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वेदमालिकी मुक्ति

प्रथम पाद - वेदमालिकी मुक्ति

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


श्रीसनकजी कहते हैं - नारद ! जिन्होंने योगके द्वारा काम , मद , लोभ , मोह और मात्सर्यरूपी छः शत्रुओंको जीत लिया है तथा जो अहङ्कारशून्य और शान्त हैं , ऐसे ज्ञानी महात्मा ज्ञानस्वरूप अविनाशी शीहरिका ज्ञानयोगके द्वारा यजन करते हैं । जो व्रत , दान , परस्या , यज्ञ तथा तीर्थस्त्रन करके विशुद्ध हो गये हैं , वे कर्मयोगी महापुरुष कर्मयोगके द्वारा भगवान् ‌ अच्युतका पूजन करते हैं । जॊ लोभी , दुर्व्यसनोंमें आसक्त और अज्ञानी हैं , वे जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना नहीं करते । वे मूढ़ अपनेको अजर - अमर समझते हैं ; किंतु वास्तवमें मनुष्योंमें वे कीड़ेके समान जीवन बिताते हैं । जो बिजलीकी लकीरके समान क्षणभरमें चमककर लुप्त हो जानेवाली है , ऐसी लक्ष्मीके मद्से उन्मत्त हो व्यर्थ अहंकारसे दूषित चित्तवाले मनुष्य सब प्रकारसे कल्याण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् ‌ विष्णुको पूजा नहीं करते हैं । जो भगवद्धर्मके पालनमें तत्पर , शान्त , श्रीहरिके चरणारविन्दोंकी सेवा करनेवाले तथा सम्पूर्ण जगत‌पर अनुग्रह रखनेवाले हैं , ऐसे तो कोई बिरले महात्मा ही दैवयोगसे उत्पन्न हो जाते हैं । जो मन , वाणी और क्रियाद्वारा भक्तिपूर्वक भगवान् ‌ विष्णुकी आराधना करता है , वह समस्त लोकोंमें इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं , जिसे पढ़्ने और सुननेवालोंके समस्त पापोंका नाश हो जाता है ।

