अध्याय तीसरा - श्लोक ४१ से ७०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


मूल रेवती कृत्तिका पूर्वाषाढा पूर्वाफ़ाल्गुनी हस्त और सातवां मघा ॥४१॥

मंगलसे युक्त इन नक्षत्रोंमें और मंगलवारमें जो घर बनाया जाता है वह संपूर्ण अग्निसे दग्ध होता है और उसमें पुत्र नष्ट होजाता है ॥४२॥

अग्निके नक्षत्रमें सूर्य वा चंद्रमा स्थित होय तो ऎसे लग्नमें बनायाहुआ मंदिर थोडे दिनोंमें निश्चयसे अग्निसे दग्ध होता है ॥४३॥

ज्येष्ठा अनुराधा भरणी स्वाती तीनों पूर्वा और घनिष्ठा इन नक्षत्रोंमें और शनौश्वरके दिन बनाया मंदिर ॥४४॥

नामसे कृपण कहाता है और धन धान्यसहितभी उस घरमें उत्पन्नहुआ पुत्र यक्ष और राक्षसोंसे ग्रहण कियाजाता है ॥४५॥

प्रासादोंमें वापीकूप आदिमें भी यही फ़ल होता है तिससे शुभका अभिलाषी मनुष्य विचारकर घरका आरंभ करै ॥४६॥

मकर वृश्चिक कर्क लग्नमें गृहका आरंभ होय तो नाश हो, मेष धन तुला लग्नमें होय तो काममें दिर्घसूत्र ( देर ) हो, कन्या मीन मिथुनसे होय तो निश्चयसे अर्थका लाभ हो, कुंभ सिंह और वृषमें सिध्दिको देता है ऎसे ज्योति:शास्त्रके ज्ञाता वर्णन करते है ॥४७॥

मध्याह्डमें हुआ वास्तु कर्ता और धनके नाशको देता है, अर्द्वरात्रिमें भी तैसाही फ़ल है और सन्ध्यामेंभी गृहके आरंभको न करै ॥४८॥

इसके अनंतर भावोंके फ़लको कहते हैं- लग्नमें सूर्य हो तो वज्रका पात, चन्द्रमा होय तो कोशकी हानि, मंगल होय तो मृत्यु, शनैश्वर लग्नमें होय तो दारिद्र्य ॥४९॥

बृहस्पति होय तो धर्म अर्थ काम, शुक्र होय तो पुत्रोंकी उत्पत्ति, बुध होय तो जन्मभर अच्छे काममें प्रवृत्ति होती है ॥५०॥

दूसरे स्थानमें सूर्य होय तो हानि, चन्द्रमा होय तो शत्रुओंका नाश, मंगल होय तो बंधन और शनैश्वर होय तो नाना प्रकारके विघ्न होते है ॥५१॥

बुध होय तो धनकी सम्पत्ति, बृहस्पति होय तो धर्मकी वृध्दि और शुक्र होय तो यथेच्छ आनंदसे फ़लोंकी कामनासिध्दि होती है ॥५२॥

तीसरे स्थानमें पापग्रह होय और विशेषकर सौम्यग्रह होय तो अल्प कालमेंही अपनी इच्छानुसार सिध्दि होती है ॥५३॥

चौथे स्थानमें बृहस्पति होय तो राजासे पूजा प्राप्त होती है, वुध होय तो धनका लाभ शुक्र होय तो भूमिका लाभ होता है ॥५४॥

सूर्य होय तो मित्रका वियोग मंगल होय तो मंत्रका भेद, चंद्रमा होय तो बुध्दिका नाश और शनैश्वर होय तो सबका नाश होता है ॥५५॥

पंचममें बृहस्पति होय तो मित्र और रत्न्न धनका आगमन होता है. शुक्र होय तो पुत्र और सुखकी प्राप्ति, बुध होय तो रत्न्नोंका लाभ होता है ॥५६॥

सूर्य होय तो पुत्रोंका दु:ख, चन्द्रमा होय तो कलह कहा है, मंगल होय तो कार्यका विरोध, शनैश्वर होय तो बन्धुओंमें लडाई होती है ॥५७॥

छठे स्थानमें सूर्य होय तो रोगके नाशको कहे. चन्द्रमा होय तो पुष्टि मंगल होय तो प्राप्ति, शनैश्वर होय तो शत्रुओंके बलका क्षय होता है ॥५८॥

बृहस्पति होय तो मंत्रका उदय कहा है. शुक्र तो विद्याका आगम कहा है और बुध होय तो भलीप्रकार ज्ञान और अर्थमें कुशलता होती है ॥५९॥

सातवें स्थानमें बृहस्पति बुध और शुक्र होय तो क्रमेसे गज वाजी और पृथिवीके लाभको कहै ॥६०॥

सूर्य होय तो कीर्तिका नाश होता है. मंगल होय तो विपत्तियोंको कहै. चंद्रमा होय तो क्लेश और परिश्रम होता है, सूर्य होय तो अंग हीनता और भय होता है ॥६१॥

अष्टमस्थानमें सूर्य होय तो वैरियोंसे दु:ख होता है. चन्द्रमा होय तो हानि, मंगल शनैश्वर होय तो रोगका भय होता है ॥६२॥

बुध होय तो मान और धनकी प्राप्ति, बृहस्पति होय तो विजय होता है, शुक्र होय तो मंत्रके ज्ञाताभी मनुष्यके यहां अपने जनोंसे भेद होता है ॥६३॥

बृहस्पति नवमस्थानमें होय तो चिद्या भोग आदिका आनंद होता है. बुध होय तो अनेक प्रकारके भोग, शुक्र होय तो विजय होता है ॥६४॥

चन्द्रमा होय तो धातुओंका नाश कहा है, सूर्य होते धर्मकी हानि, मंगल होय तो धनका नाश, शनैश्वर होय तो धर्ममें दूषण होता है ॥६५॥

दशवें स्थानमें शुक्र होय तो शयन आसनकी सिध्दि होती है. बृहस्पति होय तो महान सुख, बुध होय तो विजय और स्त्री धनकी वृध्दि होती है ॥६६॥

सूर्य होय तो मित्रोंकी वृध्दि, चन्द्रमा होय तो शोककी वृध्दि होती है. मंगल होय तो रत्नोंका अगिम, शनि होयँ तो कीर्तिका लोप होता है ॥६७॥

लाभस्थानमें संपूर्ण ग्रह होयँ तो लाभको कहे व्यय १२ स्थानमें संपूर्ण ग्रह होयँ तो सदैव व्ययको कहै ॥६८॥

अपने उच्चका ग्रह होय तो पूर्ण फ़ल कहा है. अपनी राशिका ग्रह हो तो पादोन कहा है. अपने त्रिकोणका होय तो आधा फ़ल देता है. मित्रके गृहका होत तो चौथाई फ़लको देता है ॥६९॥

समराशि वा रिपुकी राशिके ग्रह होयँ तो समता और कष्ट फ़लको देते है, नीचराशिमें स्थित ग्रह निष्फ़ल कहा है. वर्गका होय तो श्रेष्ठफ़लका दाता शुभ कहा है ॥७०॥

इति पं० मिहिर चंद्रकृतभाषाविवृतिसहिते वास्तुशास्त्रे तृतीयोऽध्याय: ॥३॥

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Last Updated : January 20, 2012

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