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संन्यास-आश्रमके धर्म

प्रथम पाद - संन्यास-आश्रमके धर्म

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


श्रीसनकजी कहते हैं -

मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं गृहस्थका सदाचार बतलाता हूँ , सुनो । उन सदाचारोंके पालन करनेवाले पुरुषोंके सब पाप नष्ट हो जाते हैं , इसमें संशय नहीं है । ब्रह्यन् ‌‍ ! गृहस्थ पुरुष ब्राह्यमुहूर्त ( सूर्योदयसे पूर्वकी चार घड़ी )- में उठकर जो पुरुषार्थ ( मोक्ष ) साधनकी विरोधिनी न हो , ऐसी जीविकाका चिन्तन करे । दिनमें या संध्याके समय कानपर जनेऊ चढ़ाकर उत्तरकी ओर मुँह करके मल - मूत्रका त्याग करना चाहिये । यदि रातमें इसका अवसर आवे तो दक्षिणकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये । द्विज सिरको वस्त्रसे ढककर और भूमिपर तृण बिछाकर शौचके लिये बैठे और उसके होनेतक मौन रहे । मार्गमें , गोशालामें , नदीके तटपर , पोखरे और घरके समीप , देवालयके निकट , बगीचेमें , जोते हुए खेतमें , चौराहेपर ; ब्राह्यण , गाय , गुरुजन तथा स्त्रियोंके समीप ; भूसी , अंगार , खप्पर या खोपड़ीमें तथा जलके भीतर - इत्यादि स्थानोंमें मल - मूत्र न करे । शौच ( शुद्धि )- के लिये सदा यत्र करना चाहिये । शौच ही द्विजत्वका मूल है । जो शौचाचारसे रहित है उसके सब कर्म निष्फल होते हैं । शौच दो प्रकारका कहा गया है - एक बाह्य शौच और दूसरा आभ्यन्तर - शौच । मिट्टी और जलसे जो ऊपर - ऊपरकी शुद्धि की जाती है , वही बाह्य - शौच है और भीतरके भावोंकी जो पवित्रता है उसे ही आभ्यन्तर - शौच कहा गया है । मलत्यागके पश्चात्‌‍ उठकर शुद्धिके लिये मिट्टी लावे । चूहे आदिकी खोदी हुई , फारसे उलाटी हुई तथा बावड़ी , कुँआ और पोखरेसे निकाली हुई मिट्टी शौचके लिये न लावे । अच्छी मिट्टी लेकर यत्नसे शुद्धिका सम्पादन करे । लिङ्रमें एक बार या तीन बार मिट्टी लगाकर धोये और अण्डकोषोंमें दो बार मिट्टी लगाकर जलसे धोये । मनीषी पुरुषोंने मूत्रत्यागके पश्चात् ‌‍ इस प्रकार शुद्धिका विधान किया है । लिङ्रमें एक बार , गुदाद्वारमें पाँच बार , बायें हाथमें द्स बार , फिर दोनों हाथोंमें सात बार तथा दोनों पैरोंमें तीन बार पृथक् ‌‍ मिट्टी लगानी और धोनी चाहिये । यह मल - त्यागके पश्चात ‌‍ उसके लेप और दुर्गन्धको दूर करनेके लिये शुद्धिका विधान किया गया है । ब्रह्यचारियोंके लिये इससे दुगुने शौचका विधान है । वानप्रस्थियोंके लिये तिगुना और संन्यासियोंके लिये गृहस्थकी अपेक्षा चौगुना शौच बताया गया है । मुनिश्रेष्ठ ! कहीं रास्तेमें हो तो आधा ही पालन करे । रोगीके लिये या बड़ी भारी विपत्ति पड़नेपर भी नियमका बन्धन नहीं रहता । स्त्रियों और उपनयनरहित द्विजकुमारोंके लिये भी लेप और दुर्गन्ध दूर होनेतक ही शौचकी सीमा है । उसके बाद किसी श्रेष्ठ वृक्षकी छिलकेसहित लकड़ी लेकर उससे दाँतुन करे । बेल , असना , अपामार्ग ( ऊँगा या चिरचिरा ) नीम , आम और अर्क आदि वृक्षोंका दाँतुन होना चाहिये । पहले उसे जलसे धोकर निम्राङ्रित मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे -

