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सत्संग-लाभ

प्रथम पाद - सत्संग-लाभ

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


राजा भगीरथका भृगुजीके आश्रमपर जाकर स त्संग - लाभ करना तथा

हिमालयपर घोर तपस्या करके भगवान् ‍ विष्णु और शिवकी

कृपासे गंगा जीको लाकर पितरोंका उद्धार करना

नारदजीने पूछा --

मुने ! हिमालय पर्वतपर जाकर राजा भगीरथने क्या किया ? वे गंगाजीको किस प्रकार ले आये ? यह मुझे बतानेकी कृपा करें।

श्रीसनकजीने कहा --

मुने ! महाराज भगीरथ जटा और चीर धारण करके तपस्याके लिये हिमालयपर जाते हुए गोदावरी नदीके तटपर पहूँचे। वहाँ उन्होंने महान् ‍ वनमें महर्षि भृगुका उत्तम आश्रम देखा , जो कृष्णसार मृगोंसे भरा हुआ था और चमरी गायोंका समुदाय अपनी पूँछ हिलाकर मानो उस आश्रमको चँवर डुला रहा था। मालती , जूही , कुन्द , चम्पा और अश्वत्थ -- उस आश्रमको विभूषित कर रहे थे। वहाँ चारों ओर भाँति - भाँतिके फूल खिले हुए थे। ऋषि - मुनियोंका समुदाय वहाँ निवास करता था। वेदों और शास्त्रोंका महान् ‍ घोष आकाशमें गूँज रहा था। महर्षि भृगुजी परब्रह्यके स्वरूपका प्रतिपादन कर रहे थे। शिष्योंकी मण्डली उन्हें घेरकर बैठी थी। तेजमें वे भगवान् ‍ सूर्यके समान थे। राजा भगीरथने वहाँ उनका दर्शन किया और उनके चरण - ग्रहण आदि विधिसे उन ब्राह्यणशिरोमणिकी वन्दना की ; साथ ही भृगुजीने भी सम्मानपूर्वक राजाका आतिथ्य - सत्कार किया। महर्षि भृगुके द्वारा आतिथ्य - सत्कार हो जानेपर राजा भगीरथ उन मुनीश्वरसे हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोले।

भगीरथने कहा --

भगवन् ‍ ! आप सब धर्मोंके ज्ञाता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् हैं। मैं संसार - बन्धनके भयसे डरकर आपसे मनुष्योंके उद्धारका उपाय पूछता हूँ। सर्वज्ञ मुनिसत्तम ! यदि मैं आपका कृपापात्र होऊँ तो जिस कर्मसे भगवान संतुष्ट होते हैं , वह मुझे बताइये।

भृगुने कहा --

राजन् ‍ ! तुम्हारी अभिलाषा क्या है , यह मुझे मालूम हो गयी। तुम पुण्यात्माओंमें श्रेष्ठ हो। अन्यथा अपने समस्त कुलका उद्धार करनेकी योग्यता तुममें कैसे आती। भूपाल ! जो कोई भी क्यों न हो , यदि वह शुभ कर्मके द्वारा अपने कुलके उद्धारकी इच्छा रखता है तो उसे नररूपमें साक्षत् ‌‍ नारायण ही समझना चाहिये। राजेन्द्र ! जिस कर्मसे प्रसन्न होकर देवेश्वर भगवान् ‍ विष्णु मनुष्योंको अभीष्ट फल प्रदान करते हैं , वह बतलाता हूँ , एकाग्रचित्त होकर सुनो। राजन् ! तुम सदा सत्यका पालन करो और अहिंसाधर्ममें स्थित रहो। सदा सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगे रहकर कभी भी झूठ न बोलो। दुष्टोंका साथ छोड़ दो। सत्यङ्रका सेवन करो। पुण्य करो और दिन - रात सनातन भगवान् ‍ विष्णुका स्मरण करते रहो। भगवान् महविष्णुकी पूजा करो और उत्तम शान्तिका आश्रय लो। द्वादशाक्षर अथवा अष्टाक्षर - मन्त्र जपो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।

