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तिथियोंका निर्णय

प्रथम पाद - तिथियोंका निर्णय

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


श्रीसनकजी कहते हैं -

ब्रह्मन् ‌‍ ! श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहे हुए जो व्रत जो व्रत , दान और अन्य वैदिक कर्म हैं वे यदि अनिर्णित ( अनिश्चित ) तिथियोंमें किये जायँ तो उनका कोई फल नहीं होता ।एकादशी , अष्टमी , षष्ठी , पूर्णिमा , चतुर्दशी , अमावास्या और तृतीया - ये पर - तिथिसे विद्ध मानी जाती हैं । पूर्व - तिथिसे संयुक्त होनेपर ये व्रत आदिमें ग्राह्य नहीं होती हैं । कोई - कोई आचार्य कृष्णपक्षमें सप्तमी , चतुर्दशी , तृतीया और नवमीको पूर्वतिथिसे विद्ध होनेपर भी श्रेष्ठ कहते हैं । परंतु सम्पूर्ण व्रत आदिमें शुक्लपक्ष ही उत्तम माना गया है और अपराह्लकी अपेक्षा पूर्वाह्लको व्रतमें ग्रहण करने योग्य काल बताया गया है ; क्योंकि वह उससे अत्पन्त श्रेष्ठ है । रात्रि - व्रतमें सदा वही तिथि ग्रहण करनी चाहिये जो प्रदोषकालतक मौजूद रहे । दिनके व्रतमें दिनव्यापिनी तिथियाँ ही व्रतादि कर्म करनेके लिये पवित्र मानी गयी हैं । इसी प्रकार रात्रि - व्रतोंमें तिथियोंके साथ रात्रिका संयोग बड़ा श्रेष्ठ माना गया है । श्रवण द्वादशीके व्रतमें सूर्योदयव्यापिनी द्वादशी ग्रहण करनी चाहिये । सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणमें जबतक ग्रहण लगा रहे , तबतककी तिथि जप आदिमें गहण करने योग्य़ है ।

अब सम्पूर्ण संक्रान्तियोंमें होनेवाले पुण्यकालका वर्णन किया जाता है । सूर्यकी संक्रान्तियोंमें स्त्रान , दान और जप आदि करनेवालोंको अक्षय फल प्राप्त होता है । इन संक्रान्तियोंमें कर्ककी संक्रान्तिको दक्षिणायन संक्रम जानना चाहिये । कर्ककी संक्रान्तिमें विद्वान् ‌‍ लोग पहलेकी तीस घड़ीको पुण्यकाल मानते हैं । वृष , वृश्चिक , सिंह और कुम्भ राशिकी संक्रान्तियोंमें पहलेके आठ मुहूर्त ( सोलह घड़ी ) स्त्रान और जप आदिमें ग्राह्य हैं । और तुला तथा मेषकी संक्रान्तियोंमें पूर्व और परकी दस - दस घड़िय़ाँ स्त्रान आदिक्दे लिये श्रेष्ठ मानी गयी हैं । इनमें दिया हुआ दान अक्षय होता है । ब्रह्मन् ‌‍ ! कन्या , मिथुन , मीन और धनकी संक्रान्तियोंमें बादकी सोलह घटिकाएँ पुण्यदायक जाननी चाहिये । मकर - संक्रान्तिको उत्तरायण संक्रम कहा गया है । इसमें पूर्वकी चालीस और बादकी तीस घड़ियाँ स्त्रान - दान आदिदे लिये पवित्र मानी गयी हैं । विप्रवर ! यदि सूर्य और चन्द्रमा ग्रहण लगे हुए ही अस्त हो जायँ तो दूसरे दिन उनका शुद्ध मण्डल देखकर ही भोजन करना चाहिये ।