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।

ब्रह्य प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥

( ना० पूर्व० २७।२५ )

’ वनस्पते ! तुम हमें आय , यश , बल , तेज , प्रजा , पशु , धन , वेद , बुद्धि तथा धारणाशक्ति प्रदान करो । ’

कनिष्ठिकाके अग्रभागके समान मोटा और दस अंगुल लंबा दाँतुन ब्राह्यण करे । क्षत्रिय नौ अंगुल , वैश्य आठ अंगुल , शूद्र और स्त्रियोंको चार अंगुलका दाँतुन करना चाहिये । दाँतुन न मिलनेपर बारह कुल्लोंसे मुख शुद्धि कर लेनी चाहिये । उसके बाद नदी आदिके निर्मल जलमें स्त्रान करे । वहाँ तीर्थोंको प्रणाम करके सूर्यमण्डलमें भगवान् ‌‍ नारायणका आवाहन करे । फिर गन्ध आदिसे मण्डल बनाकर उन्हीं भगवान् ‌‍ जनार्दनका ध्यान करे । नारदजी ! तदनन्तर पवित्र मन्त्रों और तीर्थोंका स्मरण करते हुए स्त्रान करना चाहिये -

गङ्रे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् ‌‍ संनिधिं कुरु ॥

पुष्कराद्यानि तीर्थानि गङ्राद्याः सरितस्तथा ।

आगच्छन्तु महाभागाः स्त्रानकाले सदा मम ॥

अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची ह्यवन्तिका ।

पुरी द्वारावती ज्ञेयाः सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥

( ना० पूर्व० २७।३३ - ३५ )

’ गङ्रा , यमुना , गोदावरी , सरस्वती , नर्मदा , सिन्धु तथा कावेरी नामवाली नदियाँ इस जलमें निवास करें । पुष्कर आदि तीर्थ और गङ्रा आदि परम सौभाग्यवती नदियाँ सदा मेरे स्त्रानकालमें यहाँ पधारें । अयोध्या , मथुरा , हरद्वार , काशी , काञ्ची , अवन्ती ( उज्जैन ) और द्बारकापुरी - इन सातोंको मोक्षदायिनी समझना चाहिये । ’

तदनन्तर श्वासको रोके हुए पानीमें डुबकी लगावे और अघमर्षण सूक्तका जप करे । फिर स्त्रानाङ्र - तर्पण करके आचमनके पश्चात् ‌‍ सूर्यभगवान्‌‍का ध्यान करके जलसे बाहर निकलकर बिना फटा हुआ शुद्ध धौतवस्त्र धारण करे । ऊपरसे दूसरा वस्त्र ( चादर ) भी ओढ़ ले । तत्पश्चात् ‌‍ कुशासनपर बैठकर संध्याकर्म प्रारम्भ करे । ब्रह्यन् ‌‍ ! ईशानकोणकी ओर मुख करके गायत्री - मन्त्रसे आचमन करे , फिर ’ ऋतञ्च ’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करके विद्वान् ‌‍ पुरुष दुबारा आचमन करे । तदनन्तर अपने चारों ओर जल छिड़कर अपने - आपको उस जलसे आवेष्टित करे । अपने शरीरपर भी जल सींचे । फिर प्राणायामका संकल्प लेकर प्रणवका उच्चारण करनेके बाद प्रणवसहित सातों व्याहृतियोंके तथा गायत्री - मन्त्रके ऋषि , छन्द और देवताओंका स्मरण करते हुए ( विनियोग करते हुए ) भूः आदि सात व्याह्रतियोंद्वारा मस्तकपर जलसे अभिषेक करे । तत्पश्चात् ‌ मन्त्रज्ञ पुरुष पृथक् ‌‍- पृथक् ‌‍ करन्यास और अङ्रन्यास करे । पहले ह्रदयमें प्रणवका न्यास करके मस्तकपर भूःका न्यास करे । फिर शिखामें भूवःका , कवचमें स्वःका , नेत्रोंमें भूर्भुवःका तथा दिशाओंमें भूर्भुवः स्वः - इन तीनों व्याहृतियोंका और अस्त्रका न्यास करे । तीन बार हथेलीपर ताल देना ही अस्त्रन्यास है ।

