मयमतम् - अध्याय ३६

मयमतम्‌ नामक ग्रंथमे संपूर्ण वास्तुशास्त्रकी चर्चा की गयी है। संपूर्ण वास्तु निर्माणमे इस ग्रंथको प्रमाण माना गया है।

प्रतिमालक्षण

प्रतिमा के लक्षण - अब ब्रह्मा आदि देवों एवं देवियों के विन्यास, रंग, आयुध, वाहन, अलंकार, चिह्न एवं विमान का क्रमशः वर्णन किया जा रहा है ॥१॥

ब्रह्म

ब्रह्मा - ब्रह्मा के चार मुख, चार भुजायें, तपाये गये सोने के समान वर्ण तथा विद्युत के प्रकाश की किरणों के समान पीली जटाये होती है, जिन पर मुकुट बँधा होता है । ये कुण्डल, बाजूबन्द, हार, मृगचर्म एवं उत्तरीय से सुशोभित होते है । उत्तरीय (ऊपरी भाग में ओढ़ा जाने वाला वस्त्र, चादर) को जनेऊ के समान गलान्त तक रखना चाहिये ॥२-३॥

उनके बभ्रु वर्ण (भूरी, पीली) के ऊरु भाग मे मौञ्जिक (मूँज की) मेखला रहती है । वह श्वेत तथा पवित्र माला एवं वस्त्र धारण किये रहते है । दाहिने दोनो हाथो में अक्षमाला एवं कूर्च (कूँची) होती है । वाम भाग के (दोनो हाथों में) कमण्डलु एवं कुश होता है । अथवा दक्षिण हाथों में स्त्रुक् (काष्ठनिर्मित चम्मच, जिससे हवन किया जाता है) एवं स्त्रुव (काष्ठनिर्मित यज्ञीय पात्र) होता है तथा वाम हस्तों में घी का पात्र एवं कुश होता है । या निचले हाथ वरद (वर देने वाली) मुद्रा एवं अभय मुद्रा में होते है । ये जटा एवं मुकुट से सुशोभित होते है ॥४-५॥

इनके वाम भाग में सावित्री एवं दक्षिण भाग में भारती, ऋषि-गण एवं परिवार निर्मित होते है । ब्रह्मा हंस पर आरूढ़ एवं कुश के ध्वज से युक्त होते है । (अथवा) ब्रह्मा को पद्मासन पर बैठे या खड़े निर्मित करना चाहिये ॥६-७॥

विष्णु

विष्णु - विष्णु किरीट, मुकुट, केयूर एवं कटक आदि आभूषणों से युक्त, करधनी से अलंकृत, पीत वस्त्र धारण किये एवं चतुर्भुज होते है । (उनके हाथ) वरद मुद्रा, अभय मुद्रा, शंख एवं चक्र से युक्त होते है । वे पवित्र है । वे बैठे अथवा खड़े रहते है । उनके वाम भाग में अवनि (पृथ्वी) एवं दक्षिण भाग में रमा (लक्ष्मी) होती है । अच्युत प्रभु का वर्ण श्याम होता है एवं वह पीठ पर अथवा कमल पर स्थित होते है ॥८-९॥

(विष्णु की प्रतिमा) ग्राम आदि वास्तुओं के मध्य में तथा आठो दिशाओं में प्रशस्त होती है । श्री, लक्ष्मी एवं भूमि को प्रकाश से युक्त एवं कमल के समान नेत्रों वाली होनी चाहिये । विद्वानों के अनुसार मोक्षकामियों को एक (यही) प्रतिमा स्थापित करनी चाहिये । इनका ध्वज एवं वाहन गरुड़ कहा गया है ॥१०-११॥

वराह

वराह - वराह के दो हाथ वरदं एवं अभयमुद्रा में होने चाहिये एवं वे भुजाओं से पृथ्वी को उठाये हो । वे पैर से सर्पराज को आक्रान्त किये हो एवं उनका वर्ण तपे हुये सोने के समान होना चाहिये । वे पीले रंग के जनेऊ एवं सभी अलंकारों से सुसज्जित हो । वराह की प्रतिमा का वर्णन इस प्रकार प्राप्त होता है ॥१२-१३॥

त्रिविक्रम

त्रिविक्रम - प्रलयकालीन बादल के समान, गर्भगृह के भित्ति के सहारे खडे, पञ्चायुध शरीर वाले त्रिविक्रम होते है । वामन की प्रतिमा भी इसी प्रकार होती है ॥१४॥

नारसिंह

नारसिंह - नारसिंह (की प्रतिमा) वैष्णव है । इनका मुख सिंह का, अत्यन्त रूक्ष (भयानक), उग्र दाँत एवं वे अत्यन्त बली होते है । उनकी माँसल जाँघें मुड़ी होती है एवं वे रोम तथा माला से युक्त होते है । वे कुण्डल से युक्त, स्थूल जिह्वा वाले, करण्ड एवं मुकुट से अलंकृत होते है । उनका वर्ण श्वेत होता है । (नारसिंह) विशाल शरीर मंगलमय एवं प्रचण्ड वेग से युक्त होते है । उनके दस या आठ हाथ होते है एवं वे तीक्ष्ण दाँत एवं नख से युक्त होते है । वे पीले जनेऊ, पुष्पमालाओं से अलंकृत होते है तथा हार, केयूर, कटक एवं कटिसूत्र आदि से सुशोभित होते है । नारसिंह देव रक्त वस्त्र धारण किये हुये रहते है एवं युद्ध में उनके दोनो हाथो में अस्त्र नही होते । उनके दोनो हाथ हिरण्यकशिपु के वक्षःस्थल को विदीर्ण करते है । पूर्वोक्त रीति से (नारसिंह) आसीन मुद्रा में होते है एवं सभी देवता उनका अभिवन्दन करते है ॥१५-१९॥

विद्वानों के अनुसार शत्रुओं के विनाश के लिये नारसिंह की प्रतिमा को पर्वतशिखर पर, गुफा में अथवा शत्रुओं के क्षेत्र में वन में स्थापित करना चाहिये ॥२०॥

ग्राम आदि में चतुर्भुज, शंख एवं चक्र धारण किये, सभी आभरणों से सुसज्जित, पीत वस्त्र धारण किये, पवित्र नारसिंह देव को वायव्य कोण में खड़ी या बैठी मुद्रा में स्थापित करना चाहिये । (आसीन मुद्रा में ) इनके दो हाथ शक्तिशाली जानुओं पर स्थित होते है एवं उनकी जङ्घायें पट्टिका के ऊपर उठी होती है । उनकी मुद्रा दण्ड होती है (अथवा उनके हाथ में दण्ड हो) अथवा अभय मुद्रा होती है । अथवा अन्य मुद्रा होती है । उन्हे योगपट्ट से लपेटना चाहिये । इनकी स्थानक (खडी मुद्रा) प्रतिमा पद्माकार पीठ पर वरद एवं अभय मुद्रा वाले हाथों से युक्त होनी चाहिये । (नारसिंह की यह प्रतिमा) शान्ति, पुष्टि, जय, आरोग्य, भोग, ऐश्वर्य एवं धन प्रदान करती है ॥२१-२४॥