धर्मकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंने अमावा स्या दो प्रकारकी बतायी है - सिनीवाली और कुहू । जिसमें चन्द्रमाकी कला देखी जाती है , वह चतुर्दशीयुक्त अमावास्या सिनीवाली कही जाती है और जिसमें चन्द्रमाकी कलाका सर्वथा क्षय हो जाता है , वह चतुर्दशीयुक्त अमावास्या कुहू मानी गय़ी है । अग्रिहोत्री द्विजोंको श्राद्धकर्ममें सिनीवाली अमावास्याको ही ग्रहण करना चाहिये तथा स्त्रियों , शूद्रों और अग्रिरहित द्विजोंको कुहूमें श्राद्ध करना चाहिये । यदि अमावास्या तिथि अपराह्लकालमें व्याप्त हो तो क्षय ( मृत्युकर्म )- में पूर्व - तिथि और वृद्धि ( जन्म - कर्म - में उत्तर - तिथिको ग्रहण करना चाहिये । यदि अमावास्या मध्याह्लकालके बाद प्रतीत हो तो शास्त्रकुशल साधु पुरुषोंने उसे भूतविद्धा ( चतुर्दशीसे संयुक्त ) कहा है । जब तिथिका अत्यन्त क्षय होनेसे दूसरे दिन वह अपराह्लव्यापिनी न हो तब ( पूर्व दिनकी ) सायंकालव्यापिनी सिनीवाली तिथिको ही श्राद्धमें ग्रहण करना चाहिये । यदि तिथिकी अतिशय वृद्धि होनेपर वह दूसरे दिन अपराह्लकालतक चली गयी हो तो चतुर्दशी - विद्धा अमावास्याको त्याग दे और कुहूको ही श्राद्धकर्ममें ग्रहण करे । यदि अमावास्या तिथि एक मध्याहृसे लेकर दूसरे मध्याहृतक व्याप्त हो तो इच्छनुसार पूर्व या पर - दिनकी तिथिको ग्रहण करे ।

मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं सम्पूर्ण पर्वोंपर होनेवाले अन्वाधान ( अग्रिस्थापन )- का वर्णन करता हूँ । प्रतिपदाके दिन याग करना चाहिये । पर्वके अन्तिम चतुर्थांश और प्रतिपदाके प्रथम तीन अंशको मनीषी पुरुषोंने यागका समय बताया है । यागका आरम्भ प्रातःकाल करना चाहिये । विप्रवर ! यदि अमावास्या और पूर्णिमा दोनों मध्याहृकालमें व्याप्त हों तो दूसरे ही दिन यागका मुख्य काल नियत किया जाता है । यदि अमावास्या और पूर्णिमा दूसरे दिन सङ्रवकाल ( प्रातःकालसे छः घड़ी )- के बाद हो तो दूसरे ही दिन पुण्यकाल होता है । तिथियमें भी ऐसी ही व्यवस्था जाननी चाहिये । सभी लोगोंको दशमीरहित एकादशी तिथि व्रतमें ग्रहण करनी चाहिये । दशमीयुक्त एकादशी तीन जन्मोंके कमाये हुए पुण्यका नाश कर देती है । यदि एकादशी द्वादशीमें एक कला भी प्रतीत हो और सम्पूर्ण दिन द्वादशी हो और द्वादशी भी त्रयोदशीमें मिली हुई हो तो दूसरे दिनकी तिथि ( द्वादशी ) हो उत्तम मानी गयी है । यदि सम्पूर्ण दिन शुद्ध एकादशी हो और द्वादशीमें भी उसका संयोग प्राप्त होता हो तथा रात्रिके अन्तमें त्रयोदशी आ जाय तो उस विषयमें निर्णय बतलाता हूँ । पहले दिनकी एकादशी गृहस्थोंको करनी चाहिये और दूसरे दिनकी विरक्तोंको । यदि कलाभर भी द्वादशी न रहनेसे पारणाका अवसर न मिलता हो तो उस दशामें दशमीविद्धा एकादशीको भी उपवास - व्रत करना चाहिये । यदि शुक्ल या कृष्णपक्षमें दो एकादशियाँ हों तो पहली गृहस्थोंके लिये और दूसरी विरक्त यतियोंके लिये ग्राह्य मानी गयी है । यदि दिनभर दशमीयुक्त एकादशी हो और दिनकी समाप्तिके समय द्वादशीमें भी कुछ एकादशी हो तो सबके लिये दूसरे ही दिन ( द्वादशी ) व्रत बाताया गया है । यदि दूसरे दिन द्वादशी न हो तो पहले दिनकी दशमीविद्ध एकादशी भी व्रतमें ग्राह्य है । और यदि दूसरे दिन द्वादशी है तो पहले दिनकी दशमीविद्ध एकादशी भी निषिद्ध ही है ( इसलिये ऐसी परिस्थितिमें द्वादशीको व्रत करना चाहिये ) यदि एक ही दिन एकादशी , द्वादशी तथा रातके अन्तिम भागमें त्रयोदशी भी आ जाय तो त्रयोदशीमें पारणा करनेपर बारह द्वादशियोंका पुण्य होता है । यदि द्वादशीके दिन कलामात्र ही एकादशी हो और त्रयोदशीमें द्वादशीका योग हो या न हो तो गृहस्थोंके पहले दिनकी विद्धा एकादशी भी व्रतमें ग्रहण करनी चाहिये । और विरक्त साधुओं तथा विधवाओंको दूसरे दिनकी तिथि ( द्वादशी ) स्वीकार करनी चाहिये । यदि पूरे दिनभर शुद्ध एकादशी हो , द्वादशीमें उसका तनिक भी योग न हो तथा द्वादशी त्रयोदशीमें संयुक्त हो तो वहाँ कैसे व्रत रहना चाहिये - इसका उत्तर देते हैं - गुहस्थोंको पूर्वकी ( एकाद्शी ) तिथिमें व्रती रहना चाहिये और विरक्त साधुओंको दूसरे दिनकी ( द्वादशी ) तिथिमें । कोई - कोई विद्वान् ‌‍ ऐसा कहते हैं कि सब लोगोंको दूसरे दिनकी तिथिमें ही भक्तिपूर्वक उपवास करना चाहिये । जब एकादशी दशमीसे विद्ध हो , द्वादशीमें उसकी प्रतीति न हो और द्वादशी त्रयोदशीसे संयुक्त हो तो उस दशामें सबको शुद्ध द्वादशी तिथिमें उपवास करना चाहिये - इसमें संशय नहीं है । कुछ लोग पूर्व तिथिमें व्रत कहते हैं ; किंतु उनका मत ठीक नहीं है ।