तदनन्तर प्रातःकाल कमलके आसनपर विराजमान संध्या ( गायत्री )- देवीका आवाहन करे । सबको वर देनेवाली तीन अक्षरोंसे युक्त ब्रह्यवादिनी गायत्रीदेवी ! तुम वेदोंकी माता तथा ब्रह्ययोनि हो ! तुम्हें नमस्कार है । मध्याहृकालमें वृषभपर आरूढ़ हुई , श्वेतवस्त्रसमावृत सावित्रीका आवाहन करे । जो रुद्रयोनि तथा रुद्रवादिनी है । सायंकालके समय गरुड़पर चढ़ी हुई पीताम्बरसे आच्छादित विष्णुयोनि एवं विष्णुवादिनी सरस्वतीदेवीका आवाहन करना चाहिये । प्रणव , सात व्याह्रति , त्रिपदा गायत्री तथा शिरःशिखा मन्त्र - इन सबका उच्चारण करते हुए क्रमशः पूरक , कुम्भक और विरेचन करे । प्राणायाममें बायीं नासिकाके छिद्रसे वायुको धीरे - धीरे अपने भीतर भरना चाहिये । फिर क्रमशः कुम्भक करके विरेचनद्वारा उसे बाहर निकालना चाहिये । तत्पश्चत् ‌‍ प्रातःकालकी संध्यामें ’ सूर्यश्च मा ’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर दो बार आचमन करे । मध्याह्रकालमें ’ आपः पुनन्तु ’ इत्यादिसे और सायं संध्यामें ’ अग्रिश्च मा ’ इत्यादि मन्त्रसे आचमन करना चाहिये । इसके बाद ’ आपो हि ष्ठा मयो भुवः ’ इत्यादि तीन ऋचाओंद्वारा मार्जन करे । फिर -- सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु । दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान्द्वेष्टि । यं च वयं द्विष्मः ।

- इस मन्त्रको पढ़ते हुए हथेलीमें जल लेकर नासिकासे उसका स्पर्श कराये और भीतरके काम - क्रोधादि शत्रु उस जलमें आ गये , ऐसी भावना करके दूर फेंक दे । इस प्रकार शत्रुवर्गको दूर भगाकर ’ द्रुपदादिव मुमुचानः ’ इत्यादि मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलको अपने सिरपर डाले । उसके बाद ’ ऋतञ्च सत्यम् ‌‍ ’ इत्यादि मन्त्रसे अघमर्षण करके ’ अन्तश्चरसि ’ इत्यादि मन्त्रद्वारा एक ही बार जलका आचमन करे । देवर्षे ! तदनन्तर सूर्यदेवको विधिपूर्वक गन्ध , पुष्प और जलकी अञ्जलि दे । प्रातःकाल स्वस्तिकाकार अञ्चलि बाँधकर भगवान् ‌‍ सूर्यका उपस्थान करे । मध्याहृकालमें दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर और सायंकाल बाँहें नीचे करके उपस्थान करे । इस प्रकार प्रातः आदि तीनों समयके लिये पृथक् ‌‍- पृथक् ‌‍ विधि है । नारदजी ! सूर्योपस्थानके समय ’ उदुत्यं जातवेदसम् ‌‍ ’, चित्रं देवानामुदगादनीकम् ‌‍ ’, ’ तच्चक्षुर्देवहितम ‌‍ ’ इन तीन ऋचाओंका जप करे । इसके सिवा सूर्यदेवता - सम्बन्धी अन्य मन्त्रोंका , शिव - सम्बन्धी मन्त्रींका तथा विष्णुदेवता - सम्बन्धी मन्त्रोंका भी जप किया जा सकता है । सूर्योपस्थानके बाद ’ तेजोऽसि ’ तथा ’ गायत्र्यस्येकपदी ’ इत्यादि मन्त्रोंको पढ़कर भगवान् ‌‍ सविताके तेजःस्वरूप गायत्रीकी अथवा परमात्म - तेजकी सुतति - प्रार्थना करे । तदनन्तर पुनः तीन बार अङ्रन्यास करके ब्रह्या , रुद्र तथा विष्णुकी स्वरूपभूता शक्तियोंका चिन्तन करे ( प्रातःकाल ब्रह्याकी , मध्याह्रमें रुद्रकी और सायंकाल विष्णुकी शक्तिरुपसे क्रमशः गायत्री , सावित्री और सरस्वतीका चिन्तन करना चाहिये । उनका क्रमशः ध्यान इस प्रकार है -- )

