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सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन

प्रथम पाद - सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन

` नारदपुराण’ में शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, और छन्द- शास्त्रोंका विशद वर्णन तथा भगवानकी उपासनाका विस्तृत वर्णन है।


सृष्टिक्रमका संक्षिप्त वर्णन ; द्वीप , समुद्र और भारतवर्षका वर्णन , भारतमें

सत्कर्मानुष्ठानकी महत्ता तथा भगवदर्पणपूर्वक कर्म करनेकी आज्ञा

नारदजीने पूछा --

सनकजी ! आदिदेव भगवान् ‌‍ विष्णुने पूर्वकालमें ब्रह्या आदिकी किस प्रकार सृष्टि की ? यह बात मुझे बताइये ; क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।

श्रीसनकजीने कहा --

देवर्षे ! भगवान् ‌‍ नारायण अविनाशी , अनन्त , सर्वव्यापी तथा निरञ्जन हैं। उन्होंने इस सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को व्याप्त कर रखा है। स्वयंप्रकाश , जगन्मय महाविष्णुने आदिसृष्टिके समय भिन्न - भिन्न गुणोंका आश्रय लेकर अपनी तीन मूर्तियोंको प्रकट कया। पहले भगवान्‌‍ने अपने दाहिने अङ्रसे जगत्‌‍की सृष्टिके लिये प्रजापति ब्रह्याजीको प्रकट किया। फिर अपने मध्य अङ्रसे जगत्‌‍का संहार करनेवाले रुद्र - नामधारी शिवको उत्पन्न किया। साथ ही इस जगत्‌‍का पालन करनेके लिथे उन्होंने अपने बायें अङ्रसे अविनाशी भगवान्‌‍ विष्णुको अभिव्यक्त किया। जरा - मृत्युसे रहित उन आदिदेव परमात्माको कुछ लोग ’ शिव ’ नामसे पुकारते हैं। कोई सदा सत्यरूप ’ विष्णु ’ कहते हैं और कुछ लोग उन्हें ’ ब्रह्या बताते हैं। भगवान् ‌‍ विष्णुकी जो पराशक्ति है , वही जगत्‌‍रूपी कार्यका सम्पादन करनेवाली है। भाव और अभाव -- दोनों उसीके स्वरूप हैं। वही भावरूपसे विद्या और अभावरूपसे अविद्या कहलाती है। जिस समय यह संसार महाविष्णुसे भिन्न प्रतीत होता है , उस समय अविद्या सिद्ध होती है ; वही दुःखका कारण होती है। नारदजी ! जब तुम्हारी ज्ञाता , ज्ञान , ज्ञेय रूपकी उपाधि नष्ट हो जायगी और सब रूपोंमें एकमात्र भगवान् ‌‍ महाविष्णु ही हैं --- ऐसी भावना बुद्धिमें होने लगेगी , उस समय विद्याका प्रकाश होगा। वह अभेद - बुद्धि ही विद्या कहलाती है। इस प्रकार महाविष्णुकी मायाशक्ति उनसे भिन्न प्रतीत होनेपर जन्म - मृत्युरूप संसार - बन्धनको देनेवाली होती है और वही यदि अभेद - बुद्धिसे देखी जाय तो संसार - बन्धनका नाश करनेवाली बन जाती है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् ‌‍ भगवान् ‌‍ विष्णुकी शक्तिसे उत्पन्न हुआ है , इसलिये जङ्रम - जो चेष्टा करता है और स्थावर - जो चेष्टा नहीं करता , वह सम्पूर्ण विश्व भिन्न - भिन्न प्रतीत होता