अध्याय दसवाँ - श्लोक ४१ से ६०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


जन्मके लग्नराशिसे आठवां स्थान और जन्मलग्नसे आठवां नवाशंक इनमें सब कर्मोंको त्यागचे कर्म करे तो जीवन दुर्लभ होता है ॥४१॥

प्रवेशके लग्नसे अष्टम स्थानमें यदि कोईभी पापग्रह पडा हो यदि वह क्रूर राशिपर हो तो छ: मासमें और शुभ राशिपर होय तो आठ वर्षमें स्वामीका नाश करता है ॥४२॥

रन्ध्र १० पुत्र ५ धन ९ आय ११ इनसे पंचम भवनमें सूर्य स्थित होय तो क्रमसे पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर मुखके घरमें प्रवेश करे, गुरु देवता अग्नि विप्र इनको वाम भागमें रक्खे. उर्ध्वपद नक्षत्रोंसे धनका नाश होता है ॥४३॥

उत्तर वा पश्चिमको शिर करके शयन करे तो मृत्यु होती है. शय्याके वंश आदि भी रोग और पुत्रोंको दु:ख देते हैं, शय्यापर पूर्वको शिर किये शयन करे वा दक्षिणको शयन करे तो सुख और संपदाओंको सदैव प्राप्त होता है और पश्चिमको शिर करनेसे प्रबल चिंता होती है. उत्तरको शयन करनेसे हानि और मृत्यु होती है ॥४४॥

अपने घरमें पूर्वको शिर किये शयन करे श्वशुरके घरमें दक्षिणको शिर किये और परदेशमें पश्चिमको शिर किये शयन करै और उत्तरको शिर किये कदाचित न सोवे ॥४५॥

अब शय्या और शयनोंके लक्षणोंको कहते हैं; अब क्रमसे और संक्षेप रीतिके अनुसार काष्ठके कर्मको कहते हैं. जैसे -गो अश्व हस्ति आय शुध्दिसे किये जाते हैं इसी प्रकार शय्या भी आय

( विस्तार ) से शुध्द बनवावे ॥४६॥ तिसी प्रकार दोलिका यान ( सवारी ) ये भी शोभाके अनुसार बनाने कहे हैं. हे विप्रेंद्र ! उस प्रमाणको तुम सुनो जो मुझे बॄहद्रथसे मिला है ॥४७॥

शय्याका वर्णन उस प्रकारसे कहताहूं. जैसे-मनुष्य सुखको प्राप्त हो अशन स्पंदन चन्दन हरिदु देवदारु तिंदकी शाल काश्मरी अर्जुन पद्मक शाक आम्र शिंशपा ये वृक्ष शय्याके बनानेमें शुभ होते हैं ॥४८॥

अशनि ( बिजली ) पवन हस्ति इनसे गिराये हुए और जिनमें मधु ( सहत ) पक्षी इनका निवास हो और चैत्य ( चबुतरा ) श्मशानमार्ग इनमें उत्पन्न और अर्ध्द्वशुष्क और लताओंसे बन्धे हुए ॥४९॥

कंटकी अर्थात जिनकी त्वचापर कांटे हों जो महानदियोंके संगममें उत्पन्न हों, जो देवताके मन्दिरमें हों और दक्षिण और पश्चिम दिशामें उत्पन्न हुए हों ॥५०॥

जो निषिध्द वृक्षसे उत्पन्नहुए हों. जो अन्यभी भिन्न भिन्न प्रकारके हैं वे संपूर्ण काष्ठ शय्याके काममें कर्मके ज्ञाताको त्यागने योग्य हैं ॥५१॥

इन पूर्वोक्त निषिध्द वृक्षोंकी शय्या बनवानेसे कुलका नाश व्याधि और शत्रुसे भय होता है ॥५२॥

जहां शय्याक आरंभसे पहिला छेदन किया काष्ठ हो वहां शकुनोंकी परीक्षा उस काष्ठको ग्रहण करे, श्वेतपुष्प दन्त दधि अक्षत फ़ल ॥५३॥

जलसे पूर्ण घट और रत्न अन्य जो मंगलकी वस्तु है उनको देखकर संग्रह करे और अन्य शकुनोंको भी परीक्षा करे । तुषोंसे रहित आठ जौ जिसके भीतर आजाय उसको अंगुल कहते हैं ॥५४॥ उसी मानसे स्थपति ( बढई ) शयन आदिको बनावे । सौ १०० अंगुलकी शय्या बडी कही है वह चक्रवर्ति राजाओंकी होती है और आठ भागसे हीन जो इसका अर्ध्द्वभाग है वह शय्याका विस्तार ( चौडाई ) कहा है ॥५५॥

आयाम तीसरे भागका होता है और पादोंकी ऊंचाई कुक्षिपर्यंत होती है । वह शय्या सामंतराजा आदि और चतुर मनुष्योंकी होती है उससे दश अंगुल कम राजकुमारोंकी और मन्त्रियोंकी होती है ॥५६॥

अठारह अंगुल कम सेनापति और पुरोहितोंकी कही है इससे छ: भाग कम जो इसका अर्ध्द्वभाग है वह विस्तार कहा है ॥५७॥

तीसरे अंशका जो भाग है वह आयाम होता है अथवा तीसरे भागसे कम होता है और पादोंकी ऊंचाई चार तीन दो अंगुलोंके क्रमसे कही है अर्थात इन अंगुलोंसे कम चतुर्थभागकी ऊंचाईके पाये बनवावे ॥५८॥

संपूर्ण वर्णोंकी शय्या साढेतीन हाथ और इक्यासी ८१ अंगुलोंकी बनवानी और वह देवनिर्मित शय्या कहाती है ॥५९॥

असनका रोगका हर्ता होता है तिंदुककी शय्या पित्तको करती है, चन्दनकी शय्या शत्रुको नष्ट करती है और धर्म आयु यशको देती है ॥६०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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