अध्याय दूसरा - श्लोक ८१ से १००

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


निधननामकी तारा सर्वथा मरणको देती है. वर्जने योग्य इन ताराओंमें गृहनिर्माण अशुभदायी होता है ॥८१॥

प्रत्यरितारा महान भयको देती है और तेईसवें नक्षत्रमें होय तो मृत्युको देती है. निधननामकी जो तारा है वह स्त्री और पुत्रोंको दु:खदायी होती है ॥८२॥

अज्ञान वा मोहसे इनमें गृहको बनावे तो दु:ख और व्याधिका भोगी होता है. रिक्तातिथिमें दरिद्रता और अमावास्यामें गर्भका पात होता है ॥८३॥

कुयोगमें धन धान्य आदिका नाश और पात मृत्युको देता है. वैधृति और नक्षत्रकी एकतामें सबका नाश होता है ॥८४॥

अवस्थासे हीन घर होय तो स्वामी दुर्भागी होता है नाडीका वेध अशुभको देता है. तारा रोग और भयको देती है ॥८५॥

गणके वरमें पुत्र और धनकी हानि होती है और योनिमें कलह और महादु:ख होता है और यमके अंशमें दोनोंका मरण होता है ॥८६॥

नक्षत्रकी एकतामें स्वामीकी मृत्यु और वर्णकी एकतामें वंशका नाश होता है. पापग्रहके वारमें दरिद्रता और बालकोंका मरण होता है ॥८७॥

कोई आचार्य शनैश्वरकी प्रशंसा करते है परन्तु शनैशरमें चौरोंका भय होता है, हे वरानने ! ( पार्वती ) स्वामीके हस्तप्रमाणसे गृहको बनावे रेखासे लेकर हस्तपर्यंत विषम संख्या श्रेष्ठ कही है ॥८८॥ हाथके प्रमाणसे अधिक होय तो अंगुलोंको लेकर वा छोडकर गणितसे क्षेत्र फ़लको इष्ट सिध्दिके लिये सिध्द करै ॥८९॥

हाथके मानसे अधिक होय तो अंगुलिको सिध्द करै ऐर गृहके दीर्घ ( लंबाई ) में अंगुलोंको दे और विस्तारमें कदाचित न दे ॥९०॥

अंगुलोंसे कल्पना की जो नाभि है उसका वर्ग करनेसे पद होता है इस प्रकार प्राप्त हुआ जो हस्ताआदिका मान उसको करके फ़िर गृहको बनवावे ॥९१॥

ग्यारह हाथसे आगे वत्तीस हाथ पर्यंत आयादिककी चिन्ता करे और उसके ऊपर न करै ॥९२॥

आय व्यय और मासकी शुध्दि इनकी चिन्ता जीर्ण गृहमें न करै और गृहके मध्यमें विधिपूर्वक शिलाका स्थापन करे ॥९३॥

ईशान दिशामें देवतागृह, पूर्वमें स्नानका मंदिर, अग्निकोणमें पाकका स्थान और उत्तरमें भाण्डारोंका स्थान बनवावे ॥९४॥

अग्नि और पूर्वके मध्यमें दधि मथनेका मंदिर, अग्नि और दक्षिण दिशाके मध्यमें घृतका घर श्रेष्ठ कहा है ॥९५॥

दक्षिण और नैऋत्यके मध्यमें मलके त्यागनेका स्थान और नैऋत पश्चिमके मध्यमें विद्याके अभ्यासका मन्दिर बनवावे ॥९६॥

पश्चिम और वायुकोणके मध्यमें रोदनका घर कहा है, वायु और उत्तरके मध्यमें रति ( भोग ) का घर श्रेष्ठ कहा है ॥९७॥

उत्तर और ईशानके मध्यमें औषधका स्थान बनवाने और भूतिके अभिलाषी राजाओंको सूतिकाका घर नैऋत दिशामें कहा है ॥९८॥

वह विशेष कर प्रसव कालके समीपमासमें करना और तैसेही प्रसवकालमें बनवावे यह शास्त्रोंका निश्चय है ॥९९॥

नवम मासके आनेपर पूर्वपक्षके शुभ दिनमें प्रसूतिके प्रारंभ समयमें गृहका आरंभ श्रेष्ठ कहा है ॥१००॥

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Last Updated : January 20, 2012

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