अनन्तशायी

अनन्तशायी - (अनन्तशायी विष्णु का) शयन करता हुआ रूप अनन्त रूप वाली शय्या पर निर्मित करना चाहिये । यह (सर्परूप) शय्या तीन मेखला (तीन कुण्डली मारी हुई) एवं पाँच या सात फणों से युक्त होनी चाहिये । देवता का शिर पूर्व या दक्षिण दिशा में होना चाहिये । इनकी दो भुजायें होनी चाहिये एवं देवता को प्रभु (भास्वर, प्रकाशमान) होना चाहिये । दक्षिण हस्त में दण्ड होना चाहिये अथवा उनका हाथ शिर को धारण किये हो (सहारा दिये हो) । उनके बाँये हाथ में पुष्प होना चाहिये । इस प्रकार (अनन्तशायी) योगनिद्रा मे होते है । कृत (सतयुग) आदि युगों में इनका वर्ण क्रमशः श्वेत, पीत, अञ्जन के समान कृष्ण एवं श्याम होता है । इनके आभूषण पहले के वर्णन के अनुसार होने चाहिये ॥२५-२७॥

(अनन्तशायी की) नाभि से उत्पन्न कमल पर ध्यानस्थ धाता आसीन रहते है । श्री एवं भूमि को हाथ में पुष्प लेकर शिर की ओर एवं पैर की ओर स्थापित करना चाहिये । देवता के पार्श्व में पुष्प से युक्त (उनका) हाथ हो, दूसरा घूटने पर फैला हो । देव का वाम पैर श्री की ओर एवं दक्षिण पैर भूमि की ओर होना चाहिये । शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग धनुष एवं खड्ग का अंकन अपने रूप में होना चाहिये ॥२८-३०॥

शंख का स्वामी वामन पुरुष होता है, जिसका वर्ण श्वेत होता है । चक्र रक्त वर्ण का पुरुष है । गदा सोने के वर्ण की स्त्री होती है । शार्ङ्ग कृष्ण वर्ण का पुरुष होता है । खड्‌ग श्यामल वर्ण की, सभी आभरणों से आभूषित स्त्री होती है । ये सभी वाम भाग मे स्थित होते है । वाम हस्त में सूचियाँ (चिह्न) होती है एवं दक्षिण हाथ उठा होता है । सभी अनेक वर्णों के वस्त्र धारण किये होते है एवं उनके सिर पर अस्त्र रक्खे होते है । (देवता के) पार्श्व भाग में क्रोधित मधु एवं कैटभ (असुरों) को स्थापित करना चाहिये । सुरेन्द्र को अन्य देवों एवं महर्षियों के साथ पूर्वमुख होना चाहिये । ॥३१-३२-३३॥

हित की कामना करने वालों को नियमानुसार हरि को ग्राम आदि वास्तु के मध्य में अथवा बाहर दिशाओं एवं दिक्कोणों में स्थापित करना चाहिये ॥३४॥

महेश्वर

महेश्वर- (महेश्वर के) उर्ध्व भाग में पिशंग वर्ण (भूरा लाल) की जटायें सुवर्ण एवं अग्नि के समान भास्वर होती है । उनके ऊरू सघन होते है । वे किरणसमूह से युक्त चन्द्रमा को अपनी जटाओं में धारण करते है । वे चार भुजाओं एवं तीन नेत्रों वाले, सौम्य एवं पूर्ण युवावस्था से युक्त होते है । (महेश्वर) विस्तृत वक्ष वाले, वृष पर सवार, श्रृंखला, अंकुश एवं पाश धारण किये रहते है । इनकी भुजायें विस्तृत एवं ऊँची होती है तथा गज के सूँड के समान होते है । वे हार एवं नूपुर, कटक, कटिसूत्र, नागनिर्मित कुण्डल, उदर-भाग को बाँधने वाली मेखला से युक्त एवं मृगचर्म से युक्त होते है ॥३५-३८॥

(महेश्वर की) दस या आठ भुजायें सभी प्रकार के अलंकरणों से युक्त होती है । दाहिने हाथ में शक्ति, शूल, असि, गदा एवं अग्नि होती है । वाम हस्त में नाग, खट्‌वाङ्ग, खेटक, कपाल एवं नागपाश होते है । व्याघ्रचर्म के वस्त्र को धारण किये शिव प्रसन्न (भाव से युक्त) होते है । अष्टभुजाओं वाले महेश्वर उपर्युक्त अस्त्रों में गदा एवं असि से रहित होते है । ये बैठे हुये, खड़े अथवा वृष पर आरूढ होते है एवं वृषध्वज से युक्त होते है ॥३९-४१॥

(महेश्वर) भृंगी वाद्य एवं नृत्य तथा (अन्य) वाद्यों से प्रसन्न होकर नाचते हुये, नन्दि आदि गणों से युक्त, देवादिकों से सेवित रहते है । हित की कामना करने वालों के द्वारा (महेश्वर की) स्थापना ग्राम या नगर में करनी चाहिये ॥४२॥

षोडशमुर्त्तय

सोलह मूर्तियाँ - अब मै (मय) महेश्वर की सोलह प्रकार की मूर्त्तियों का वर्णन क्रमशः नियमानुसार करता हूँ । सुखासन, विवाह, उमास्कन्द, वृषारूढ, पुरारि, नृत्त, चन्द्रशेखर, अर्धनारी, विष्ण्वर्ध, चण्डेशानुग्रह, कामारि, कालनाश, दक्षिणामूर्ति, भिक्षाटन, मुखलिङ्ग एवं लिङ्गसम्भूत ॥४३-४५॥

सोलह मूर्तियों के सामान्य लक्षण इस प्रकार वर्णित है । (महेश्वर) तीन नेत्रों, चार भुजाओं, शिर पर बालचन्द्र, व्याघ्रचर्म का वस्त्र धारण किये, हार एवं केयूर से अलंकृत, जनेऊ से युक्त तथा दो कुण्डलों से विभूषित होते है । अब क्रमशः प्रत्येक के रूप का पृथक-पृथक वर्णन किया जा रहा है ॥४६-४८॥

सुखासनमूर्त्तिः

सूखासन मूर्ति आसन पर सुखपूर्वक बैठे हुये वरद एवं अभय मुद्राओं में हाथ वाले महेश्वर के दाहिने हाथ में टङ्क (परशु) एवं वाम हाथ में कृष्ण (हिरण) निर्मित करना चाहिये । वाम पैर आसन पर शयित । (लेटा हुआ, मोड़ कर रक्खा हुआ) एवं दाहिना पैर पीठ पर टिका होना चाहिये । जिनका वर्णन यहाँ न किया गया हो, वह सब पूर्ववर्णन के अनुसार सुखासन मूर्ति में होना चाहिये । इस प्रकार की मूर्ति की पूजा निश्चित रूप से मोक्ष प्रदान करती है