ब्रह्याणी चतुराननाक्षवलयं कुम्भं करैः स्त्रुक्स्त्रुवौ बिभ्रणा त्वरुणेन्दुकान्तिवदना ऋग्‌‍रूपिणी बालिका ।

हंसारोहणकेलिखण्‌‍खण्‌‍मणेर्बिम्बार्चिता भूषिता गायत्री परिभाविता भवतु नः संपत्समृद्धयै सदा ॥

( ना० पूर्व० ।२७।५५ )

’ प्रातः कालमें गायत्रीदेवी ऋग्वेदस्वरूपा बालिकाके रूपमें विराज रही हैं । ये ब्रह्याजीकी शक्ति हैं । इनके चार मुख हैं । इन्होंने अपने हाथोंमें अक्षवलय , कलश , स्त्रुक् ‌‍ और स्त्रुवा धारण कर रखा है । इनके मुखकी कान्ति अरूण चन्द्रमाके समान कमनीय़ है । ये हंसपर चढ़नेकी क्रीड़ा कर रही हैं । उस समय इनके मणिमय आभूषण खनखन करने लगते हैं । मणिके बिम्बोंसे ये कूजित और विभूषित हैं । ऐसी गायत्रीदेवी हमारे ध्यानकी विषय होकर दैवी सम्पत्ति बढ़ानेमें सहायक हों । ’

रुद्राणी नवयौवना त्रिनयना वैयाघ्रचर्माम्बरा खट्‌‍वाङ्रत्रिशिखाक्षसूत्रवलयाऽभीतिः श्रियै चास्तु नः ।

विद्युद्दामजटाकलापविलसद्‌‍बालेन्दुमौलिर्मुदा सावित्री वृषवाहना सिततनुर्ध्येया यजूरूपिणी ॥

( ना० पूर्व० ।२७।५६।

’ मध्याह्रकालमें वही गायत्री ’ सावित्री ’ नाम धारण करती है । ये रुद्रकी शक्ति हैं । नूतन यौवनसे सम्पन्न हैं । इनके तीन नेत्र हैं । व्याघ्रका चर्म इन्होंने वस्त्रके रूपमें धारण कर रखा है । इनके हाथोंमें खट्‌‍वाङ्र , त्रिशूल , अक्षवलय और अभयकी मुद्रा है । तेजोमयी विद्युत्‌‍के समान देदीप्यमान जटामें बालचन्द्रमाका मुकुट शोभा पा रहा है । ये आनन्दमें मग्र हैं । वृषभ इनका वाहन है । शरीरका रंग ( कपूरके समान ) गौर है और यजुर्वेद इनका स्वरूप है । इस रूपमें ध्यान करने योग्य़ सावित्री हमोर ऐश्वर्यकी वृद्धि करें । ’

ध्येया सा च सरस्वती भगवती पीताम्बरालड्कृता श्यामा श्यामतनुर्जश परिलसद् ‌‍ गात्राञ्चिता वैष्णवी ।

तार्क्ष्यस्था मणिनूपुराङ्रदलसद्‌‍ग्रैवेयभूषोज्ज्वला हस्तालड्कृतशड्‌‍खचक्रसुगदापद्या श्रियै चास्तु नः ॥

( ना० पूर्व० २७।५७ )

’ सायंकालमें वही गायत्री विष्णुशक्ति भगवती सरस्वतीका रूप धारण करती हैं । उनके श्रीअङ्र है । शरीरका एक - एक अवयव श्याम है । विभिन्न अङ्रोंमें जरावस्थाके लक्षण प्रकट होकर उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं । वे गरुड़पर बैठी हैं । मणिमय नूपुर , भुजबंद और सुन्दर हार , हमेल आदि भूषणोंसे उनकी स्वाभाविक प्रभा और बढ़ गयी है । उनके हाथोंमें शङ्रख , चक्र और उत्तम गदा तथा पद्म सुशोभित हैं । इस रूपमें ध्यान करने योग्य सरस्वतीदेवी हमारी श्रीवृद्धि करें । ’