जो रविवारको दिनमें , अमावास्या और पूर्णिमाको रातमें , चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको दिनमें तथा एकादशी तिथिको दिन और रात दोनोंमें भोजन कर लेता है , उसे प्रायश्चित्तरूपमें चान्द्रायण - व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये । सूर्यग्रहण प्राप्त होनेपर तीन पहर पहलेसे ही भोजन न करे । यदि कोई कर लेता है तो वह मदिरा पीनेवालेके समान होता है । मुनिश्रेष्ठ ! यदि अग्न्याधान और दर्शपौर्णमास आदि यागके बीच चन्द्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण हो जाय तो यज्ञकर्ता पुरुषोंको प्रायश्चित्त करना चाहिये । ब्रह्मन् ‌‍ ! चन्द्रग्रहणमें ’ द्शमे सोमः ’ ’ आप्यायस्व ’ तथा ’ सोमपास्ते ’ इन तीन मन्त्रोंसे हवन करें । और सूर्यग्रहण होनेपर हवन करनेके लिये ’ उदुत्यं जातवेदसम् ‌‍ ’,’ आसत्येन ’,’ उद्वयं तमसः ’- ये तीन मन्त्र बताये गये हैं । जो पण्डित इस प्रकार स्मृतिमार्गसे तिथिका निर्णय करके व्रत आदि करता है उसे अक्षय फल प्राप्त होता है । वेदमें जिसका प्रतिपादन किया गया है वह धर्म है । धर्मसे भगवान् ‌ विष्णु संतुष्ट होते हैं । अतः धर्मपरायन मनुष्य भगवान् ‌‍ विष्णुके परम धाममें जाते हैं । जो धर्माचरण करना चाहते हैं , वे साक्षात् ‌‍ भगवान् ‌‍ कृष्णके स्वरूप हैं । अतः संसाररूपी रोग उन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचाता ।

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Last Updated : May 05, 2013

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