॥४९-५०॥

वैवाहमूर्त्ति

(महेश्वर की मूर्ति को) थोड़ा त्रिभङ्गी (तीन स्थान पर मुडी हुई) निर्मित करना चाहिये । वाम पैर मुड़ा होना चाहिये । देवता का दाहिना हाथ देवी के हाथ से जुड़ा होना चाहिये । देवता का बाँया हाथ वरदमुद्रा में होना चाहिये । (शेष दो हाथ) कृष्ण (मृग) एवं परशु से युक्त होना चाहिये । हर (शिव) सभी आभरणों से युक्त एवं क्षौम वस्त्र (रेशमी वस्त्र) धारण किये होने चाहिये ॥५१-५२॥

देवी को देवता के बाहु के माप (बाहु के बराबर ऊँचाई) का निर्मित करना चाहिये । देवी को दो बाहु से युक्त, दो नेत्रो वाली, सुन्दर मुख वाली, श्याम वर्ण की, कोमल तथा थोड़ी टेढी निर्मित करना चाहिये । गौरी को केयूर, कटक, अंगूठी से युक्त, सिर पर करण्डिका एवं सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत होना चाहिये । गौरी दुकूल-वस्त्र धारण किये एवं हाथों में कमल लिये होती है । इनके चरण-कमल नूपुर आदि अलंकरणों से शोभायमान होते है । (इस प्रकार की) गौरी को (हर देव के) दाहिने भाग में स्थापित करना चाहिये ॥५३-५५॥

लक्ष्मी को सुवर्ण वर्ण की दो भुजाओं एवं दो नेत्रों से युक्त तथा सभी आभूषणों से युक्त उमा के पार्श्व में निर्मित करना चाहिये । शिला अथवा विष्णुमूर्ति पर जलधारा डालनी चाहिये । सोलह पटल वाले कमल पर आसीन ब्रह्मा विवाह-हवन के सम्मुख हो । इस प्रकार सभी देवगणों से युक्त, देवों द्वारा पूजित देवता का कल्याण (विवाह) निर्मित करना चाहिये । यह (मूर्ति) सभी प्रकार का कल्याण करने वाली एवं सिद्धि प्रदान करने वाली होती है ॥५६-५८॥

सोमास्कन्दमूर्त्ति

सोमाकन्द मूर्ति - (महेश्वर देव को अर्धचन्द्र के आकार के आसन पर आसीन निर्मित करना चाहिये । उनके वाम भाग में गौरी हो । उनका हाथ उमा के साथ हो (महेश्वर का एक हाथ उमा को पकड़े) । देवी का हाथ छिपा हो । उमा एवं महेश्वर के अपने-अपने रूप का जैसा वर्णन पहले किया गया है, वैसा ही निर्माण होना चाहिये । विद्वान को देवी को देवता के वाम भाग में निर्मित करना चाहिये ॥५९-६०॥

उमा एवं शंकर के बीच में बालरूप में स्कन्द होते है । उमा एवं स्कन्द के साथ शंकर को सुखासन में निर्मित करना चाहिये । उमा एवं स्कन्द से युक्त देवता (शंकर) सभी कामनाओं की पूर्ति करते है । अर्थ एवं सिद्धि प्रदान करते है ॥६१॥

वृषारूढमूत्ति

वृष पर आरूढ मूर्ति - उमा एवं ईश्वर (शिव) पीठ पर स्थित होते है एवं वृषभ पीछे स्थित होता है । शिव की बाँई कोहनी वृष के मस्तक पर रक्खी होती है । दाहिना हाथ लटका रहता है । बायें हाथ में शूल होता है । (शेष दो हाथों में) कृष्ण (मृग) एवं परशु होता है । इसे वृषारूढ (शिवमूर्ति) कहते है । इस मूर्ति की पूजा दारिद्र्य के विनाश के लिये होती है एव यह सभी प्राणियों का कल्याण करती है ॥६२-६४॥

त्रिपुरान्तकमूर्त्ति

त्रिपुरान्तक - (भगवान शिव) दक्षिण पैर पर भली-भाँति स्थित होते है एवं बायाँ पैर मुड़ा होता है । ये धनुष एवं बाण से युक्त तथा कृष्ण (मृग) एवं परशुसे युक्त होते है । ये वृषभ द्वारा खींचे जा रहे पर स्थित होते है एवं सभी देवगणों से युक्त होते है । त्रिपुर का वध करने वाले देव (शिव) को उमा के सहित निर्मित करना चाहिये । शत्रुओं के विनाश के लिये त्रिपुरसुन्दर का पूजन करना चाहिये ॥६५-६६॥

नृत्तमूर्त्तय

नृत्य करती मूर्तियाँ - भुजंगललित नृत्य को यहाँ सन्ध्या नृत्य कहा गया है । इनके दाहिने हाथ में डमरू एवं बाँये हाथ में अग्नि रहती है । (अन्य) दाहिने हाथों में त्रिशूल, परशु, खड्‌ग एवं बाण होते है । बाँये हाथों में खेटक, पिनाक, दण्ड एवं पाश होते है ॥६७-६८॥

इनके पैर नृत्य की सुन्दर गति से प्रकाशमान होते है । दाहिना पैर मुड़ा होता है एवं वाम जानु तक उठा होता है । बाँयी एड़ी तथा दाहिने घुटने के मध्य में मुख की ऊँचाई का तीन गुना अन्तर होता है । अपने स्थान से उठे हुये दाहिने पैर के मध्य नौ में से आठ भाग के बराबर अन्तर पूर्ववर्णन के अनुसार होना चाहिये । बाँये पैर का निर्गम आवश्यकतानुसार रखना चाहिये ॥६९-७१॥

मुख सीधा होना चाहिये; किन्तु शरीर तीन स्थानों से थोडा झुका होना चाहिये । दाहिना हाथ अभय मुद्रा में हो, जिसका अंगूठे का अन्तिम भाग स्तन तक होना चाहिये । डमरू उठाया हाथ कान की चूली तक उठा होना चाहिये । गज के सूँड के समान बाँयाँ हाथ बाँये पैर के समीप तक होना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को (दूसरे) बाँये हाथ को अग्नि से युक्त निर्मित करना चाहिये एवं बाहु के बराबर ऊँचा रखना चाहिये ॥७२-७३॥

