वैधव्यहर विवाहव्रत

व्रतसे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रताकी वृद्धि होती है ।


वैधव्यहर विवाहव्रत

( सूर्यारुणसंवाद ) - वैधव्ययोगकी सम्भावना होनेसे लौकिक विवाहसे पहले वैवाहिक मुहूर्तमें कन्याके माता - पिता सुस्त्रात कन्याको

( १ ) कुम्भ - विवाह - के लिये पीठस्थ कुम्भके दक्षिण भागमें पूर्वाभिमुख बिठाकर स्वयं उत्तराभिमुख बैठे हुए गणपतिपूजन, मातृकापूजन, नान्दीश्राद्ध और पुण्याहवाचन करके ' भूरसि ' - आदिसे कुम्भ - स्थापन करें और उसके ऊपर सुवर्णमय वरुण और विष्णुका पूजन करके कुम्भ और कन्याके गलेमें दस तारोंसे बनया हुआ यज्ञोपवीत - सदृश सूत्र पहनायें और दोनोंको पीतवस्त्रसे वेष्टित करके अग्निस्थापनपूर्वक कन्यादान करें । फिर ' प्रजापतये ......' आदिसे और ' भूः स्वाहा.........' आदिसे आहुतियाँ देकर

' वरुणाङ्गस्वरुप त्वं जीवनानां समाश्रय । पतिं जीवय कन्यायाश्चिरं पुत्रान् सुखं वरम् । देहि विष्णो वरं देव कन्यां पालय दुःखतः ॥'

से प्रार्थना करके विसर्जन करें । इसी प्रकार

( २ ) पिप्पल - विवाह - के निमित्त सुस्त्रात कन्याको अश्वत्थके समीप पूर्वाभिमुख बैठाकर उसके माता - पिता उत्तराभिमुख बैठें और गणपति, मातृका आदिका पूजन करके विष्णु - प्रतिमा और पीपलक पूजन कर यथापूर्व दस तन्तुमय सूत्र और पीत वस्त्रसे कन्या और अश्वत्त्थको वेष्टित करे; फिर अग्निस्थापन करके यथोक्त विधिसे कन्यादानका संकल्प करे और ' प्रजापतये०' आदिसे ४ तथा ' भूः स्वाहा ' आदिसे ९ आहुतियाँ देकर

' नमो निखिलपापौघनाशनाय नमो नमः । पूर्वजन्मभवं पापं बालवैधव्यकारकम् । नाशयाशु सुखं देहि कन्याया मम भूरुह ॥'

से पीपलकी प्रार्थना करके विसर्जन करे । इसी प्रकार

( ३ ) विष्णुविवाह - के लिये कन्यादाता सुवर्णनिर्मित विष्णुमूर्तिको वस्त्राच्छादित पीठके अष्टदल कमलपर स्थापित करके उसके समीप दक्षिण भागमें शुभासनपर कन्याकों पूर्वभिमुख बिठाये और स्वयं उत्तराभिमुख बैठकर गणपतिपूजन, मातृका - पूजन, नान्दीश्राद्ध और पुण्याहवाचन करके विष्णुप्रतिमाका षोडशोपचार पूजन करे । फिर विष्णु तथा कन्याको दशतन्तु विधानके उपवीत - सदृश सूत्रसे वेष्टीत और पीताम्बरसे आच्छादित करके अग्निस्थापनपूर्वक कन्यादान करे । फिर अग्निमें यथापुर्वं ' प्रजापतये०' आदिसे ४ और ' भूः स्वाहा ' आदिसे ९ आहुतियाँ देकर

' वैधव्याद्यतिदुःखौनाशाय सुखलब्धये । बहुसौभाग्यलब्धै च महाविष्णोरिमां तनुम् ॥'

से प्रार्थना करके विसर्जन करे । स्मरण रहे कि उक्त तीनों विवाहोंमें कन्यादानका संकल्प करते समय दाता अपने गोत्रका उच्चारण करके कन्याको अपने प्रपितामहकी प्रपौत्री, पितामहकी पौत्री और अपनी पुत्री सूचित करता हुआ संकल्प करे । इसमें कुम्भ, अश्वत्थ और विष्णुके पिता, पितामह आदिके नामोच्चारण और राष्ट्राभृतादि आहुतियोंकी आवश्यकता नहीं है और न इन विवाहोंमें पुनर्भूत्व दोष होता है; क्योकि

' स्वर्णाम्बुपिप्पलानां च प्रतिमा विष्णुरुपिणी । तया सह विवाहे च पुनर्भूत्वं न जायते ॥'

अर्थात सोना, जल, पीपल और विष्णुप्रतिमाके साथ कन्याका विवाह करनेमें पुनर्भूत्व नहीं होता । *

* लक्ष्मीरुपा सदा कन्या हरिरुपं सदा जलम् ।

हरेर्दत्तं च यद दानं दातुः पापहरं सदा ॥

लक्ष्मीनारायणप्रीत्यै या दत्ता कन्यका बुधैः ।

तारयेत् सकलं दातुः कुलं पूर्वापरं सदा ॥

चन्द्रगन्धर्ववह्नयम्बुशिवसोमस्मरा इमे ।

पतयः कन्यकानां च बाल्यात् सन्ति सदैव ते ।

तदुद्वाहविधिर्यत्नात् कृतो नो जनयेदघम् ।

यथालिभुक्तं कमलं देवानां पूजनाय वै ॥

अर्हं भवति सर्वत्र तथा कन्या नृणां भवेत् ॥ ( हेमाद्रि )

यत्किञ्चित् कथितं शास्त्रं शान्तिकं पतिरक्षणे ।

तत्पापमपि नो पापं येन धर्मोऽभिरक्ष्यते ॥ ( धर्मशास्त्र )

मन्थन्या भास्करो यत्नात् कृतवान् दुहितुर्विधिम् ।

रेणुकोऽपि स्वकन्यायास्तदुद्वाहं चकार सः ॥ ( विधानखण्ड )

पित्रा मात्रा तथा भ्रात्रा दत्ता या तोयधारया ।

विप्राग्निसुहदां साक्ष्यं कृत्वा सोद्वाहिता भवेत् ॥ ( कात्यायन )

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Last Updated : January 16, 2012

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