इस प्रकार ध्यान करके गायत्री - मन्त्रका जप करे । प्रातः और मध्याह्रकालमें खड़े होकर तथा साय़ंकालमें बैठकर भक्तिभावसे गायत्रीके ध्यानमें ही मनको लगाये हुए जप करना चाहिये । प्रति समयकी संध्योपासनामें गायत्रीदेवीका एक हजार जप उत्तम , एक सौ जप मध्य्म तथा कम - से - कम दस बार जप साधारण माना गया है । आरम्भमें प्रणव फिर ’ भूर्भुवःस्वः ’ उसके बाद ’ तत्सवितुः ’ इत्यादि त्रिपदा गायत्री - यही जपने योग्य़ गायत्री - मन्त्रका स्वरूप है । मुने ! ब्रह्यचारी , वानप्रस्थ और यतिके द्वारा जो गायत्री - मन्त्रका जप होता है , उसमें छः प्रणव लगावे अथवा आदि - अन्तमें प्रणव लगाकर मन्त्रको उसमें सम्पुटित कर दे । परंतु गृहस्थके लिये केवल आदिमें एक प्रणव लगानेका नियम है । ऐसा ही मन्त्र उसके लिये जपने योग्य है । तदनन्तर यथाशक्ति जप करके उसे भगवान् ‌‍ सूर्यको निवेदित करे । फिर गायत्री तथा सूर्यदेवताके लिये एक - एक अञ्जलि जल छोड़े । तत्पश्चत ‌‍ ’ उत्तरे शिखरे देवि ’ इत्यादि मन्त्रसे गायत्रीदेवीका विसर्जन करते हुए कहे -’ देवि ! श्रीब्रह्या , शिव तथा भगवान् ‌‍ विष्णुकी अनुमति लेकर सादर पधारो । ’ इसके बाद दिशाओं और दिग्देवताओंको हाथ जोड़कर प्रणाम करनेके अनन्तर प्रातःकाल आदिका दूसरा कर्म भी विधिपूर्वक सम्पन्न करे । देवर्षे ! गृहस्थ पुरुष तो प्रातःकाल और मध्याह्लकालमें स्त्रान करे । परंतु वानप्रस्थी तथा संन्यासीको तीनों समय स्त्रान करना चाहिये । जो रोग आदिसे कष्ट पा रहे हों उनके लिये तथा पथिकोंके लिये एक ही बार स्त्रानका विधान किया गया है । मुनीश्वर ! संध्योपासनके अनन्तर द्विज हाथमें कुश धारण करके ब्रह्ययज्ञ करे । यदि दिनमें बताये गये कर्म प्रमादवश न किये गये हों तो रातके पहले पहरमें उन्हें क्रमशः पूर्ण कर लेना चाहिये । जो धूर्त बुद्धिवाला द्विज आपत्तिकाल न होनेपर भी संध्योपासन नहीं करता , उसे सब धर्मोंसे भ्रष्ट एवं पाखण्डी समझना चाहिये । जो कपटपूर्ण झूठी युक्ति देनेमें चतुर होनेके कारण संध्या आदि कर्मोंको अनावश्यक बताते हुए उनका त्याग करता है , उसे महापातकियोंका सिरमौर समझना चाहिये ।