नारदजी ! प्राचीन कालकी बाल है । रैवतमन्वन्तरमें वेदमालि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्यण रह्ते थे , जो वेदों और वेदाङ्रोंके पारदर्शी विद्वान् ‌ थे । उनके मनमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई थी । वे सदा भगवान्‌की पूजामें लगे रहते थे ; किंतु आगे चलकर वे स्त्री , पुत्र और मित्रोंके लिये धनोपार्जन करनेमें संलग्र हो गये । जो वस्तु नहीं बेचनी चाहिये , उसको भी वे बेचने लगे । उन्होंने रसका भी विक्रय किया । वे चाण्डाल आदिसे भी बात करत और उनका दिया हुआ दान ग्रहण करते थे । उन्होंने पैसे लेकर तपस्या और व्रतोंका विक्रय किया और तीर्थयात्रा भी वे दूसरोंके लिये ही करते थे । यह सब उन्होंने अपनी स्त्रीको संतुष्ट करनेके लिये ही किया । विप्रवर ! इसी तरह कुछ समय बीत जानेपर ब्राह्मणके दो जुड़्वे पुत्र हुए , जिनका नाम था - यज्ञमाली और सुमाली । वे दोनों बड़े सुन्दर थे । तदनन्तर पिता उन दोनों बालकोंका बड़े स्त्रेह और वात्सल्यसे अनेक प्रकारके साधनोंद्वारा पालन - पोषण करने लगे । वेदमालिने अनेक उपायोंसे यत्नपूर्वक धन एकत्र किया और एक दिन मेरे पास कितना धन है यह जाननेके लिये उन्होंने अपने धनको गिनना प्रारम्भ किया । धन संख्यामें बहुत ही अधिक था । इस प्रकार धनकी स्वयं गणना करके वे हर्षसे फूल उठे । साथ ही उस अर्थकी चिन्तासे उन्हें बड़ा विस्मय भी हुआ । वे सोचने लगे - मैंने नीच पुरुषोंसे दान लेकर , न बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय करके तथा तपस्या आदिको भी बेचकर यह प्रचुर धन पैदाअ किया है । किंतु मेरी अत्यन्त दुःसह तृष्णा अब भी शान्त नहीं हुई । अहो ! मैं तो समझता हूँ , यह तृष्णा बहुत बड़ा कष्ट है , समस्त क्लेशोंका कारण भी यही है । इसके कारण मनुष्य यदि समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेतो भी पुनः दूसरी वस्तुओंकी अभिलाषा करने लगता है । जरावस्था ( बुढ़ापे )- में आनेपर मनुष्यके केश पक जाते हैं , दाँत गल जाते हैं , आँख और कान भी जीर्ण हो जाते हैं ; किंतु एक तृष्णा ही तरुण - सी होती जाती है । मेरी सारी इन्द्रियाँ शिथिल हो रही हैं , बुढ़ापेने मेरे बलको भी नष्ट कर दिया , किंतु तृष्णा तरुणी हो और भी प्रबल हो उठी है । जिसके मनमें कष्टदायिनी तृष्णा मौजूद है , वह विद्वान ‌‍ होनेपर भी मूर्ख हो जाता है । परम शान्त होनेपर भी अत्यन्त क्रोधीहो जाता है और बुद्धिमान् ‌ होनेपर भी अत्यन्त मूढ़्बुद्धि हो जाता है । आशा मनुष्योंके लिये अजेय शत्रुकी भाँति भयंकर है । अतः विद्वान् ‌ पुरुष यदि शाश्वत सुख चाहे तो आशाको त्याग दे । बल हो , तेज हो , विद्या हो , यश हो , सम्मान हो , नित्य वृद्धि हो रही हो और उत्तम कुलमें जन्म हुआ हो तो भी यदि मनमें आशा , तृष्णा बनी हुई है तो वह बड़े वेगसे इन सबपर पानी फेर देती है । मैंने बड़े क्लेशसे यह धन कमाया है । अब मेरा शरीर भी गल गया । बुढ़ापेने मेरे बलको नष्ट कर दिया । अतः अब मैं उत्साहपूर्वक परलोक सुधारनेका यत्न करूँगा । विप्रवर ! ऐसा निश्चय करके वेदमालि धर्मके मार्गपर चलने लगे । उन्होंने उसी क्षण उस सारे धनको चार भागोंमें बाँटा । अपने द्वारा पैदा किये उस धनमेंसे दो भाग तो ब्राह्यणने स्वयं रख लिये और शेष दो भाग दोनों पुत्रोंको दे दिये । तदनन्तर अपने किये हुए पापोंका नाश करनेकी इच्छासे उन्होंने जगह - जगह पौसले , पोखरे , बगीचे और बहुत - से देवमन्दिर बनाये तथा गङ्राजीके तटपर अन्न आदिका दान भी किया ।