(शिव के) बाहु एवं कक्ष के मध्य का अन्तर उतना ही होना चाहिये । (शिव) व्याघ्र का चर्म धारण करते है । बाँये एवं दहिने हाथ से सर्प की आकृति बनानी चाहिये या वाम हस्त अभय मुद्रा में होना चाहिये । (देवता की) बँधी जटायें तक (बगुले) के पंखो से सजी होती है । उनकी बँधी जटा में कपालों की माला लिपटी होती है एवं उसमें चन्द्रमा होता है । उनके जटाओं की संख्या पाँच, सात या नौ होती है ॥७४-७६॥

उनके वाम भाग में(देवता के) तीन भाग के बराबर गौरी होनी चाहिये एवं दाहिने भाग में नन्दिकेश्वर होना चाहिये । दोनों नृत्य एवं संगीत से प्रसन्न होते है एवं भृङ्गी पूर्ववर्णन के अनुसार नृत्य करते है । (शिव) देव, दानव, गन्धर्व, सिद्ध एवं विद्याधरों से युक्त होते है । उनके दोनों पार्श्वों में मुनिगण होते है एवं वे देवगणों से सेवित होते है । देवता को पीठ पर स्थित या कमल पर स्थित स्थापित करना चाहिये । उनके पैर का आधार अपस्मार होता है एवं यहाँ सर्प भी वर्णित है । नृत्यमूर्ति की पूजा का परिणाम तुरन्त शत्रु का नाश करने वाला होता है ॥७७-७९॥

चन्द्रशेखरमूर्त्ति

चन्द्रशेखर मूर्ति - चन्द्रशेखर की मूर्त्ति को सीधी खड़ी, वरद एवं अभय मुद्रा में हाथों से युक्त एवं कृष्ण (मृग) तथा परशु से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥८०॥

अर्धनारीश्वरमूर्त्ति

अर्धनारीश्वर मूर्त्ति - वाम भाग में उमा एवं दाहिने भाग में ईश होना चाहिये । (दाहिना भाग) अत्यन्त पीत वर्ण की जटा, मुकुट एवं अनेक प्रकार (के अलंकरणों) से अलंकृत होना चाहिये । आधा वाम भाग धम्मिल सीमन्त (माँग) से युक्त होना चाहिये एवं मस्तक पर तिलक होना चाहिये । दाहिने कान में वासुकि सर्प का कुण्डल होना चाहिये । बाँये कान में ताडिक एवं पालिका (आभूषणविशेष) होना चाहिये । ॥८१-८२॥

(दोनों) दाहिने हाथों कें कपाल, शूल या टंक, (परशु) होना चाहिये । बाँये हाथ में कमल होना चाहिये तथा वह केयूर एवं कटक (बाजूबन्द एवं कंगन) से सुसज्जित होना चाहिये । दाहिने बाग में पवित्र (यज्ञोपवीत) हो एवं वाम में अक्षमाला होनी चाहिये । गले का वाम भाग हार से युक्त तथा दक्षिण भाग अग्नि से युक्त होना चाहिये । ॥८३-८४॥

उमा के आधे भाग में स्तन एवं दाहिने (शिव के) भाग में पीन वक्ष होना चाहिये । दाहिने आधे शिव के भाग में कमर पर व्याघ्रचर्म से निर्मित वस्त्र होना चाहिये । उमा वाला आधा भाग कटिसूत्र (करधनी) तथा रंग-बिरंगे वस्त्रों से आच्छादित होना चाहिये ॥८५-८६॥

देवता एवं देवी के दोनो पैर एक ही पद्मपुष्प पर स्थित रहते है; किन्तु वाम पाद नूपुर से सुसज्जित एवं थोड़ा झुका होता है । देवी का वाम पाद अंगुलीय (बिछिया) से अलंकृत होता है ॥८७॥

अथवा, देवता को चतुर्भुज निर्मित करना चाहिये । उमा के (दूसरे हाथ में) शुक होना चाहिये । ईश (शिव) का आधा भाग रक्त वर्ण का एवं उमा का आधा भाग श्याम वर्ण का होना चाहिये । विद्वान व्यक्ति को इन लक्षणों से युक्त अर्धनारीश्वर के रूप का निर्माण करना चाहिये ॥८८-८९॥

हरिहरमूर्त्ति

हरिहर मूर्त्ति - (इस मूर्ति का) आधा भाग विष्णु का एवं आधा भाग ईश्वर (शिव) का होता है । इसे पूर्ववत् निर्मित करना चाहिये । कृष्ण के आधे भाग में शंख एवं दण्ड तथा शिव के आधे भाग में शूल एवं टंक (परशु) होना चाहिये । एकही पद्म पर स्थित (हरि-हर को) उनके अपने-अपने सम्पूर्ण आभरणों से अलंकृत करना चाहिये । वाम भाग विष्णु का एवं दक्षिण भाग शंकर का होता है ॥९०-९१॥

चण्डेशानुग्रहमूर्त्ति

चण्डेशानुग्रह मूर्त्ति - प्रत्यालीढ (धनुष खीचे हुये) देवता के पार्श्व में चण्डेश को स्थापित करना चाहिये । ह्रदय पर हाथ बाँधे हुये चण्डेश प्रकोष्ठ (दोनों बँधे हाथों के मध्य) में परशु लिये हो । वह पुष्पमाला से युक्त, अत्यन्त ऊर्जावान् तथा तेज से युक्त हो । यह चण्डेश्वर प्रसाद रूप है ॥९२॥

कामारिमूर्त्ति

कामारि मूर्त्ति - अब कामारि शिव का रूप-वर्णन किया जा रहा है । देवता के पार्श्व में काम निर्मित होना चाहिए । उसक अरूप कहा जा रहा है । कामदेव पर्यंक के बन्ध (किनारे) बैठे हो एवं अपना हाथ ऊपर उठाये हो । कामारि शिव का रूप उग्र हो एवं उन्हे लक्षणों के अनुसार निर्मित करना चाहिये ॥९३-९४॥

कालनाशमूर्त्ति

कालनाश मूर्त्ति - (शिव का) दाहिना पैर ऊपर उठा हो एवं बाँयाँ पैर मुड़ा होना चाहिये । दाहिने हाथ में शूल एवं बाँये हाथ में परशु होना चाहिये । (दूसरे) दाहिने हाथ में नाग-पाश तथा (दूसरा) वाम हस्त सूचित करता हो । उनका पैर काल के ह्रदय पर हो एवं शूल का मुख नीचे की ओर होना चाहिये । अब कालनाश के विग्रह के बारे में कहा जा रहा है । उनका रूप उग्र एवं दृष्टि भयानक होनी चाहिये ॥९५-९७॥

दक्षिणामूर्ति

दक्षिणामूर्त्ति - शिव का दाहिना हस्त शिक्षा देने की मुद्रा में हो एवं दूसरे हाथ में अक्षमाला होनी चाहिये । बाँये हाथ में पुस्तक एवं अग्नि होनी चाहिये । देवता को श्वेत वर्ण का एवं त्रिनेत्रयुक्त निर्मित करना चाहिये ॥९८॥

