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विष्णुके भजनका उपदेश

प्रथम पाद - विष्णुके भजनका उपदेश

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


नारदजीने कहा --

हे सर्वज्ञ महामुने ! सबके स्वामी देवदेव भगवान् ‌‍ जनार्दन जिस प्रकार संतुष्ट होते हैं , वह उपाय मुझे बताइये ।

श्रीसनकजी बोले -

नारदजी ! यदि मुक्ति चाह्ते हो तो सच्चिदानन्दस्वरूप परमदेव भगवान् ‌‍ नारायणका सम्पूर्ण चित्तसे भजन करो । भगवान् ‌‍ विष्णुकी शरण लेनेवाले मनुष्यको शत्रु मार नहीं सकते , ग्रह पीड़ा नहीं दे सकते तथा राक्षस उसकी ओर आँख उठाकर देख नहीं सकते । भगवान् ‌‍ जनार्दनमें जिसकी दृढ़ भक्ति है , उसके सम्पूर्ण श्रेय सिद्ध हो जाते हैं । अतः भक्त पुरुष सबसे बढ़कर है । मनुष्योंके उन्हीं पैरोंको सफल जानना चाहिये , जो भगवान् ‌‍ विष्णुके मन्दिरमें दर्शनके लिये जाते हैं । उन्हीं हाथोंको सफल समझना चाहिये , जो भगवान् ‌‍ विष्णुकी पूजामें तत्पर होते हैं । पुरुषोंके उन्हीं नेत्रोंको पूर्णतः सफल जानना चाहिये , जो भगवान् ‌‍ जनार्दनका दर्शन करते हैं । साधुपुरुषोंने उसी जिह्लाको सफल बताया है , जो निरन्तर हरिनामके जप और कीर्तनमें लगी रहती है । मैं सत्य कहता हूँ , हितकी बात कहता हूँ और बार - बार सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार बतलाता हूँ - इस असार संसारमें केवल श्रीहरिकी आराधना ही सत्य है । यह संसारबन्धन अत्यन्त दृढ़ है और महान् ‌‍ मोहमें डालनेवाला है । भगवद्भक्तिरूपी कुठारसे इसको काटकर अत्यन्त सुखी हो जाओ । वही मन सार्थक है , जो भगवान् ‌‍ विष्णुके चिन्तनमें लगता है , तथा वे ही दोनों कान समस्त जगत‌‍के लिये वन्दनीय हैं , जो भगवत्कथाकी सुधाधारासे परिपूर्ण रहते हैं । नारदजी ! जो आनन्दस्वरूप , अक्षर एवं जाग्रत ‌‍ आदि तीनों अवास्थाओंसे रहित तथा हृदयमें विराजमान हैं , उन्हीं भगवान् ‌‍ तुम निरन्तर भजन करो । मुनिश्रेष्ठ ! जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है - ऐसे लोग भगवान्‌‍के स्थान या स्वरूपका न तो वर्ण्न कर सकते हैं और न दर्शन ही । विप्रवर ! यह स्थावर - जंगमरूप जगत् ‌‍ केवल भावनामय है और बिजलीके समान चञ्च्ल है । अतः इसकी ओरसे विरक्त होकर भगवान् ‌‍ जनार्दनका भजन करो । जिनमें अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्यचर्य और अपरिग्रह विद्यमान हैं , उन्हींपर जगदीश्वर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं । जो सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है और ब्राह्मणोंके आदर - सत्कारमें तत्पर रहता है , उसपर जगदीश्वर भगवान् ‌‍ विष्णु प्रसन्न होते हैं । जो भगवान् ‌‍ और उनके भक्तोंकी कथामें प्रेम रखता है , स्वयं भगवान्‌‍की कथा कहता है , साधु - महात्माओंका संग करता है और मनमें अहङ्कार नहीं लाता , उसपर भगवान् ‌‍ विष्णु प्रसन्न रह्ते हैं । जो भूख - प्यास और लड़खड़ाकर गिरने आदिके अवसरोंपर भी सदा भगवान् ‌‍ विष्णुके नामका उच्चारण करता है , उसपर भगवान् ‌‍ अधोक्षज ( विष्णु ) प्रसन्न होते हैं । मुने ! जो स्त्री पतिको प्राणके समान समझकर उनके आदर - सक्तारमें सदा लगी रहती है , उसपर प्रसन्न हो जगदीश्वर श्रीहरि उसे अपना परम धाम दे देते हैं । जो ईर्ष्या तथा दोषदृष्टिसे रहित होकर अहङ्क्रारसे दूर रह्ते हैं और सदा देवाराधन किया करते हैं , उनपर भगवान् ‌‍ केशाव प्रसन्न होते हैं । अतः देवर्षे ! सुनो , तुम सदा श्रीहरिका भजन करो । शरीर मृत्युसे जुड़ा हुआ है । जीवन अत्यन्त चञ्चल है । धनपर राजा आदिके द्वारा बराब्र बाधा आती रहती है और सम्पत्तियाँ क्षणभरमें नष्ट हो जावेवाली हैं । देवर्षे ! क्या तुम नहीं देखते कि आधी आयु तो नींदसे ही नष्ट हो जाती है और कुछ आयु भोजन आदिमें समाप्त हो जाती है । आयुका कुछ भाग बचपनमें , कुछ विषय - भोगोंमें और कुछ बुढ़ापेमें व्यर्थ बीत जाता है । फिर तुम धर्मका आचरण कब करोगे ? बचपन और बुढ़ापेमें भगवान्‌की आराधना नहीं हो सकती , अतः अहङ्कार छोड़कर युवावस्थामें ही धर्मोंका अनुष्ठान करना चाहिये । मुने ! यह शरीर मृत्युका निवासस्थान और आपत्तियोंका सबसे बड़ा अड्डा है । शरीर रोगोंका घर है । यह मल आदिसे सदा दूषित रहता है । फिर मनुष्य इसे सदा रहनेवाला समझकर व्यर्थ पाप क्यों करते हैं । यह संसार असार है । इसमें नाना प्रकारके दुःख भरे हुए हैं । निश्चय ही यह मृत्युसे व्याप्त है , अतः इसपर विश्वास नहीं करना चाहिये । इसलिये विप्रवर ! सुनो , मैं यह सत्य कहता हूँ - देह - बन्धनकी निवृत्तिके लिये भगवान् ‌‍ विष्णुकी ही पूजा करनी चाहिये । अभिमान और लोभ त्यागकर काम - क्रोधसे रहित होकर सदा भगवान् ‌‍ विष्णुका भजन करो ; क्योंकि मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है ।