होता है। जैसे घट , मठ आदि भिन्न - भिन्न उपाधियोंके कारण आकाश भिन्न - भिन्न रूपमें प्रतीत होता है , उसी प्रकार यह सम्मूर्ण जगत् ‌‍ अविद्यारूप उपाधिके योगसे भिन्न - भिन्न प्रतीत होता है। मुने ! जैसे भगवान् ‌‍ विष्णु सम्पूर्ण जगत्‌‍में व्यापक हैं , उसी प्रकार उनकी शक्ति भी व्यापक है ; जैसे अङ्रारमें रहनेवाली दाहशक्ति अपने आश्रयमें व्याप्त होकर स्थित रह्ती है। कुछ लोग भगवान्‌‍की उस शक्तिको लक्ष्मी कहते हैं तथा कुछ लोग उसे उमा और भारती ( सरस्वती ) आदि नाम देते हैं। भगवान् ‌‍ विष्णुकी वह परा शक्ति जगत्‌‍की सृष्टि आदि करनेवाली है। वह व्यक्त और अव्यक्तरूपसे सम्पूर्ण जगत्‌‍को व्याप्त करके स्थित है। जो भगवान् ‌‍ अखिल विश्वकी रक्षा करते हैं , वे ही परम पुरुष नारायण देव हैं। अतः जो परात्पर अविनाशी तत्त्व हैं , परमपद भी वही है ; वही अक्षर , निर्गुण , शुद्ध , सर्वत्र परिपूर्ण एवं सनातन परमात्मा हैं ; वे परसे भी परे हैं। परमानन्दस्वरूप परमात्मा सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित हैं। एकमात्र ज्ञानयोगके द्वार उनेक तत्वका बोध होता है। वे सबसे परे हैं। सत् ‌‍ चित् ‌‍ और आनन्द ही उनका स्वरूप है। वे स्वयं प्रकाशमय परमात्मा नित्य शुद्ध स्वरूप हैं तथापि तत्त्व आदि गुणोंके भेदसे तीन स्वरूप है तथापि तत्त्वा आदि गुणोंके भेदसे तीन स्वरूप धारण करते हैं। उनके ये ही तीनों स्वरूप जगत्‌‍की सृष्टि , पालन और संहारके कारण होते हैं। मुने ! जिस स्वरूपसे भगवान् ‌‍ इस जगत्‌‍की सृष्टि करते हैं , उसीका नाम ब्रह्या है। ये ब्रह्याजी जिनके नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं , वे ही आनन्दस्वरूप परमात्मा विष्णु इस जगत्‌‍का पालन करते हैं। उनसे बढ़्कर दूसरा कोई नहीं है। वे सम्पूर्ण जगत्‌के अन्तर्यामी आत्मा हैं। समस्त संसारमें वे ही व्याप्त हो रहे हैं। वे सबके साक्षी तथा निरञ्जन हैं। व ही भिन्न और अभिन्न रूपमें स्थित परमेश्वर हैं। उन्हींकी शक्ति महामाया है , जो जगत्‌‍की सत्ताका विश्वास धारण कराती है। विश्वकी उत्पत्तिका आदिकारण होनेसे विद्वान् ‌‍ पुरुष उसे प्रकृति कहते हैं। आदिसृष्टिके समय लोकरचनाके लिये उद्यत हुए भगवान् ‌‍ महाविष्णुके प्रकृति , पुरुष और काल - ये तीन रूप प्रकट होते हैं। शुद्ध अन्तः करणवाले ब्रह्यरूपसे जिसका साक्षात्कार करते हैं , जो विशुद्ध परम धाम कहलाता है , वही विष्णुका परम पद है। इसी प्रकार वे शुद्ध , अक्षर , अनन्त परमेश्वर ही कालरूपमें स्थित हैं। वे ही सत्त्व , रज , तम - रूप तीनों गुणोंमें विराज रहे हैं तथा गुणोंके आधार भी वे ही हैं। वे सर्वव्यापी परमात्मा ही इस जगत्‌‍के आदि - स्त्रष्टा हैं। जगद्‌‍गुरु पुरुषोत्तमके