्रकार आपकी भक्तिके प्रवाहमें पड़कर पाप जलकर भस्म हो जाते हैं । भला , भक्तिके आगे इन्द्रियोंका गर्व कहॉं ठहर सकता है ॥५॥

भगवत्स्मरणसे चित्तका आनन्दविह्वल हो जाना , शरीरमें रोमाञ्ज हो आना , आँखोंमें हर्षके आँसू छलक आना आदि प्रत्यक्ष चिन्होंसे लक्षित होनेवाली भक्तिके बिना चित्तकी शुद्धि कैसे हो सकती है ? भक्तिहीनकी घोर तपस्या तथा उत्कट विद्यासे ही क्या लाभ ? अर्थात् भक्ति बिना वे निष्फल हो जाते है । आपके गुणगानरूपकी सिद्धाञ्जनसे बारंबार परिशोधित किया हुआ यह आत्मा निर्मल नेत्रकी भॉंति जिस खूबीसे सूक्ष्म तत्त्वको ग्रहण करता है , वैसा बारंबार करोड़ो तर्कोंके द्वारा नहीं कर सकता ॥६॥

अब मैं आपके ध्यानका अभ्यास करूँगा - मैं शरीर (मस्तक और ग्रीवा )-को सीधा करके सुखासन बॉंधकर बैठ जाऊँगा और नेत्रोंको नासिकाके अग्रभागपर स्थिर करके पूरक , रेचक आदि प्राणायामोंद्वारा वायुमार्गको जीत लूँगा । तत्पश्र्चात् अपने अधोमुख हृदयकमलको ऊर्ध्वमुख करके उसकी कर्णिकामें सूर्य , चन्द्र और अग्निको उत्तरोत्तरक्रमसे धारण करूँगा । पुनः उस अग्निके मध्यमें सजल जलधरकी -सी श्यामल कान्तिसे सुशोभित कोमल अङ्गोंवाले आपकी भावना करूँगा ॥७॥

जिनकी घूँघराली अलकें अत्यन्त नीली एवं कोमल है , जिनके कानोंमें चमकीले मकराकृत कुण्डल झलमला रहे हैं तथा मन्द हास मानो अमृत -द्रवसे आर्द्र हो रहा है , कौस्तुभमणिकी कान्तिसे युक्त वनमाला तथा अन्यान्य हार -समूहोंसे जिनकी अद्भुत शोभा हो रही है , जिनके वक्षःस्थलके दाहिने भागमें श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित हो रहा है , सुन्दर भुजाओं तथा त्रिवलीयुक्त कोमल उदरसे जिनकी निराली शोभा हो रही हे , जिनके श्रीविग्रहरपर स्वर्ण -सदृश कान्तिमान् पीताम्बर फहरा रहा है , जिनकी जंघाएँ बड़ी सुन्दर एवं मांसल हैं तथा जिनके चरण अरुण -कमलके -से मनोहर हैं , ऐसे शोभाशाली आपकी मैं चिन्तना करूँगा ॥८॥

हे ईश ! मैं अपने कुतूहलपूर्ण चित्तको बारंबार आपके सर्वाङ्गोंमें नियोजित करूँगा । पुनः उन सर्वाङ्गोंमें भी उसे सब जगहसे समेटकर एकमात्र आपके मन्द -मुस्कानसे सुशोभित मुखकमलपर नियुक्त कर दूँगा । जब वह श्रीमुखपर सुस्थिर हो जायगा , तब उसे अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्ममें निवेशित करके किसी अन्यकी चिन्तना ही नहीं करूँगा । इस प्रकार बारंबार प्रयत्न करता हुआ मैं योगारूढ हो जाऊँगा ॥९॥

इस प्रकार आपके ध्यानयोगके सिद्ध हो जानेपर वे सत्त्वोत्कर्षजनित अणिमादि अष्ट सिद्धियॉं तथा दूर -श्रवण आदि क्षुद्र सिद्धियॉं भी ‘पहले मैं , पहले मैं ’—— यों होड़ लगाती हुई आ पहुँचेंगी । परंतु मुरारे ! वे सभी आपकी प्राप्तिमें रोड़ा अटकानेवाली हैं , अतः मैं उन सबका आदर नहीं करूँगा । मैं तो आनन्दसे परिपूर्ण आपको ही प्राप्त करना चाहता हूँ । पवनपुरपते ! सभी कष्टोंसे मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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