उनके केश पिङ्गल वर्णे से आवृत होते है एवं चन्द्रमा से युक्त होते है । (उनके केश) कपाल मन्दार एवं धत्तूर के पुष्प से अलंकृत होते है । वह आसीन होते है तथा उनके दाहिने ऊरू पर वाम चरण शयित (फैला, टिका) होता है । पीठ पर वे आसीन होते है एवं पैर के आधार (पैर के नीचे) पर अपस्मार का निर्माण करना चाहिये । उनके दोनो पार्श्वों में ऋषिगण होते है । दक्षिणामूर्त्ति देव पर्वत के शिखर पर स्थित होते है एवं वे पशु-पक्षी एवंमुनियों के स्वामी है ॥९९-१०१॥

भिक्षाटनमूर्त्ति

भिक्षाटन मूर्त्ति - भिक्षाटन मूर्ति को नग्न रूप, त्रिलोचन एवं चार भूजाओं से युक्त होना चाहिये । बाँये हाथ में मयूरपूँछ एवं कपाल होता है । दाहिना हाथ हिरण के मुख तक गया होता है एवं दूसरा हाथ डमर लिये ऊँचा उठा होता है । पैर पादुक (जूता, चप्पल) से युक्त होते है । देवता चलने के लिये तत्पर होते है ॥१०२-१०३॥

कङ्कालमूर्त्ति

कंकाल मूर्त्ति - अथवा महेश्वर आठ भुजाओं, चार भुजाओं या चार भुजाओं या छः भुजाओं से युक्त होते है । ये मणियों, मोतियों एवं नागों से सुसज्जित होते है । सर्प का कुण्डल (दाहिने कान में) होता है तथा बाँये में पालिक या पत्र होता है । उनकी कटि क्षुरिका से आभूषित होती है । देवता व्याघ्रचर्म का वस्त्र धारण किये, श्वेत वर्ण के एवं तीन नेत्रों से युक्त होते है ॥१०४-१०५॥

देवता के पैर पादुक से सुसज्जित होते है एवं हाथ में तुटिकार्ध (कच्छप के आधे खोल से निर्मित पात्र) होता है । ये सभी आभूषणों से आभुषित एवं सभी भूतों से युक्त होते है । आवेशयुक्त स्त्रियों से घिरे हुये एवं सुन्दर वेष से युक्त कंकालमूर्त्ति शिव होते है ॥१०६॥

मुखलिङ्ग

मुखलिंग - अब मै (मय) सभी इच्छाओं की सिद्धि के लिये मुखलिङ्ग का वर्णन कर रहा हूँ । शिवभाग की चौड़ाई लिङ्ग की ऊँचाई के दस भाग में तीन भाग के बराबर होती है । कन्धों के लिये दस में दो भाग, गले के लिये एक भाग, मुख के लिये तीन भाग, शिरोभाग के लिये एक भाग, मुकुट के लिये दो भाग, एक भाग मुखविष्कम्भ के लिये होना चाहिये । लिङ्ग के ऊपरी भाग की चौड़ाई भी उसी प्रकार होनी चाहिये । विष्णु एवं पितामह के भाग ऋषि-लिङ्ग के अनुसार होने चाहिये ॥१०७-१०९॥

ललाट, बाल-चन्द्र, मुख, ओष्ठ, नासिका, नेत्र, कर्ण, गण्ड (कपोल) सभी के विषय में जैसा कहा गया है, वैसा ही होना चाहिये । शास्त्रज्ञ को इसे मान एवं उन्मान (लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई) के प्रमाण से निर्मित करना चाहिये ॥११०-१११॥

चारो मुखों का अलंकरन अब वर्णित किया जा रहा है । पूर्व दिशा का मुख तत्पुरुष संज्ञक, तीन नेत्रों से युक्त एवं स्मित (मुस्कुराहट) युक्त होता है । जटाजूट चन्द्र से युक्त एवं कुङ्कुम के समान (रक्त वर्ण का) होता है । ये नक्रकुण्डल (मकराकृति कुण्डल) से सुशोभित होते है एवं इनके नेत्र कमल-पत्र के सदृश होते है ।

इनका दक्षिण मुख अघोर संज्ञक होता है । आँखे एवं मुख सिंह के समान होते है । इनका वर्ण राजावर्त (लाजावर्त) के समान होता है एवं सर्प से आवृत एवं जटायें चन्द्रमा से युक्त होती है । यह मुख दाढ़ से युक्त, मोटी जिह्वा से युक्त, भूरी दाढी-मूँछों से युक्त एवं तीन नेत्रों से युक्त होता है ॥११४-११५॥

देवता का पश्चिम मुख प्रसन्न रहता है । ये रत्नों एवं कुण्डल से मण्डित होते है । बँधी जटा सर्प एवं अर्धचन्द्र से युक्त होती है । मुख पूर्ण चन्द्र के समान होता है । इसे सद्योजात कहते है । उत्तर मुख बन्धूकपुष्प के समान होता है । जटाजूट चन्द्रमा से युक्त होता है एवं मस्तक पर तिलक होता है । युवतियों के आभरणों से युक्त देवता का मुख धम्मिल (केशसज्जाविशेष) से प्रकाशमान रहता है । मुखलिङ्ग एक, दो, तीन या चार मुखों से युक्त होता है ॥११६-११८॥

षण्मुख

षण्मुख - सभी आभूषणोंसे आभूषित षण्मुख का सौन्दर्य कुंकुम के रंग का होता है । उनके दाहिने एवं बाँये पीले एवं श्याम वर्ण की गजा एवं वल्ली संज्ञक देवियाँ सभी आभूषणों से आभूषित निर्मित होती है ॥११९॥

ग्राम आदि वास्तुओं के मध्य में एवं चारो दिशाओं में षण्मुख की मूर्ति प्रशस्त होती है । वीथियों के अग्र भाग या मध्य भाग में तथा ईशान कोण में षण्मुख वृद्धि प्रदान करते है । भोग के लिये इनकी स्थापना पश्चिम में एवं मोक्ष के लिये मध्य में करनी चाहिये ॥१२०-१२१॥

गणाधिप

गणाधिप - गणाधिप गजमुख, एकदन्त, समस्थित, तीन नेत्रों से युक्त, लाल वर्ण के, चार भुजाओं वाले, भूत रूप, बड़े उदर वाले, सर्प के यज्ञोपवीत वाले होते है । इनके उरू एवं जानु सघन होते है । ये पद्मासन पर स्थित होते है । इनका वाम पाद शयित मुद्रा में एवं दक्षिण पैर मुडा होता है । इनकी सूँड बाँयी ओर मुड़ी होती है ॥१२२-१२३॥