समीप स्थित हुई प्रकृति जब क्षोभ ( चञ्चलता )- को प्राप्त हुई , तो उससे महत्तत्त्वका प्रादुर्भाव हुआ ; जिसे समष्टि - बुद्धि भी कहते हैं। फिर उस महत्तत्त्वसे अहंकार उत्पन्न हुआ। अहंकारसे सूक्ष्म तन्मात्राएँ और एकादश इन्द्रियाँ प्रकट हुईं। तत्पश्चत् ‌‍ तन्मात्राओंसे पञ्च महाभूत प्रकट हुए , जो इस स्थूल जगत्‌‍के कारण हैं। नारदजी ! उन भूतोंके नाम हैं -- आकाश , वायु , अग्रि , जल और पृथ्वी। ये क्रमशः एक - एकके कारण होते हैं। तदनन्तर संसारकी सृष्टि करनेवाले भगवान् ‌‍ ब्रह्याजीने तामस सर्गकी रचना की। तिर्यग् ‌‍ योनिवाले पशु - पक्षी तथा मृग आदि जन्तुओंको उत्पन्न किया। उस सर्गको पुरुषार्थका साधक न मानकर ब्रह्याजीने अपने सनातन स्वरूपसे देवताओंको ( सात्त्विक सर्गको ) उत्पन्न किया। तत्पश्चात् ‌‍ उन्होंने मनुष्योंकी ( राजस सर्गकी ) सृष्टि की। इसके बाद द्क्ष आदि पुत्रोंको जन्म दिया , जो सृष्टिके कार्यमें तत्पर हुए। ब्रह्याजीके इन पुत्रोंसे देवताओं , असुरों तथा मनुष्योंसहित यह सम्पूर्ण जगत् ‌‍ भरा हुआ है। भूर्लोक , भुवर्लोक , स्वर्लोक , महर्लोक , जनलोक , तपलोक तथा सत्यलोक -- ये सात लोक क्रमशः एकके ऊपर एक स्थित हैं। विप्रवर ! अतल , वितल , सुतल , तलातला , महातला , रसातल तथा पाताल -- ये सात पाताल क्रमशः एकके नीचे एक स्थित हैं। इन सब लोकोंमें रहनेवाले लोकपालोंको भी ब्रह्याजीने उत्पन्न किया। ( भिन्न - भिन्न देशोंके कुल पर्वतों और नदियोंकी भी सृष्टि की तथा वहाँके निवासियोंदे लिये जीविका आदि सब आवश्यक वस्तुओंकी भी यथायोग्य व्यवस्था की। इस पृथ्वीके मध्यभागमें मेरु पर्वत है , जो समस्त देवताओंका निवासस्थान है। जहाँ पृथ्वीकी अन्तिम सीमा है , वहाँ लोकालोक पर्वतकी स्थिति है। मेरु तथा लोकालोक पर्वतके बीचमें सात समुद्र और सात द्वीप हैं। विप्रवर ! प्रत्येक द्वीपमें सात - सात मुख्य पर्वत तथा निरन्तर जल प्रवाहित करनेवाली अनेक विख्यात नदियाँ भी हैं। वहाँके निवासी मनुष्य देवताओंके समान तेजस्वी होतें। जम्बू , प्लक्ष , शाल्मिल , कुश , क्रौत्र्च , शाक तथा पुष्कर - ये सात द्विपोंके नाम हैं। वे सब - की - सब देवभूमीयाँ है। ये सातों द्वोप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। क्षारदो , इक्षुरसोद , सुरोद , घॄत दधि , दुग्ध तथा स्वादु जलसे भरे हुए ओए समुद्र उन्हीं नामोंसे प्रसिध्द हैं। इन द्विपों और समुद्रोंको क्रमश : पुर्व - पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर ने दूने विस्तरवाले जानना चाहीये। ये सब लोकालोक पर्वततक स्थित हैं क्षार समुद्रासे उत्तर और हिमालय पर्वतसे दक्षिणके प्रदेशको ‘ भारतवर्ष ’ समझना चाहिये। वह समस्त कर्मोका फल देनेवाला है।