भगीरथने पूछा -

मुने ? सत्य कैसा कहा गया है ? सम्पूर्ण भूतोंका हित क्या है ? अनृत ( झूठ ) किसे कहते हैं ? दुष्ट कैसे होते हैं ? कैसे लोगोंको साधु कहा गया है ? तथा पुण्य कैसा होता है ? भगवान् विष्णुका स्मरण कैसे करना चाहिये और उनकी पूजा कैसे होती है ? मुने ! शान्ति किसे कहा गया है ? अष्टाक्षर - मन्त्र क्या है ? तत्त्वार्थके ज्ञाता महर्षि ! द्वादशाक्षर - मन्त्र क्या होता है ? मुझपर बड़ी भारी कृपा करके इन सबकी व्याख्या करें।

भृगुने कहा -

महाप्राज्ञ ! बहुत अच्छा , बहुत अच्छा। तुम्हारी बुद्धि बहुत उत्तम है। भूपाल ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा है , वह सब तुम्हें बतलाता हूँ। विद्वान् ‌‍ पुरुष यथार्थ कथनको ’ सत्य ’ कहते हैं। धर्मपरायण मनुष्योंको इस प्रकार सत्य बोलना चाहिये कि धर्मका विरोध न होने पाये। इसलिये साधु पुरुष देश , काल आदिका विचार करके स्वधर्मका विरोध न करते हुए जो यथार्थ वचन बोलते हैं , वह ’ सत्य ’ कहलाता है। राजन् ‌‍! सम्पूर्ण जीवोंमेंसे किसीको भी जो क्लेश न देना है , उसीका नाम ’ अहिंसा ’ है। वह सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली बतायी गयी है। धर्मके कार्यमें सहायता पहुँचाना और अधर्मके कार्यका विरोध करना - इसे धर्मज्ञ पुरुष सम्पूर्ण लोकोंका हितसाधन कहते हैं। धर्म और अधर्मका विचार न करके केवल अपनी इच्छाके अनुसार कहना असत्य है। उसे सब प्रकारके कल्याणका विरोधी समझना चाहिये। राजन् ‌‍! जिनकी बुद्धि सदा कुमार्गमें लगी रहती है , जो सब लोगोंसे द्वेष रखनेवाले और मूर्ख हैं , उन्हें सम्पूर्ण धर्मोंसे बहिष्कृत दुष्ट पुरुष जानना चाहिये। जो लोग धर्म और अधर्मका विवेक करके वेदोक्त मार्गपर चलते हैं तथा सब लोगोंके हितमें संलग्न रहते हैं . उन्हें ’ साधु ’ कहा गया है। जो भगवान्‌‍की भक्तिमें सहायक है , साधु पुरुष जिसका पालन करते हैं तथा जो अपने लिये भी आनन्ददायक है , उसे ’ धर्म ’ कहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् ‌‍ भगवान् ‌‍ विष्णुका स्वरूप है , विष्णु सबके कारण हैं और मैं भी विष्णु हूँ - यह जो ज्ञान है , उसीको ’ भगवान् ‌‍ विष्णुका स्मरण ’ समझना चाहिये। भगावन् ‌‍ विष्णु सर्वदेवमय हैं , मैं विधिपूर्वक उनकी पूजा करूँगा ; इस प्रकारसे जो श्रद्धा होती है , वह उनकी ’ भक्ति ’ कही गयी है। श्रीविष्णु सर्वभूतस्वरूप हैं , सर्वत्र परिपूर्ण सनातन परमेश्वर हैं ; इस प्रकार जो भगवान्‌‍के प्रति अभेद बुद्धि होती है , उसीका नाम ’ समता ’ है। राजन् ‌‍! शत्रु और मित्रोंके प्रति समान भाव हो , सम्पूर्ण इन्द्रियाँ अपने वशमें हों और दैववश जो कुछ मिल जाय , उसीमें संतोष रहे तो इस स्थितिको ’ शान्ति ’ कहते हैं। राजन् ‌‍! इस प्रकार तुम्हारे इन सभी प्रश्नोंकी व्याख्या हो गयी। ये सब विषय मनुष्योंको सिद्ध प्रदान करनेवाले हैं और समस्त पापराशियोंका वेगपूर्वक नाश करनेके साधन हैं। अष्टाक्षर - मन्त्र सब पापोंका नाश करनेवाला है। राजेन्द्र ! मैं उसका स्वरूप तुम्हें बतलाता हूँ। वह समस्त पुरुषार्थोंका एकमात्र साधन , भगवान् ‌‍ विष्णुको प्रसन्न करनेवाला तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है। ’ ॐ नमो नारायणाय ’ यही अष्टाक्षर - मन्त्र है। इसका जप करना चाहिये। महाराज ! ’ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ’ यह द्वादशाक्षर - मन्त्र कहा गया है। राजन् ‌‍! इन अष्टाक्षर और द्वादशाक्षर - दोनों मन्त्रोंका समान फल है। इनकी प्रवृत्ति और निवृत्ति - इन दोनों मार्गवालोंके लिये समता बतायी गयी है। इन दोनों मन्त्रोंके जपके लिये भगवान्‌‍का ध्यान इस प्रकार करना चाहिये। भगवान् ‌‍ नारायण अपने हाथोंमें शङ्रख और चक्र धारण किये शान्तभावसे विराजमान हैं। रोग और शोक उनका कभी स्पर्श नहीं करते। उनके वामाङ्कमें लक्ष्मीजी विराज रही हैं। वे सर्वशाक्तिमान् ‌‍ प्रभू सबको अभयदान कर रहे हैं। उनके मस्तकपर किरीट और कानोंमे कुण्डल शोभा पाते हैं। वे नाना प्रकारके अलंकारोंसे सुशोभित हैं। गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला धारण किये हुए हैं। उनका वक्षःस्थल श्रीवत्सचिहृसे चिह्लित है। वे पीताम्बरधारी भगवान् ‌‍ देवताओं और दानवोंसे भी वन्दित हैं। उनका आदि और अन्त नहीं है। वे सम्पूर्ण मनोवाञ्छत फलोंके देनेवाले हैं। इस प्रकार भगवान्‌‍का ध्यान करना चाहिये। वे अन्तर्यामी , ज्ञान्स्वरूप , सर्वव्यापी तथा सनातन हैं। राजा भगीरथ ! तुमने जो कुछ पूछा , वह सब इस रूपमें बताया गया है। तुम्हारा कल्याण हो। अब सुखपूर्वक तपस्यामें सिद्धि प्राप्त करनेके लिये जाओ।