संध्योपासनाके बाद विधिपूर्वक देवपूजा तथा बलिवैश्वदेव - कर्म करना चाहिये । उस समय आये हुए अतिथिका अन्न आदिसे भलीभँति सत्कार करना चाहिये । उनके आनेपर मीठे वचन बोलना चाहिये । उन्हें घरमें ठहरनेके लिये स्थान देकर अन्न - जल अथवा कन्द - मूल - फलसे उनकी पूजा करनी चाहिये । जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौटता है , वह उसे अपना पाप दे बदलेमें उसका पुण्य लेकर चला जाता है । जिसका नाम और गोत्र पहलेसे ज्ञात न हो और जो दूसरे गाँवसे आया हो , ऐसे व्यक्तिको विद्वान् ‌‍ पुरुष ’ अतिथि ’ कहते हैं । उसका श्रीविष्णुकी भाँति पूजन करना चाहिये । ब्रह्यन् ‌‍ ! प्रतिदिन पितरोंकी तृप्तिके उद्देश्यसे अपने ग्रामके निवासी एक श्रोत्रिय एवं वैष्णव ब्राह्यणको अन्न आदिसे तृप्त करना चाहिये । जो पञ्चमहायज्ञोंका त्यागी है . उसे विद्वान् ‌‍ लोग ब्रह्यहत्यारा कहते हैं । इसलिये प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक पञ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये । देवयज्ञ , भूतयज्ञ , पितृयज्ञ , मनुष्ययज्ञ तथा ब्रह्ययज्ञ - इनको पञ्चयज्ञ कहते हैं । भृत्य और मित्रादिवर्गके साथ स्वयं मौन होकर भोजन करना चाहिये । द्विज कभी अभक्ष्य पदार्थको न खाय । सुपात्र व्यक्तिका त्याग न करे , उसे अवश्य भोजन करावे । जो अपने आसनपर पैर रखकर अथवा आधा वस्त्र पहनकर भोजन करता है या मुखसे उगले हुए अन्नको खाता है , विद्वान , पुरुष उसे ’ शराबी ’ कहते हैं । जो आधा खाये हुए मोदक , फल और प्रत्यक्ष नमकको पुनः खाता है , वह गोमांसभोजी कहा जाता है । द्विजको चाहिये कि वह पानी पीते , आचमन करते तथा भक्ष्य पदार्थोंका भोजन करते समय मुखसे आवाज न करे । यदि वह उस समय मुँहसे आवाज करता है तो नरकगामी होता है । मौन होकर अन्नकी निन्दा न करते हुए हितकर अन्नका भोजन करना चाहिये । भोजनके पहले एक बार जलका आचमन करे और इस प्रकार कहे ’ अमृतोपस्तरणमसि ’- ( हे अमृतरूप जल ! तू भोजनका आश्रय अथवा आसन है ) । फिर भोजनके अन्तमें एक बार जल पीये और कहे - ’ अमृतापिधानमसि ’ ( हे अमृत ! तू भोजनका आवरण - उसे ढकनेवाला है ) । पहले प्राण , अपान , व्यान , समान , उदान - इनके निमित्त अन्नकी पाँच आहुतियाँ अपने मुखमें डालकर आचमन कर ले । उसके बाद भोजन आरम्भ करे । विप्रवर नारदजी ! इस प्रकार भोजनके पश्चात् ‌‍ आचमन करके शास्त्रचिन्तनमें तत्पर होना चाहिये । रातमें भी आये हुए अतिथिका यथाशक्ति भोजन , आसन तथा शयनसे अथवा कन्द - मूल - फ्ल आदिसे सत्कार करे । मुने ! इस प्रकार गृहस्थ पुरुष सदा सदाचारका पालन करे । जिस समय वह सदाचारको त्याग देता है , उस समय प्रायश्चित्तका भागी होता है ।