दाहिने दोनों हाथों से दाँत एवं अंकुश पकड़े होते है । दोनों वाम हस्तों में अक्षमाला एवं लड्डू देना चाहिये । (गणाधिप) का शिरोभाग करण्डिका (शिरोभूषण) से सुसज्जित होता है एवं वे हार आदि आभूषणों से आभूषित होते है ॥१२४-१२५॥

इस प्रकार गणाधिप को खड़ा या पद्मपीठ पर आसीन निर्मित करना चाहिये । नृत्य करते हुये इनकी छः या चार भुजायें होती है । मूषक इनका वाहन एवं केतु (ध्वज, पहचान) होता है ॥१२६॥

सूर्य

सूर्य - सूर्य का बडा रथ एक चक्र, सात अश्वों एवं आगे अरुण (सूर्य का सारथि) से युक्त रहता है । दो हाथो वाले, हाथ में कमल-पुष्प से युक्त (सूर्य देव का) वक्ष कञ्चुक से आच्छादित रहता है । इनके सुन्दर केश अकुञ्चित (सीधे) होते है तथा प्रभामण्डल से युक्त होते है अथवा ये कोशवेष्टन (लम्बे वस्त्र) से युक्त होते है एवं स्वर्ण तथा रत्नों से सुसज्जित रहते है । उन्हे मुकुट से एवं अन्य सभी अलंकरणों से युक्त करना चाहिये ॥१२७-१२८॥

सूर्य को एक मुख एवं स्कन्धयुक्त दो बाहु होते है । इन्हे हाथ में कमल एवं पुरुष की आकृति से युक्त निर्मित करना चाहिये । इन्हे अश्व पर आरूढ़ या पद्म पर स्थित निर्मित करना चाहिये, जो पूजा के अनुकूल हो । सिन्दूर वर्ण के सूर्यमण्डल में श्याम वर्ण की देवी उषा एवं सुवर्ण वर्ण की प्रत्यूषा की स्थापना करनी चाहिये ।॥१२९-१३१॥

(सूर्य की प्रतिमा) चार भुजाओं से युक्त होने पर दो हाथों में रक्त कमल होता है । अन्य दो हाथ अभय एवं वरद मुद्रा में होते है । उनका सारथि अरुण दो हाथो से युक्त होता है एवं वह रथ पर स्थित होता है ॥१३२॥

सम्पूर्ण लोक के एकमात्र जीवात्मा सूर्यदेव सदा ही हीन शरीर (सम्पूर्ण शरीर) वाले होते है । दिन के स्वामी सूर्य की स्थापना करनी चाहिये; क्योंकि यही ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि देव है । इनके बाँये एवं दाहिने पार्श्व में देवी प्रभा एवं सन्ध्या होती है । उनके चारो ओर पन्द्रह आवरणों (पंक्तियों) में ग्रहों एवं अन्य परिवार को स्थापित करना चाहिये । आगम ग्रन्थों में इनके नित्य पूजन एवं उत्सवपूजन की विधि वर्णित है । इनका ध्वज एवं वाहन सिंह ही कहा गया है ॥१३३-१३५॥

दिक्पालका

इन्द्र

इन्द्र - देवों के राजा शचीपति इन्द्र हाथ में वज्र धारण किये हुये; सिंह के समान स्कन्ध वाले; विशाल नेत्रो वाले; किरीट, कुण्डल, हार एवं केयूर धारण किये हुये; गज वाहन वाले; दो भुजाओं वाले; श्याम वर्ण वाले; रक्त वर्ण के वस्त्र धारण किये हुये; सुखी; ललाट, वक्षःस्थल एवं पैरों में सभी आभूषण धारण किये हुये; विशाल नेत्रों वाले तथा चौड़ी ग्रीवा वाले होते है ॥१३६-१३८॥

अग्नि

अग्नि- अग्निदेव का स्वरूप वृद्ध व्यक्ति के समान होता है । ये अर्धचन्द्राकार आसन पर स्थित रहते है । इनकी ज्योति प्रकाशमान सुवर्ण के सदृश होती है । इनकी आँखे एवं भौंहें पिङ्ग (भूरे) रंग की होती है । इनकी दाढ़ी सोने की कूँची के समान होती है एवं इसी प्रकार इनके केश होते है । इनका वस्त्र उदित होते हुये सूर्य के सदृश होता है एवं यज्ञोपवीत भी उसी प्रकार होता है ॥१३९-१४०॥

(अग्निदेव) दाहिने हाथ में अक्षमाला एवं बाँये हाथ में करक (मिट्टी का पात्र) धारण किये रहते है । ये सात अस्त्र-शस्त्रों से युक्त होते है । इनकी जटा एवं दाढ़ी से सात प्रकार की किरणे प्रकाशित होती रहती है । इनकी माला से प्रज्ज्वलित ज्वाला निकलती रहती है । इनके पार्श्व में अंशु-मन्डल निर्मित रहता है ॥१४१॥

(अग्निदेव) मेष पर सवार एवं कुण्ड में स्थित रहते है । ये योग-पट्ट से लिपटे होते है । इनक एदाहिने रत्नकुण्डल से विभूषित स्वाहा निर्मित होती है । पिङ्ग वर्ण के आभरणों से सुसज्जित पुण्य अग्नि सभी याजों के अनुकूल होते है ॥१४२-१४३॥

यम

यम - (यमराज) हाथ में दण्ड धारण किये हुये, (दूसरे हाथ में) पाश धारण किये हुये एवं जलती हुई अग्नि के समान नेत्रों वाले होते है । ये बड़े भैंसे पर सवार होते है एवं इनका शरीर नीले अञ्जन के समान प्रकाशमान रहता है ॥१४४॥

यम के दोनों पार्श्वों में उनके ही समान सहायक पुरुष होते है । उनका वक्षःस्थल दिव्य तथा विस्तृत होता है एवं वे शक्तिशाली संहारो (अस्त्रों) से युक्त होते है । वे द्वार पर खड़े होते है, क्रोधयुक्त होते है एवं सम्पूर्ण लोकों को भयभीत करते है । (यम के) दाहिने एवं बाँये पार्श्व में चित्रगुप्त एवं कलि होते है । ये दोनो कृष्ण एवं श्याम (गहरे रंग) के होते है, लाल वस्त्र धारण किये होते है तथा सावधान मुद्रा में होते है ॥१४५-१४६॥

महिष ध्वज एवं वाहन वाले, आसीन यम के पीठ के पार्श्व में उग्र तेज वाले मृत्यु एवं सहिता स्थित होते है । उनके दोनों पार्श्वो में नील वर्ण एवं रक्त वर्ण की दो चामरधारिणी स्त्रियाँ होती है । बाँये एवं दक्षिण पार्श्व में धर्म एवं अधर्म होते है । इस प्रकार यम का वर्णन मेरे (मय के) द्वारा किया गया ॥१४७-१४८॥