महर्षि भृगुके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथ बहुत प्रसन्न हुए और तपस्याके लिये वनमें गये। हिमालय पर्वतपर पहुँचकर वहाँके मनोहर पावन प्रदेशमें स्थित नादेश्वर महाक्षेत्रमें उन्होंने अत्यन्त दुष्कर तपस्या की। राजा तीनों काल स्नान करते। कन्द , मूल तथा फल खाकर रहते और उसीसे आये हुए अतिथियोंका सत्कार भी करते थे। वे प्रतिदिन होममें तत्पर रहते। सम्पूर्ण भूतोंके हितैषी होकर शान्तभावसे स्थित थे। पत्र , पुष्य , फल और जलसे वे तीनों काल श्रीहरिकी आराधना करते थे। इस प्रकार अत्यन्त धैर्यपूर्वक भगवान् ‌‍ नारायणका ध्यान करते हुए वे सूखे पत्ते खाकर रहने लगे। तदनन्तर परम धर्मात्मा राजा भगीरथने प्राणायाम करते हुए श्वास बंद करके तपस्या करना प्रारम्भ किया। जिनका कहीं अन्त नहीं है या जो किसीसे पराजित नहीं होते , उन्हीं श्रीनारायणदेवका चिन्तन करते हुए वे साठ हजार वर्षोंतक श्वास रोके रहे। उस समय राजाकी नासिकाके छिद्रसे भयंकर अग्नि प्रकट हुई। उसे देखकर सब देवता थर्रा उठे और उस अग्निसे संतप्त होने लगे। फिर वे देवेश्वरगण क्षीरसागरके उत्तर तटपर जहाँ जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं , पहुँचकर भगवान् ‌‍ महाविष्णुकी शरणमें गये और शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले देवदेवेश्वर भगवान्‌‍की इस प्रकार स्तुति करने लगे।