नारदजी। भारतवर्षमें मनुष्य जो सात्त्विक , राजासिक और तामासिक तीन प्रकारके कर्म करते हैं। उनका फल भोगभूमियोंमे क्रमश : भोगा जाता है। विप्रवर। भारतवर्षमें किया हुआ जो शुभ अथवा अशुभ कर्म है , उसका क्षणभड्गुर ( बचा हुआ ) फल जो जोवोंद्वारा अन्यत्र भोगा जाता है। आज भी देवतालोग भारतभूमीमें जन्म लेनेकी इच्छा करते हैं। वे सोचते है , ‘ हमलोग कब सांचित किये हुए महान् ‍ अक्षय , निर्मल एवं शुभ पुण्यके फलस्वरुप भारतवर्षकी भूमिपर जन्म लेंगे और कब वहाँ महान् ‍ पुण्य करके परम पद्को प्राप्त होंगे। अथवा वहाँ नाना प्रकारके दान , भाँति - भाँतिके यज्ञ या तपस्याके द्वारा जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना करके उनके नित्यानन्दमय अनामय पदको कब प्राप्त कर लेंगे। ’ नारदजी। जो भारतभूमिमें जन्म लेकर भगवान् ‍ विष्णुकी आराधनामें लग जाता है , उसके समान पुण्यात्मा तींनो लोकोंमें कोई नहीं हैं। भगवानके नाम और गुणोंका कीर्तन जिसका स्वाभव बन जाता हैं , जो भगवभ्द्क्तोंकी सेवा - शुश्रूषा करता है , वह देवताओंके लिये भी वन्दनीय है। जो नित्य भगवान् ‍ विष्णुकी आराधानामें तत्पर है अथवा हरि - भक्तोंके स्वागत - सत्कारमें संलग्न रहता है और उन्हें भोजन कराकर बचे हुए ( श्रेष्ठ ) अन्नका स्वयं सेवन करता है , वह भगवान ‍ विष्णुके परम पद्को प्राप्त होता है। जो आहिंसा आदि धर्मोके पालनमें तत्पर होंकर शान्तभावसे रहता है और भगवानके ‘ नारयण , कॄष्ण तथा वासुदेव ’ आदि नामोंका उच्चारण करता है , वह श्रेष्ठ इन्द्रादि देवताओंके लिये भी वन्दनीय है। जो मानव ‘ शिव , नीलकण्ठ तथा शंकर ’ आदि नामोंद्वार बगवान् ‍ शिवका स्मरण करता तथा सदा सम्पूर्ण जीवींके हितमें संलग्न रहता है , वह ( भी ) देवताओंके लिये पूजनीय माना गया है। जो गुरुका भक्त , शिवका स्मरण करता तथा शंकर ’ आदि नामोंद्वारा भगवान ‍ शिवका ध्यान करनेवाला , अपने आश्रम - धर्मके पालनमें तत्पर , दूसरोंके दोष न देखनेवाला , पवित्र तथा , कर्यकुशल है , वह भी देवेश्वरोंद्वारा पूज्य होता है। जो ब्राह्मणोंका हित - साधन करता है , वर्णधर्म और आश्रमधर्ममें श्राध्दा रखता है तथा सदा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर होता है , उसे ‘ पड्क्तिपावन ’ मानना चाहिये। जो देवेश्वर भगवान् ‍ नारायण तथा शिवमें कोई भेद नहीं देखता , वह ब्रह्माजीके लिये भी सदा वन्दनीय है : फिर हमलोगोंकी तो बात ही क्या है ? नारदाजी। जो गोओंके प्राति क्षामाशील - उनपर क्रोध न करनेवाला , ब्रह्मचारी , परयी निन्दासे दूर रहनेवाला तथा संग्रहसे रहित है , वह भी देवताओंके लिये पूजनीय है। जो चोरी आदि दोषोंसे पराड्मुख है , दुसरोंद्वारा किये हुए उपकारको याद रखता है , सत्य बोलता है , बाहर और भीतरसे पवित्र रहता है तथा दूसरोंकी भलाईके कार्यमें सदा संलग्न रहता है , वह देवता और असुर सबके लिये पूजनीय होता है। जिसकी बुध्दि वेदार्थ श्रवण करने , पुराणकी कथा सुनने तथा सत्संगमें लगी होती है। जो भारतवर्षमें रहकर श्राध्दापूर्वक पूर्वोक्त प्रकारके अनेकानेक सत्कर्म करता रहता है , वह हमलोगोंके लिये वन्दनीय है।