निऋति

निऋति - निऋति विशाल नेत्र वाले, हाथ में खड्‌ग लिये हुये, बड़ी भुजाओं वाले, पीले वस्त्रों वाले, शव पर आरूढ, नीले रंग के, अत्यन्त बलशाली, सभी अलंकारों से युक्त, सहायकरहितः किन्तु संसार के स्वामी है ॥१४९-१५०॥

वरुण

वरुण - वरुणदेव शङ्ख एवं कुन्द के पुष्प के समान उज्ज्वल, हाथ में पाश लिये, अत्यन्त शक्तिशाली है । हार, केयूर एवं सुन्दर कुण्डलों से सुसज्जित, पीला वस्त्र धारण, अतुलनीय, सोने के वर्ण वाले एवं सभी को प्रसन्नता देने वाले है । ये आसीन मुद्रा में या मकर पर खड़े रहते है ॥१५१-१५२॥

वायु

वायु - वायुदेव हाथ में ध्वज लिये, अत्यन्त बलशाली, ताँबे के समान नेत्र वाले, धूम के समान वर्ण वाले, मुड़ी भौहों वाले, विचित्र वर्णो के वस्त्र वाले एवं आभूषणों से सुसज्जित होते है । इन्हे मृग पर आरूढ़ निर्मित करना चाहिये ॥१५३॥

कुबेर

कुबेर - बुद्धिमान व्यक्ति को कुबेर की प्रतिमा को इस प्रकार निर्मित करना चाहिये । वे सभी यक्षों के स्वामी , मुकुट आदि से सुशोभित, तप्त सुवर्ण के समान वर्ण वाले, वर प्रदान करने वाले तथा अभय प्रदान करने वाले हाथों से युक्त होते है । ये मेष पर आरूढ़, हाथ में गदा लिये दौ पैर एवं दो हाथों से युक्त होते है । नर पर आरूढ़ कुबेर शङ्ख एवं पद्मनिधियों को धारण करते है । इन्हे सभी आभूषणों से युक्त एवं देवी के साथ निर्मित करना चाहिये ॥१५४-१५६॥

चन्द्र

चन्द्र - चन्द्रमा सिंहासन पर आसीन होते है । ये कुन्द एवं शङ्ग के समान श्वेत वर्ण के होते । (चन्द्रमा) प्रभामण्डल से युक्त होते है तथा दो भुजाओं एवं श्वेत वस्त्र धारण किये होते है । ये आसीन या खड़े हो सकते है । उनके प्रकाशमान हाथ में कुमुदपुष्प होता है । (चन्द्रमा का) यज्ञोपवीत सुवर्णनिर्मित होता है । सोम सौम्य एवं घटते-बढ़ते रहते है । ये श्वेत माला एवं वस्त्र से युक्त, सोने के समान एवं लाल नेत्रों वाले होते है ॥१५७-१५८॥

रेवती एवं रोहिणी धान्य के अंकुर से युक्त होती है । इनके नेत्र कमलपुष्प के समान प्रकाशमान होते है । ये दोनो पवित्र तथा कृष्ण वस्त्र धारण करती है । पश्चिम दिशा में हाथ में चामर-व्यजन धारण किये निशा एवं ज्योत्सना होती है । निशा चन्द्रमा की गौरी (पत्नी) है एवं ज्योत्सना मानवों की प्रकाश होती है ॥१५९-१६०॥

ईशान

ईशान - ईशान वृष पर सवार, अत्यन्त तेजस्वी, श्वेत वर्ण के एवं श्वेत नेत्रों वाले होते है । ये हाथ में त्रिशूल लिये, संसार के स्वामी, तीन नेत्रों वाले एवं लोक का कल्याण करने वाले होते है ॥१६१॥

काम

कामदेव - कामदेव सोने के समान, अच्छी प्रकार से सभी आभरणों से सुसज्जित, दो बाहुओं वाले, सुन्दर आकृति वाले, सौम्य एवं नवयुवा होते है । ये पीठ पर आसीन या रथ पर आसीन होते है एवं सम्पूर्ण लोकों द्वारा पूजित होते है ॥१६२-१६३॥

हैम, मद, राग एवं वसन्त उनके साथी है । तापनी, दाहिनी, सर्वमोहिनी, विश्वमर्दिनी एवं मारणी कामिनी के दाँत - ये उनके पाँच शर है । ईख से निर्मित धनुष एवं पञ्चशर पश्चिम में वर्णित है । उनके दाहिने भाग में रति होती है । इनकी शोभा श्याम वर्ण की होती है । ये सभी आभूषणों से आभूषित तथा सुन्दर बड़े केशों से प्रकाशमान होती है । इस प्रकार काम का वर्णन किया गया है । इनका ध्वज मकर होता है ॥१६४-१६६॥

अश्विनी

दोनों अश्विनीकुमार - (दोनों अश्विनीकुमार) अश्व-रूप वाले, सिंहासन पर बैठे हुये, दाडिमी पुष्प के समान वर्ण वाले, अपने कन्धों पर यज्ञोपवीत धारण किये रहते है । ये दोनों चिकित्सक होते है एवं दो स्त्रियाँ चमर धारण किये होती है । (उन स्त्रियों में एक) मृत सञ्जीवनी पीत वर्ण की होती है (तथा दूसरी) विशल्यकरणी पीछे लाल रंग की होती है । दो स्त्रियाँ पीत एवं पिङ्गल (लालिमायुक्त) वर्ण की होती है । बाँयी ओर धन्वन्तरि एवं आत्रेय रहते है । ये दोनों पीत एवं रक्त वर्ण के एवं कृष्ण वस्त्र धारण किये रहते है ॥१६८-१७०॥

वसव

वसुदेवगण - (वसु देवगण) हाथ में खड्‌ग एवं खेटक धारण किये, सभी आभूषणों से सुसज्जित, दो भुजाओं वाले, रक्त वर्ण के, पीत वस्त्रों से युक्त एवं पवित्र होते है । बैठे हुये खड़ी मुद्रा में ये आठों वसु भयानक होते है । धर, ध्रुव, सोम, आप, अनल, अनिल, प्रत्यूष एवं प्रभाव- ये आठ वसु कहे गये है ॥१७१-१७२॥

मरुद्गणा

मरुद्‌गण - (मरुतों के) केश जूट में आबद्ध होते है, जिन्हे सुन्दर स्त्रियाँ अपने स्तनों पर लटकाती है । सभी दिव्य पुरुष धारण करते है तथा सभी उत्तम दुकूल वस्त्र धारण करते है । आठों मरुद्‌गण सभी यज्ञो के योग्य होते है ॥१७३-१७४॥