देवताओंने कहा -

जो जगत्‌‍के एकमात्र स्वामी तथा स्मरण करनेवाले भक्तजनोंकी समस्त पीड़ा दूर कर देनेवाले हैं , उन परमेश्वर श्रीविष्णुको हम नमस्कार करते हैं , ज्ञानी पुरुष उन्हें स्वभावतः शुद्ध , सर्वत्र परिपूर्ण एवं ज्ञानस्वरूप कहते हैं। श्रेष्ठ योगीजन जिनका सदा ध्यान करते हैं , जो परमात्मा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर धारण करके देवताओंका कार्य सिद्ध करते हैं , यह सम्पूर्ण जगत् ‌‍ जिनका स्वरूप है तथा जो जगत्‌के आदिस्वामी हैं , उन भगवान् ‌‍ पुरुषोत्तमको हम प्रणास करते हैं। जिनके नामोंका संकीर्तन करनेमात्रसे दुष्ट पुरुषोंके भी समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ; जो सबके शासक , स्तवन करने योग्य एवं पुराणपुरुष हैं , उन भगवान् ‌‍ विष्णुको हम पुरुषार्थसिद्धिके लिये नमस्कार करते हैं। सूर्य आदि जिनके तेजसे प्रकाशित होते हैं और कभी भी जिनकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते , जो सम्पूर्ण देवताओंके अधीश्वर तथा पुरुषार्थरूप हैं , उन कालस्वरूप श्रीहरिको हम नमस्कार करते हैं। जिनकी आज्ञाके अनुसार ब्रह्याजी इस जगत्‌‍की सृष्टि करते हैं , रुद्र संहार करते हैं और ब्राह्यणलोग श्रुतियोंके द्वारा सब लोगोंको पवित्र करते हैं , जो गुणोंके भण्डार और सबके उपदेशक गुरु हैं , उन आदिदेव भगवान् ‌ विष्णुकी हम शरणमें आये हैं। जो सबसे श्रेष्ठ , वरण करने योग्य तथा मधु और कैटभको मारनेवाले हैं , देवता और दैत्य भी जिनकी चरणपादुकाका पूजन करते हैं , जो श्रेष्ठ भक्तोंकी मनोवाञ्छित कामनाओंकी सिद्धिके कारण हैं तथा एकमात्र ज्ञानद्वारा जिनके तत्त्वका बोध होता है , उन दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवान्‌‍को हम प्रणाम करते हैं। जो आदि , मध्य और अन्तसे रहित , अजन्मा , अनादि , अविद्या नामक अन्धकारका ना करनेवाले , सत् ‌, चित् ‌‍, परमानन्दघन स्वरूप तथा रूप आदिसे रहित हैं , उन भगवान् ‌‍ परमेश्वरको हम प्रणाम करते हैं। जो जलमें शयन करनेके कारण नारायण , सर्वव्यापी होनेसे विष्णु , अविनाशी होनेसे अनन्त और सबके शासक होनेसे ईश्वर कहलाते हैं , ब्रह्या तथा रुद्र आदि जिनकी सेवामें लगे रहते हैं , जो जज्ञके प्रेमी , जज्ञ करनेवाले , विशुद्ध , सर्वोत्तम एवं अव्यय हैं , उन भगवान् ‌‍ विष्णुको हम नमस्कार करते हैं , ।

