लोकहितकरव्रत - अनावृष्युपशमनविधानव्रत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।

 


अनावृष्युपशमनविधानव्रत

( शारदातिलक ) - किसी भी शुभ दिनमें विद्वान् , सदाचारी और सत्कर्मौंका अनुष्ठान करनेवाल वयोवृद्ध ब्राह्मणोंको बुलाकर उनका षोडशोपचारसे पूजन करे । फिर उनके समक्ष वस्त्राच्छादित वेदीपर अष्टदल कमलके मध्यभागमें सूर्यकी, उसके पूर्वमें इन्द्रकी और पश्चिममें वरुणकी स्थापना करके उनका षोडशोपचारसे पूजन करे । फिर उनके समक्ष वस्त्राच्छादित वेदीपर अष्टदल कमलके मध्यभागमें सूर्यकी, उसके पूर्वमें इन्द्रकी और पश्चिममें वरुणकी स्थापना करके उनका षोडशोपचारद्वारा पूजन करे, फिर उपस्थित ब्राह्मणोंसे अनावृष्टिहर और सद्योवृष्टिकर उत्तम अनुष्ठान करनेकी प्रार्थना करे । तब धर्मप्राण यजमानकी प्रार्थनाको सफल करनेकी दृढ़ आशा हदयमें रखकर सम्पूर्ण अनुष्ठानी ब्राह्मण अपने आसनोंपर बैठकर

' ॐ ध्रुवा सुत्वा स क्षितिषु १ क्षियंतो व्यस्मत्पाशं २ वरुणो मुमोचत् ३ ।

अवोवन् माना आदि ४ तेरुपस्थाद्युयं पात ५ स्वस्तिभिः सदा नः ६ ॥'

इस मन्त्नके अङ्गन्यासादिपूर्वक एक लाख जप करे । अङ्गन्यास और करन्यासादिमें उक्त ऋचाके जो छः खण्ड हैं, उन्हींसे क्रमशः १ हदय, २ सिर, ३ शिखा, ४ दोनों भुजा, ५ दोनों नेत्र और ६ दोनों हाथोंका स्पर्श करे । अन्तिम यानी छठे खण्ड - ' स्वस्तिभिः सदा नः ' का उच्चारण करके ' अस्त्राय फट् ' कहते हुए ताली बजानी चाहिये । यही अङ्गन्यास है । इसी प्रकार १ अङ्गष्ठ, २ तर्जनी, ३ मध्यमा, ४ अनामिका, ५ कनिष्ठा और ६ करतल एवं करपृष्ठोंका स्पर्श करे । यह करन्यास है । इसके अतिरिक्त उक्त ' ध्रुवा सुत्वा०' मन्त्नके बयालीस वर्णोंमेंसे एक - एक वर्णसे सर्वाङ्गन्यास करके ध्यान करे । ध्यान यह है -

' चन्द्रप्रभं पङ्कजसंन्निषण्णं पाशाङ्कुशाभीतिवरं दधानम् । मुक्ताविभूषाच्ञ्चितसर्वगात्रं ध्यायेत् प्रसन्नं वरुणं विभूत्यै ॥'

इस प्रकार ध्यान करनेके पश्चात् पाँच, सात, नौ या तेरह ब्राह्मण एकाग्रचित होकर जप करें और एक, पाँच या चौबीस लाख जितना जप करना हो उसका हिसाब लगाकर प्रतिदिन उसी प्रमाणसे जप करते हुए नियत दिनोंतक अनुष्ठान करें । अनुष्ठानके दिनोंमें भूशयन और ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए क्रोधादिका त्याग करें । प्रतिदिन एकभुक्त ( किसी एक ही पदार्थका ) या एकभुक्त ( एक बार ) भोजन करें ।

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Last Updated : January 16, 2012

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