इस प्रकार सम्पूर्ण धनका दान करके भगवान् ‌ विष्णुके प्रति भक्तिभावसे युक्त हो वे तपस्याके लिये नर - नारायणके आश्रम बदरीवनमें गये । वहाँ उन्होंने एक अत्यन्त रमणीय आश्रम देखा , जहाँ बहुत - से ऋषि - मुनि रहते थे । फल और फूलोंसे भरे उए वृक्षसमूह उस आश्रमकी शोभा बढ़ा रहे थे । शास्त्र - चिन्तनमें तत्पर भगवत्सेवापरायण तथा परब्रह्न परमेश्वरकी स्तुतिमें संलग्र अनेक वृद्ध महर्षि उस आश्रमकी श्रीवृद्धि कर रहे थे । वेदमालिने वहाँ जाकर जानन्ति नामवाले एक मुनिका दर्शन किया , जो शिष्योंसे घिरे बैठे थे और उन्हें परब्रह्म तत्त्वका उपदेश कर रहे थे । वे मुनि महान् ‌ तेजके पुञ्ज - से जान पड़ते थे । उनमें शम , दम आदि सभी गुण विरायमान थे । राग आदि दोषोंका सर्वथा अभाव था । वे सूखे पत्ते खाकरा रहा करते थे । वेदमालिने मुनिके देखकर उन्हें प्रणाम किया । मुनि जानन्तिने कन्द , मूल और फल आदि सामग्रियोंद्वारा नारायण - बुद्धिसे अतिथि वेदमालिका पूजन किया । आतिथ्य - सत्कार हो जानेपर वेदमालिने हाथ जोड़ विनयसे मस्तक झुकाकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षिसे कहा - भगवान् ‌ ! मैं कृतकृत्य हो गया । आज मेरे सब पाप दूर हो गये । महागाग ! आप विद्वान् ‌‍ हैं । ज्ञान देकर मेरा उद्धार कीजिये । ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ जानन्ति बोले - ब्रह्नन ‌‍ ! तुम प्रतिदिन सर्वश्रेष्ठ भगवान् ‌‍ विष्णुका भजन करो । सर्वशक्तिमान् ‌ श्रीनारायणका चिन्तन करते रहो । दूसरोंकी निन्दा और चुगली कभी न करो । महामते ! सदा परोपकारमें लगे रहो । भगवान् ‌ विष्णुकी पूजामें मन लगाओ और मूर्खोंए मिलना - जुलना छोड़ दो । काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद और मात्सर्य छोड़कर लोकको अपने आत्माके समान देखो - इससे तुम्हें शान्ति मिलेगी । ईर्ष्या , दोषदृष्टि तथा दूसरेकी निन्दा भूलकर भी न करो । पाखण्डपूर्ण आचार , अहङ्कार और क्रूरताका सर्वथा त्याग करो । सब प्राणियोंपर दया तथा साधु पुरुषोंकी सेवा करते रहो । अपने किये हुए धर्मोंको पूछनेपर भी दूसरोंपर प्रकट्न करो । दूसरोंको अत्याचार करते देखो , यदि शक्ति हो तो उन्हें रोको , लापरवाही न करो । अपने कुटुम्बका विरोध न करते हुए सदा अतिथियोंका स्वागत - सत्कार करो । पत्र , पुष्प , फल , दूर्वा अथवा पल्लवोंद्वारा निष्कामभावसे जगदीश्वर भगवान् ‌‍ नारायणकी पूजा करो । देवताओं , ऋषियों तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करो । विप्रवर ! विधिपूर्वक अग्रिकी सेवा भी करते रहो । देवमन्दिरमें प्रतिदिन झाडू लगाया करो और एकाग्रचित्त होकर उसकी लिपाई - पुताई भी किया करो । देवमन्दिरकी दीवारमें जहाँ - कहीं कुछ टूट - फूट गया हो , उसकी मरम्मत कराते रहो । मन्दिरमें प्रवेशका जो मार्ग हो उसे पताका और पुष्प आदिसे सुशोभित करो तथा भगवान् ‌‍ विष्णुके गृहमें दीपक जलाया करो । प्रतिदिन यथाशक्ति पुराणकी कथा सुनो । उसका पाठ करो और वेदान्तका स्वाध्याय करते रहो । ऐसा करनेपर तुम्हें परम उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा । ज्ञानसे समस्त पापोंका नि्श्चय ही निवारण एवं मोक्ष हो जाता है । जानन्ति मुनिके इस प्रकार उपदेश देनेपर परम बुद्धिमान ‌ वेदमालि उसी प्रकार ज्ञानके साधनमें लगे रहे । वे अपने - आपमें ही परमात्मा भगवान् ‌‍ अच्युतका दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए । मैं ही उपाधिरहित स्वयंप्रकाश निर्मल ब्रह्म हूँ - ऐसा निश्चय करनेपर उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई ।

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Last Updated : May 06, 2013

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