इन्द्र आदि देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् ‌ महाविष्णुने देवताओंको राजर्षि भगीरथका चरित्र बतलाया। नारदजी ! फिर उन सबको आश्वासन तथा अभय देकर निरञ्जन भगवान् ‌‍ विष्णु उस स्थानपर गये , जहाँ राजर्षि भगीरथ तपस्या करते थे। सम्पूर्ण जगत्‌के गुरु शड्रख - चक्रधारी सच्चिदानन्दस्वरूष भगवान् ‌‍ श्रीहरिने राजा भगीरथको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। राजाने देखा , सामने कमलनयन भगवान्‌‍ विराजमान हैं। उनकी प्रभासे सम्पूर्ण दिग्दिगन्त उद्भासित हो रहा है। उनके अङ्रोंकी कान्ति अलसीके फूलकी भाँति श्याम है। कानोंमें झलमलाते हुए कुण्डल उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। चिकने घुँघराले केशोंवाले मुखारविन्दसे सुशोभित हैं। मस्तकपर जगमगाता हुआ मुकुट उनके स्वरूपको और भी प्रकाशपूर्ण किये देता है। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिहृ और कौस्तुभमणि है। वे वनमालासे विभूषित हैं। उनकी भुजाएँ बड़ी - बड़ी हैं। अङ्र - अङ्रसे उदारता टपक रही है। उनके चरणारविन्द लोकेश ब्रह्याजीके द्वारा पूजित हैं। भगवान्‌‍की यह झाँकी देखकर राजा भगीरथ भूतलपर द्ण्डकी भाँति पड़ गये। उनका कंधा झुक गया और वे बार - बार प्रणाम करने लगे। उनका हृदय अत्यन्त हर्षसे भरा हुआ था। शरीरमें रोमाञ्च हो आया था और वे गद्‌‍गद कण्ठसे ’ कृष्ण , कृष्ण , श्रीकृष्ण ’- इस प्रकार उच्चारण कर रहे थे। अन्तर्यामी जगद्‌‍गुरु भगवान् ‌‍ विष्णु भगीरथपर प्रसना थे। उन भूतभावन भगवान्‌ने करुणासे भरकर कहा।

श्रीभगवान् ‌‍ बोले -

महाभाग भगीरथ ! तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध होगा , तुम्हारे पूर्व पितामह मेरे लोकमें जायँगे। राजन् ‌‍ ! भगवान् ‌‍ शिव मेरे दूसरे स्वरूप हैं। तुम यथाशक्ति स्तुति - पाठ करके उनका स्तवन करो। वे तुम्हारा सम्पूर्ण मनोरथ तत्काल सिद्ध करेंगे। जिन्होंने अपनी शरणमें आये हुए चन्द्रमाको स्वीकार किया है , वे बड़े शरणागतवत्सल हैं। अतः स्तोत्रोंद्वारा स्तवन करने योग्य उन सुखदाता ईशानकी तुम आराधना करो। अनादि अनन्तदेव महेश्वर सम्पूर्न कामनाओं तथा फलोंके दाता हैं। राजन् ‌‍! तुमसे भलीभाँति पूजित होकर वे शीघ्र तुम्हारा कल्याण करेंगे।

मुनिश्रेष्ठ नारद ! तीनों लोकोंके स्वामी देवदेवेश्वर भगवान् ‌‍ अच्युत ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये। फिर वे राजा भगीरथ भी उठे। द्विजश्रेष्ठ ! राजाके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे - क्या यह सब स्वप्र था अथवा साक्षात् ‌‍ सत्यका ही दर्शन हुआ है। अब मैं क्या करूँ ? इस प्रकार भ्रान्तचित्त हुए राजा भगीरथसे आकाशवाणीने उच्च स्वरसे कहा -’ राजन् ‌‍! यह सब अवश्य ही सत्य है। तुम चिन्ता न करो। ’ आकाशवाणी सुनकर भूपाल भगीरथने हम सबके कारण तथा समस्त देवताओंके स्वामी भगवान् ‌‍ शिवका भक्तिपूर्वक स्तवन किया।