जो शीघ्र ही इन पुण्यात्माओंमेंसे किसी एककी श्रेणीमें अपने - आपको ले जानेकी चेष्टा नहीं करता , वह पापाचारी एवं मूढ ही है : उससे बढ्कर बुध्दिहीन दूसरा कोई नहीं है। जो भारतवर्षमें जन्म लेकर पुण्यकर्मसे विमुख होता है , वह अमॄतका घडा छोडकर विषके पात्रको अपनाता है। मुने। जो मनुष्य वेदों और स्मॄतियोंमें बताये धर्मोका आचरण करके अपने - आपको पवित्र नहीं करता , वही अत्महत्यारा तथा पापियोंका अगुआ है। मुनीश्वर। जो कर्मोभूमि भारतवर्षका आश्रय लेकर धर्मोका आचरण नहीं करता , वह वेदज्ञ महात्माओंद्वार सबसे ‘ अधम ’ कहा गया है। जो शुभ - कर्मोका परित्याग करके पाप - कर्मोक सेवन करता है , वह कामधेनुको छोडकर आकक दूध खोजता फिरता है। विप्रवर। इस प्रकार ब्रह्मा आदि देवता भी अपने भोंगोंके नाशसे भयभीत होकर भारतवर्षके भूभागसकी प्राशंसा किया करते हैं। अत : भारतवर्षके भूभागकी प्रशंसा किया करते हैं। अत : भारतवर्षको सबसे आधिक पावित्र तथा उत्तम समझना चाहिये। यह देवताओंके लिये भी दुर्लभ तथा सब कर्मोका फल देनेवाला है। जो इस पुण्यमय भूखण्डमें सत्कर्म करनेके लिये उधत होता है , उसके समान भाग्यशाली तीनों लोकोंमें दुसरा कोई नहीं है। जो इस भारतवर्षमें जन्म लेकर अपने कर्मबन्धनको काट डालनेकी चेष्टा करता है , वह नररुपमें छिपा हुआ साक्षात् ‍ ‘ नारायण ’ है। जो परलोकमें उत्तम फल प्राप्त करनेकी इच्छा रखता है , उसे आलस्य छोडकर सत्कर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये। उन कर्मोके भाक्तिपूर्वक भगवान् ‍ विष्णुको समार्पित कर देनेपर उनका फल अक्षय माना गया है। यादि कर्मफलोंकी ओरसे मनमें वैराग्य हो तो अपने पुण्यकर्मको भगवान् ‍ विष्णुमें प्रेम होनेके लिये उनके चरणोंमे समार्पित कर दे। ब्रह्मलोकतलके सभी लोक पुण्यक्षय होनेपर पुनर्जनम देनेवाले होते हैं। परतु जो कर्मोका फल नहीं चाहता , वह भगवान ‍ विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है। भगवानकी प्रसन्नताके लिये वेद - शास्त्रोंद्वार बताये हुए आश्रमानुकूल कर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये। जिसने कर्म - फलकी कामना त्याग दी है , वह आविनाशी पद्को प्राप्त होता है। मनुष्य निष्काम हो या सकाम , उसे विधिपूर्वक कर्म अवश्य करना चाहिये। जो अपने वर्ण और आश्रमके कर्म छोड देता है , वह विद्वान् ‍ पुरुषोंद्वारा पातित कहा जाता है। नारदजी। सदाचारपरायण ब्राह्माण अपने ब्रह्यतेकाजके साथ वृध्दिको प्राप्त होता है। यादि वह भगवानके चरणोंमे भक्ति रखता है तो उसपर भगवान् ‍ विष्णु बहुत प्रसन्न होते हैं। समस्त धर्मोके फल भगवान ‍ वासुदेव है , तपस्याका चरम लक्ष्य भी वासुदेव ही है , वासुदेवके तत्त्वको समझ लेना हि उत्तम ज्ञान है। तथा वासूदेवको - प्राप्त कर लेना हि उत्तमज्ञान है तथा वासुदेवको प्राप्त कर लेना ही उत्तम गति है। ब्रह्मजीसे लेकर कीटपर्यन्त यह सम्पूर्ण स्थावर - जड्गम जगत् ‍ वासुदेवस्वरुप है , उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है वे ही ब्रह्मा और शिव हैं , वे ही देवता , असुर तथा यज्ञरुप हैं , वे ही यह ब्राह्माण्ड भी हैं। उनसे भिन्न अपनी पॄथक् ‍ सत्ता रखनेवाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है। जिनसे पर या अपर कोई वस्तु नहीं है तथा जिनसे अत्यन्त लघु और महान ‍ भी कोई नहीं है। , उन्हीं भगवान् ‍ विष्णुने इस विचित्र विश्वको व्याप्त कर रखा है , स्तुति करनेयोग्य उन देवाधिदेव श्रीहरिको सदा प्रणाम करना चाहिये।

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Last Updated : March 11, 2011

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