सत्तम ! ( अधिकांश ) जीवोंको कोटि सह्स्त्र जन्मोंतक स्थावर आदि योनियोंमें भटकनेके बाद कभी किसी प्रकार मनुष्य - शरीर मिलता है । साधु - शिरोमणे ! मनुष्य - जन्ममें भी देवाराधनकी बुद्धि , दानकी बुद्धि और योगसाधनाकी बुद्धिका प्राप्त होना मनुष्योंके पूर्वजन्मकी तपस्याका फल है । जो दुर्लभ मानव - शरीर पाकर एक बार भी श्रीहरिकी पूजा नहीं करता , उससे बढ़कर मूर्ख , जड़बुद्धि कौन है ? दुर्लभ मानव - जन्म पाकर जो भगवान् ‌‍ विष्णुकी पूजा नहीं करते , उन महामूर्ख मनुष्योंमें विवेक कहाँ है ? ब्रह्यन ‌‍ ! जगदीश्वर भगवान् ‌‍ विष्णु आराधना करनेपर मनोवाञ्छित फल देते हैं । फिर संसार - रूप अग्रिमें जला हुआ कौन मानव उनकी पूजा नहीं करेगा ? मुनिश्रेष्ठ ! विष्णुभक्त चाण्डाल भी भक्तिहीन द्विजसे बढ़कर है । अतः काम , क्रोध आदिको त्यागकर अविनाशी भगवान् ‌‍ नारायणका भजन करना चाहिये । उनके प्रसन्न होनेपर सब संतुष्ट होते हैं ; क्योंकि वे भगवान् ‌‍ श्रीहरि ही सबके भीतर विद्यमान हैं । जैसे सम्पूर्ण स्थावर - जङ्रम जगत् ‌‍ आकाशसे व्याप्त हैं , उसी प्रकार इस चराचर विश्वको भगवान् ‌‍ विष्णुने व्याप्त कर रखा है । भगवान् ‌‍ विष्णुके भजनसे जन्म और मृत्यु दोनोंका नाश हो जाता है । ध्यान , स्मरण , पूजन अथवा प्रणाममात्र कर लेनेपर भगवान् ‌‍ जनार्दन जीवके संसारबन्धनको काट देते हैं । ब्रह्यर्षे ! उनके नामका उच्चारण करनेमात्रसे महापातकोंका नाश हो जाता है और उनकी विधिपूर्वक पूजा करके तो मनुष्य मोक्षका भागी होता है । ब्रह्यन ‌ ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है , बड़ी अद्भुत बात है और बड़ी विचित्र बात है कि भगवान् ‌‍ विष्णुके नामके रहते हुए भी लोग जनम - मृत्युरूप संसारमें चक्कर काटते हैं । जबतक इन्द्रियाँ शिथिल नहीं होतीं और जबतक रोग - व्याधि नहीं सताते , तभीतक भगवान् ‌‍ विष्णुकी आराधना कर लेनी चाहिये । जीव जब माताके गर्भसे निकलता है , तभी मृत्यु उसके साथ हो लेती है । अतः सबको धर्मपालनमें लग जाना चाहिये । अहो ! बड़े कष्टकी बात है , बड़े कष्टकी बात है , बड़े कष्टकी बात है कि यह जीव इस शरीरको नाशवान् ‌‍ समझकर भी धर्मका आचरण नहीं करता ।