भगीरथने कहा -

मैं प्रणतजनोंकी पीड़ाका नाश करनेवाले विश्वनाथ शिवको प्रणाम करता हूँ। जो प्रमाणसे परे तथा प्रमाणरूप हैं , उन भगवान् ‌‍ ईशानकी मैं नमस्कार करता हूँ। जो जगत्‌‍स्वरूप होते हुए भी नित्य और अजन्मा हैं , संसारकी सृष्टि , संहार और पालनके एकमात्र कारण हैं , उन भगवान् ‌‍ शिवको मैं प्रणाम करता हूँ। योगीश्वर , महात्मा जिनका आदि , मध्य और अन्तसे रहित अनन्त , अजन्मा एवं अव्ययरूपसे चिन्तन करते हैं , उन पुष्टिवर्धक शिवको मैं प्रणाम करता हूँ। पशुपति भगवान् ‌‍ शिवको नमस्कार है।

चैतन्यस्वरूप भगवान् ‌‍ शंकरको नमस्कार है। असमर्थोंको सामर्थ्य देनेवाले शिवको नमस्कार है। समस्त प्राणियोंके पालक भगवान् ‌‍ भूतनाथकी नमस्कार है। प्रभो ! आप हाथमें पिनाक धारण करते हैं। आपको नमस्कार है। त्रिशूलसे शोभित हाथवाले आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण भूत आपके स्वरूप हैं , आपको नमस्कार है। जगत‌‍के अनेक रूप आपके ही रूप हैं आप निर्गुण परमात्माको नमस्कार है। ध्यानस्वरूप आपको नमस्कार है। ध्यानके साक्षी आपको नमस्कार है ध्यानमें सम्यक् ‌‍ रूपसे स्थित आपको नमस्कार है तथा ध्यानसे ही अनुभवमें आनेवाले आपको नमस्कार है। जो अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित होनेवाले , महात्मा , परमज्योतिःस्वरूप तथा सनातन हैं , तत्त्वज्ञ पुरुष जिन्हें मानवनेत्रोंको प्रकाश देनेवाले सूर्य कहते हैं , जो उमाकान्त , नन्दिकेश्वर , नीलकण्ठ , सदाशिव , मृत्युञ्जय , महादेव , परात्पर एवं विभु कहे जाते हैं , परब्रह्य और शब्दब्रह्य जिनके स्वरूप हैं , उन समस्त जगत्‌‍के कारणभूत परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। प्रभो ! आप जटाजूट धारण करनेवाले हैं , आपको नमस्कार है। जिनसे समुद्र , नदियाँ , पर्वत , गन्धर्व , यक्ष , असुर , सिद्ध - समुदाय , स्थावर - जङ्रम , बड़े - छोटे , सत् ‌‍- असत् ‌‍ तथा जड और चेतन - सबका प्रादुर्भाव हुआ है , योगी पुरुष जिनके चरणारविन्दोंमें नमस्कार करते हैं , जो सबके अन्तरात्मा , रूपहीन एवं ईश्वर हैं , उन स्वतन्न एक तथा गुणियोंके गुणस्वरूप भगवान् ‌‍ शिवको मैं बार - बार प्रणाम करता हूँ , बार - बार मस्तक झुकाता हूँ।

