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कालनिर्णयकोश - सप्तर्षियुग की कल्पना

   
Script: Devanagari
See also:  कालनिर्णयकोश , कालनिर्णयकोश - ग्रंथों का कालनिर्णय , कालनिर्णयकोश - मन्वन्तर कालगणनापद्धति , कालनिर्णयकोश - युगगणनापद्धति , कालनिर्णयकोश - व्यक्तियों का कालनिर्णय

कालनिर्णयकोश - सप्तर्षियुग की कल्पना

 n.  जो आकाश में स्थित सप्तर्षि ग्रहों के स्थिति के मापन पर आधारित है, एवं इस प्रकार खगोलशास्त्र से संबंधित है ।
सप्तर्षि शक n.  ज्योतिर्विज्ञान की कल्पना के अनुसार, आकाश में स्थित सप्तर्षि तारकाषुंज की अपनी गति रहती है, एवं वे वह सौ साल में एक नक्षत्र भ्रमण करते हैं । इस प्रकार समस्त नक्षत्र मंडळ का भ्रमण पूर्ण करने के लिए उन्हें २७०० साल लगते हैं, जिस कालावधि को ‘ सप्तर्षि चक्र ’ कहते है । सप्तर्षिकाल एवं शक का निर्देश पौराणिक साहित्य में प्राप्त है [वायु. ९९.४१८ - ४२२] ;[भा. १२.२. २६ - ३१] ;[ब्रह्मांड. ३.७४.२३१ - २४०] ;[विष्णु. ४.२४. ३३] ;[मत्स्य. २७३.३९ - ४४] । इस शक को ‘ शककाल ’ एवं ‘ लौकिक काल ’ नामांतर भी प्राप्त थे । काश्मीर के ज्योतिर्विदों के अनुसार, कलिवर्ष २७ चैत्रशुक्ल प्रतिपदा के दिन इस शक का प्रारंभ हुआ था । इसी कारण इस शक में क्रमशः ४६ एवं ६५ मिलाने से परंपरागत शकवर्ष एवं ई. स. वर्ष पाया जाता है । अल्वेरुनी के ग्रंथ में [शक ९५२] ‘ सप्तर्षि शक ’ का निर्देश प्राप्त है, जहाँ उस समय यह शक मुलतान, पेशावर आदि उत्तर पश्चिमी भारत में प्रचलित होने का निर्देश प्राप्त है । आधुनिक काल में यह शक काश्मीर, एवं उसके परवर्ति प्रदेश में प्रचलित है । सुविख्यात ‘ राजतरंगिणी ’ ग्रंथ में भी इसी शक का उपयोग किया गया है ।
भारतीय युद्ध का कालनिर्णय n.  प्राचीन भारतीय इतिहास में भारतीय युद्ध एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है कि, जिसका कालनिर्णय करने से बहुत सारी घटनाएँ सुलभ हो सकती हैं । पुलकेशिन् (द्वितीय) के सातवीं शताब्दी के ऐहोल शिलालेख में भारतीय युद्ध का काल ३१०२ ई. पू. दिया गया है । सुविख्यात ज्योतिर्विद आर्यभट्ट के अनुसार कलियुग का प्रारंभ भी उसी समय तक किया गया है । किंतु पलीट के अनुसार, भारतीय युद्ध के कालनिर्णय की आर्यभट्ट की परंपरा काफी उत्तरकालीन एवं अनैतिहासिक है । वृद्धगर्ग, वराहमिहिर आदि अन्य ज्योतिर्विद एवं कल्हण जैसे इतिहासकार भारतीय युद्ध का काल कलियुग के पश्चात् ६५३ वर्ष, अर्थात् २४४९ ई. पू. मानते हैं । भारतीय ज्योतिषशास्त्र की इन दो परस्पर विरोधी परंपराओं से ये दोनों कालनिर्णय अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं । पौराणिक साहित्य में प्राप्त राजवंश एवं पीढीयों के आधार से भारतीय युद्ध का कालनिर्णय करने का सफल प्रयत्न पार्गिटर ने किया है । मगध देश के राजा महापद्यनंद से पीछे जाते हुए जनमेजयपौत्र अधिसीमकृष्ण तक छब्बीस पीढीयों की गणना कर, पार्गिटर ने भारतीय युद्ध का काल ९५० ई. पू. सुनिश्चित किया है [पार्गि. १७९ - १८३] । किन्तु पौराणिक साहित्य एवं महाभारत में प्राप्त निर्देशों के अनुसार परिक्षित् राजा का जन्म, एवं महापद्म नंद राजा के राज्यारोहण के बीच १०१५ वर्ष बीत चुके थे । महापद्म नंद का राज्यारोहण का वर्ष ३८२ ई. पू. माना जाता है । इसी हिसाब से भारतीय युद्ध का काल १०१५ + ३८२ = १३९७ इ. पू. सिद्ध होता है । इसी काल में पौराणिक राजवंशों के ९५ पीढीयों के काल में १७१० वर्षौ का काल मिलाये जाने पर वैवस्वत मनु का काल निश्चित होता है । यह काल निश्चित करने से ययाति, मांधातृ, कार्तवीर्य अर्जुन, सगर, राम दाशरथि आदि का काल सुनिश्चित किया जा सकता है ।
कई प्रमुख शक n.  सप्तर्षि शक के अतिरिक्त पौराणिक साहित्य में कई अन्य शकों का निर्देश पाया जाता है, जिनमें निम्नलिखित शक प्रमुख माने जाते हैं : -
परशुराम शक n.  इस शक का प्रारंभ शालिवाहन शक वर्ष ७४७ में हुआ । इसकी परिगणना, एक हजार साल का एक चक्र, इस हिसाब से होती है । इस प्रकार इस शक का चतुर्थ चक्र सांप्रत चालू है । सौर पद्धति के अनुसार इस शक का परिगणन किया जाता है ।दक्षिण भारत के केरल प्रांत में मंगलोर से लेकर कन्याकुमारी तक एवं तिनीवेल्ली जिले में यह पाया जाता है । इस शक का प्रारंभ केरल प्रांत में कन्या माह से, एवं तिनीवेल्ली जिले में सिंह माह से प्रारंभ होता है । ईसवी सन में से ८२५ साल कम करने से परशुराम शक का हिसाब हो सकता है ।
विक्रम संवत् n.  इस संवत् का प्रारंभ ई. स. पू. ५७माना जाता है । इस संवत् का प्रचार, गुजरात एवं बंगाल के अतिरिक्त बाकी सारे उत्तर भारत में पाया जाता है । नर्मदा नदी के उत्तर प्रदेश में इस संवत् का प्रारंभ चैत्र माह में होता है, एवं माह का परिगणन पौर्णिमा तक रहता है । गुजरात प्रदेश में इस संवत् का वर्ष कार्तिक माह में शुरु होता है ।
कलियुग संवत् n.  (भारतीय युद्ध संवत् अथवा युधिष्ठिर संवत्) - इस संवत् का प्रारंभ ई. पू. ३१०२ में माना जाता है । स्कंद पुराण में यह प्रयुक्त है ।

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