नारदजी ! बाँह उठाकर यह सत्य - सत्य और पुनः सत्य बात दुहरायी जाती है कि पाखण्ड्पूर्ण आचरणका त्याग करके मनुष्य भगवान् ‌‍ वासुदेवकी आराधनामें लग जाय । क्रोध मानसिक संतापका कारण है । क्रोध संसारबन्धनमें डालनेवाला है और क्रोध सब धर्मोंका नाश करनेवाला है । अतः क्रोधको छोड़ देना चाहिये । काम इस जन्मका मूल कारण है , काम पाप करानेमें हेतु है और काम यशका नाश करनेवाला है । अतः कामको भी त्याग देना चाहिये । मात्सर्य समस्त दु : ख - समुदायक कारण माना गया है , वह नरकोंका भी साधन है , अतः उसे भी त्याग देना चाहिये । मन ही मनुष्योंके बन्धन और मोक्षका कारण है । अतः मनको परमात्मामें लगाकर सुखी हो जाना चाहिये । अहो ! मनुष्योंका धैर्य कितना अद्भुत , कितना विचित्र तथा कितना आश्चर्यजनक है कि जगदिश्वर भगवान् ‌ विष्णुके होते गुए भी वे मद्से उन्मत्त होकर उनका भजन नहीं करते हैं । सबका धारण - पोषण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् ‌ अच्युतकी आराधना किये बिना संसार - सागरमें डूबे हुए मनुष्य कैसे पार जा सकेंगे ? अच्युत , अनन्त और गोविन्द - इन नामोंके उच्चारणरूप औषधसे सब रोग नष्ट हो जाते हैं । यह मैं सत्य कहता हूँ , सत्य कहता हूँ । जो लोगा नारायण ! जगन्नाथ ! वासुदेव ! जनार्दना ! आदि नामोंका नित्य उच्चारण किया करते हैं , वे सर्वत्र वन्दनीय हैं । देवर्षे ! दुष्ट चित्तवाले मनुष्योंकी कितनी भारी मूर्खता है कि वे अपने ह्रदयमें विराजमान भगवान् ‌ विष्णुको नहीं जानते हैं । मुनिश्रेष्ठ ! नारद ! सुनो , मैं बार - बार इस बातको दुह्रराता हूँ , भगवान् ‌ विष्णु श्रद्धालु जनोंपर ही संतुष्ट होते हैं , अधिक धन और भाई _ बन्धुवालोंपर नहीं । इहलोक और परलोकमें सुख चाहनेवाला मनुष्य सदा श्रीहरिकी पूजा करे तथा इहलोक और परलोंकमें दुःख चाहनेवाला मनुष्य दूसरोंकी निन्दामें तत्पर रहे । जो देवाधिदेव भगवान् ‌ जनार्दनकी भक्तिसे रहित हैं , ऐसे मनुष्योंके जन्मको धिक्कार है । जिसे सत्पात्रके लिये दान नहीं दिया जाता , उस धनको बारम्बार धिक्कार है । मुनिश्रेष्ठ ! जो शरीर भगवान् ‌ विष्णुको नमस्कार नहीं करता , उसे पापकी खान समझना चाहिये । जिसने सुपात्रको दान न देकर जो कुछ द्वव्य जोड़ रखा है , वह लोकमें चोरीसे रखे हुए धनकी भाँति निन्दनीय है । संसारी मनुष्य बिजलीके समान चञ्चल धन - सम्पत्तिसे मतवाले हो रहे हैं । वे जीवोंके अज्ञनमय पाशको दूर करनेवाले जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना नहीं करते हैं ।

दैवी और आसुरी सृष्टिके भेदसे सृष्टि दो प्रकारकी बतायी गयी है । जहाँ भगवान्‌की भक्ति ( और सदाचार ) है , वह दैवी सृष्टि है और जो भक्ति ( और सदाचार )- से हीन है , वह आसुरी सृष्टि है । अतः विप्रवर नारद ! सुनो . भगवान् ‌ विष्णुके भजनमें लगे हुए मनुष्य सर्वत्र श्रेष्ठ कहे गये हैं ; क्योंकि भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है । जो ईर्ष्या और द्वेषसे रहित , ब्राह्मणोंकी रक्षामें तत्पर तथा काम आदि दोषोंसे दूर है , उनपर भगवान् ‌ विष्णु संतुष्ट होते हैं ।

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Last Updated : May 06, 2013

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