सब लोगोंका कल्याण करनेवाले महादेव भगवान् ‌‍ शंकर इस प्रकार अपनी स्तुति सुनकर , जिनकी तपस्या पूर्ण हो चुकी है , उन राजा भगीरथके आगे प्रकट हुए। उनके पाँच मुख और द्स भुजाएँ हैं। उन्होंने अर्धचन्द्रका मुकुट धारण कर रखा है। उनके तीन नेत्र हैं। एक - एक अङ्रसे उदारता टपकती है। उन्होंने सर्पका यज्ञोपवीत पहन रखा है। उनका वक्षःस्थल विशाल तथा कान्ति हिमालयके समान उज्ज्वल है। गजचर्मका वस्त्र पहने हुए उन भगवान् ‌‍ शिवके चरणारविन्द समस्त देवताओंद्वारा पूजित हो रहे हैं। नारदजी ! भगवान् ‌‍ शिवकी इस रूपमें उपस्थित देख राजा भगीरथ उनके चरणोंके आगे द्ण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े। फिर सहसा उठकर उन्होंने भगवान्‌‍के सम्मुख हाथ जोड़े और उनके महादेव तथा शंकर आदि नामोंका कीर्तन करते हुए प्रणाम किया। राजाकी भक्ति जानकर चन्द्रशेखर भगवान् ‌‍ शिव उनसे बोले -’ राजन् ‌‍! मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम इच्छानुसार वर माँगो। तुमने स्तोत्र और तपस्याद्वारा मुझे भलीभाँति संतुष्ट किया है। ’ भगवान्‌‍ शिवके ऐसा कहनेपर राजाका हृदय प्रसन्नतासे खिल उठा और वे हाथ जोड़कर जगदीश्वर शिवसे इस प्रकार बोले।

भगीरथने कहा -

महेश्वर ! यदि मैं वरदान देकर अनुगृहीत करने योग्य होऊँ तो हमारे पितरोंकी मुक्तिके लिये आप हमें गंगा प्रदान करें।

भगवान् ‌‍ शिव बोले -

राजन् ‌‍! मैंने तुम्हें गंगा दे दी। इससे तुम्हारे पितरोंको उत्तम गति प्राप्त होगी और तुम्हें भी परम मोक्ष मिलेगा।

यों कहकर भगवान् ‌‍ शिव अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् ‌‍ जटाजूट्धारी भगवान् ‌‍ शिवकी जटासे नीचे आकर जगत्‌‍को एकमात्र पावन करनेवाली गंगा समस्त जगत्‌‍को पवित्र करती हुई राजा भगीरथके पीछे - पीछे चलीं। मुने ! तबसे परम निर्मल पापहारिणी गंगादेवी तीनों लोकोंमें ’ भागीरथी ’ के नामसे विख्यात हुईं। सगरके पुत्र पूर्वकालमें अपने ही पापके कारण जहाँ दग्ध हुए थे , उस स्थानको भी सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाने अपने जलसे प्लावित कर दिया। सगर - पुत्रोंकी भस्म ज्यों ही गंगाजलसे प्रवाहित हुई , त्यों ही वे निषपाण हो गये। पहले जो नरकमें डूबे हुए थे , उनका गंगाने उद्धार कर दिया। पूर्वकालमें यमराजने अत्यन्त कुपित होकर जिन्हें बड़ी भारी पीड़ा दी थी , वे ही गंगाजीके जलसे ( उनके शरीरकी भस्म ) आप्लावित होनेके कारण उन्हीं यमराजके द्वारा पूजित हुए। सगर - पुत्रोंको निष्पाप समझकर यमराजने उन्हें प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके प्रसन्नतापूर्वक कहा -’ राजकुमारी ! आपलोग अत्यन्त भयंकर नरकसे उद्धार पा गये। अब इस विमानपर बैठकर भगवान् ‌‍ विष्णुके धाममें जाइये। ’ यमराजके ऐसा कहनेपर वे पापरहित महात्मा दिव्या देह धारण करके भगवान् ‌‍ विष्णुके लोकमें चले गये। भगवान् ‌‍ विष्णुके चरणोंके अग्रभागसे प्रकट हुई गंगाजीका ऐसा प्रभाव है। महापातकोंका नाश करनेवाली गंगा सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात हैं। यह पवित्र आख्यान महापातकोंका नाश करनेवाला है। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है , वह गंगास्नानका फल पाता है। जो इस पवित्र आख्यानको ब्राह्यणके सम्मुख कहता है , वह भगवान् ‌‍ विष्णुके पुनरावृत्तिरहित धाममें जाता है।

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Last Updated : March 12, 2011

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