साधुशिरोमणे ! अपने शरीरको सफेद बाल आदि दोषोंसे युक्त देखकर अपनी पत्नीको पुत्रोंके संरक्षणमें छोड़ दे । स्वयं घरसे विरक्त होकर वनमें चला जाय अथवा पत्नीको भी साथ ही लेता जाय । वहाँ तीनों समय स्त्रान करे । नख , दाढ़ी , मूँछ और जटा धारण किये रहे । नीचे भूमिपर सोये । ब्रह्यचर्यका पालन करे और पञ्चमहायज्ञोंके अनुष्ठानमें तत्पर रहे । प्रतिदिन फल - मूलका भोजन करे और स्वाध्यायमें लगा रहे । भगवान् ‌‍ विष्णुके भजनमें संलग्र होकर सब प्राणियोंके प्रति दयाभावा रखे । गाँवमें पैदा हुए फल - मूलको त्याग दे । प्रतिदिन आठ ग्रास भोजन करे तथा रातमें उपवासपूर्वक रहे । वानप्रस्थ - आश्रममें रहनेवाला द्विज उबटन , तेल , मैथुन , निद्रा और आलस्य त्याग दे । वानप्रस्थी पुरुष शड्‌‍ख , चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् ‌‍ नारायणका चिन्तन तथा चान्द्रायण आदि तपोमय ब्रत करे । सर्दी -- गरमी आदि द्वन्द्वोंको सहन करे । सदा अग्रिकी सेवा ( अग्रिहोत्र )- में संलग्र रहे । जब मनमें सब वस्तुओंकी ओरसे वैराग्य हो जाय तभी संन्यास ग्रहण करे , अन्यथा वह पतित हो जाता है । संन्यासीको वेदान्तके अभ्यासमें तत्पर , शान्त , संयमी और जितेन्द्रिय , द्वन्द्वोंसे रहित तथा ममता और अहंकारसे शून्य रहना चाहिये । वह शम - दम आदि गुणोंसे युक्त तथा काम - क्रोधादि दोषोंसे दूर रहे । संन्यासी द्विज नग्र रहे या पुराना कौपीन पहने । उसे अपना मस्तक मुँड़ाये रहना चाहिये । वह शत्रु - मित्र तथा मान - अपमानमें समान भाव रखे । गाँवमें एक रात और नगरमें अधिक - से - अधिक तीन रात रहे । संन्यासी सदा भिक्षासे ही जीवन - निर्वाह करे । किसी एकके घरका अन्न खानेवाला न हो । जब चूल्हेकी आग बुझ जाय , घरके लोगोंका खाना - पीना हो गया हो , कोई बाकी न हो , उस समय किसी उत्तम द्विजके घरमें , जहाँ लड़ाई - झगड़ा न हो , भिक्षाके लिये संन्यासीको जाना चाहिये । संन्यासी तीनों काल स्त्रान और भगवान् ‌‍ नाराय़णका ध्यान करे । और मनको जीतकर इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए प्रतिदिन प्रणवका जप करता रहे । अगर कोई लम्पट संन्यासी कभी एक व्यक्तिका अन्न खाकर रहने लगे तो दस हजार प्रायश्चित्त करनेपर भी उसका उद्धार नहीं दिखायी देता । ब्रह्यन् ‌‍ ! यदि संन्यासी लोभवश केवल शरीरके ही पालन - पोषणमें लगा रहे तो उसे चाण्डालके समान समझना चाहिये । सभी वर्णों और आश्रमोंमें उसकी निन्दा होती है । संन्यासी अपने आत्मस्वरूप भगवान् ‌‍ नारायणका चिन्तन करे । जो रोग - शोकसे रहित , द्वन्द्वोंसे परे , ममताशून्य , शान्त , मायातीत , ईर्ष्यारहित , अव्यय , परिपूर्ण , सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञानमय , निर्मल , परम ज्योतिर्मय , सनातन , अधिकारी , अनादि , अनन्त जगत्‌‍की चिन्मयताके कारण गुणातीत तथा परात्पर परमात्मा हैं , उन्हींका नित्य ध्यान करना चाहिये । वह उपनिषद् ‌‍- वाक्योंका पाठ एवं वेदान्तशास्त्रके अर्थका विचार करता रहे । जितेन्द्रिय रहकर सदा सहस्त्रों मस्तकवाले भगवान् ‌ श्रीहरिका ध्यान करे । जो ईर्ष्या छोड़कर इस प्रकार भगवान्‌‍के ध्यानमें तत्पर रह्ता है , वह परमानन्दस्वरूप उत्कृष्ट सनातन ज्योतिको प्राप्त होता है । जो द्विज इस तरह क्रमशः आश्रमसम्बन्धी आचारोंका पालन करता है , वह परम धाममें जाता है । वहाँ जाकर कोई शोक नहीं करता । वर्ण और आश्रम - सम्बन्धी धर्मके पालनमें तत्पर एवं सब पापोंसे रहित भगवद्भक्त भगवान् ‌‍ विष्णुके परम धामको प्राप्त होते हैं ।

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Last Updated : May 05, 2013

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