रुद्र विद्येश्वर

रुद्र एवं विद्येश्वर - रुद्र देवगण रुद्राग्नि (भयानक अग्नि) के समान होते है । (विद्येश्वर) नील लोहित, जीमूत (बादल) के वर्ण के, कुंकुम (लाल) वर्ण के तथा कृष्ण वर्ण के होते है । ये चतुर्भुज, तीन नेत्रों वाले, टङ्क शूल एवं जटाधारी होते है । ये वरद एवं अभय मुद्रा में हाथ वाले, क्षौम वस्त्र धारण किये हुये तथा पवित्र होते है ॥१७५-१७६॥

सभी यज्ञो से युक्त आठ विद्येश्वर अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्कृष्ट, एकनेत्रक, एकरुद्र, त्रिमूर्ति, श्रीखण्ड तथा शिकण्डिक कहे गये है ॥१७७॥

क्षेत्रपाल

क्षेत्रपाल - (क्षेत्रपाल) तामस रूप वाले तथा प्रलयकालीन मेघ के समान कृष्ण वर्ण वाले होते है । सात्त्विक (रूप में) दो या चार भुजाओं से युक्त एवं राजस (रूप में) छः भुजाओं एवं तामस (रूप में) आठ भुजाओं से युक्त होते है । गोचर भूमि में उनके लिये उचित स्थान होता है । दो भुजाओं में कपाल तथा शूल एवं चार भुजाओं में खट्‌वांग एवं परशु होता है । दो भुजायें वरद एवं अभय मुद्रा में होती है ॥१७८-१७९॥

(छः हाथों में) दाहिने हाथो में शूल, असि एवं घण्टा होता है तथा वाम हस्तों में खेटक, कपाल एवं नागपाश कहे गये है ॥१८०॥

आठ हाथ होने पर पूर्वोक्त शस्त्रों के साथ धनुष एवं बाण होते है । रक्त वर्ण के गुणों से युक्त (राजस रूप में) इनके केश ऊपर उठे हुये एवं लहराते रहते है । भौहें मुड़ी होती है, तीन नेत्र तथा दो भयानक दाँतों से युक्त (क्षेत्रपाल) होते है । ॥१८१-१८२॥

(क्षेत्रपाल) मार्ग के अन्त में गणों के संरक्षक, बालरूप तथा कुत्ते पर सवार होते है । इनकी स्थापना ग्राम आदि वास्तुक्षेत्रों के बाहर, द्वार पर, वन में, पर्वत पर होनी चाहिये । इनकी दिशा ईशान के पूर्व भाग में पर्जन्य पर एवं दिति के पद पर क्रमशः होनी चाहिये । पद्मासन पर आसीन (क्षेत्रपाल) सभी इच्छाओं को पूर्ण करते है । छः या चार भुजाओं से युक्त ये कुत्तों, कुक्कुटों एवं अन्य जीवों द्वारा सेवित होते है तथा सिद्ध एवं योगियों द्वारा घिरे होते है ॥१८३-१८५॥

चण्डेश्वर

चण्डेश्वर - चण्डेश्वर श्वेत वर्ण मिश्रित सुन्दर लाल रंग की शोभा से युक्त होते है । इनकी दो भुजायें होती है । इनके केश पत्रों से आच्छादित होते है तथा ये शंख एवं पत्र से युक्त होते है । (चण्डेश्वर) यज्ञोपवीत धारण किये हुये, श्वेत वर्ण की माला एवं वस्त्र पहने हुये पवित्र होते है । इनके हाथ ह्रदय के पास जुड़े होते है । इनकी भुजाओं में टङ्क (परशु) होता है । ये पुष्पमालाओं से सुसज्जित, अर्धचन्द्राकार आसन पर आसीन होते है । सभी आभूषणों से सुसज्जित, जटाधारी या केशबन्ध से युक्त (चण्डेश्वर) होते है ॥१८६-१८८॥

आदित्या

आदित्यगण - सभी बारह भास्कर दो भुजाओं वाले, हाथों में कमलपुष्प लिये, लाल पद्मासन पर स्थित, रत्नकुण्डल से युक्त, सभी आभूषणों से आभूषित एवं लाल वस्त्र धारण किये रहते है । (बारह आदित्य इस प्रकार है-) अर्यमा, मित्र, वरुणांश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, पर्जन्य, त्वष्टा, विष्णु, अजघन्य तथा जघन्यज ॥१८९-१९१॥

सप्तर्षय

सप्तर्षिगण - सप्तर्षिगण उपदेश देने की मुद्रा में मुख एवं हाथो वाले, जटाजूट से युक्त, पीत वर्ण के तथा अनेक वर्णों के वस्त्र धारण किये हुये होते है । (अथवा) ये दो भुजाओं वाले, पिङ्गनेत्रों (ललाईयुक्त नेत्रों) वाले, पीत वर्ण के, अत्यन्त वृद्ध, रक्त वर्ण के वस्त्र पहने हुये, केशभार (जटा-जूट) को धारण किये एवं विभिन्न प्रकार के आभूषणों से आभूषित होते है ॥१९२-१९३॥

सप्तरोहिण्य

सात रोहिणी - सप्त रोहिणीगण सुन्दर रूप वाली, सोने के समान वर्ण वाली, नागों से आभूषित, श्वेत वस्त्र धारण की हुई आसीन या खड़ी मुद्रा में होती है ॥१९४॥

गरुड

गरुड - तार्क्ष्य (गरुड) गोल रक्त वर्ण के नेत्रों से युक्त, पीत वर्ण के, अत्यन्त बलशाली, दो भुजाओं वाले, अञ्जलिबद्ध अथवा थोडी उठी जंघाओं पर हाथ टिकाये हुये, पाँच वर्ण वाले कञ्चुक धारण किये हुये, सीसनिर्मित पक्षों से युक्त, दाँतो से युक्त, श्याम वर्ण की नासिका वाले, करण्ड एवं मुकुट से प्रकाशमान,नागों के आभूषणों से युक्त, कानों में पीत वर्ण के पत्रों को धारण किये हुये, लाल वस्त्र पहने हुये, सर्पों के शत्रु एवं विष्णुवाहन होते है ॥१९५-१९७॥

शास्ता - मोहिनी के पुत्र शास्ता दो भुजाओं वाले, श्याम वर्ण के, पीठ पर स्थित, (बाँये) पैर को मोड कर दाहिना पैर लटकाये रहते है । इनकी वाम भुजा गज के सूँड के समान होती है तथा घुटने एवं ऊरु के बाहर (पीठासन पर टिकी) रहती है । वे गोलाई वाले अथवा टेड़े दण्ड को (हाथों में) धारण किये रहते है । इनके कोमल काले घुँघराले केश फैले रहते है ॥१९८-२००॥

ये वाहन एवं ध्वज (दोनों में) गज से युक्त, हार आदि से अलंकृत होते है । अथवा जब ये चार भुजाओं एवं तीन नेत्रों वाले होते है, तब उनका ध्वज सर्वत्र कुक्कुट (मुर्गा) होता है ॥२०१॥

(शास्ता) ज्ञानी, योगासन मुद्रा में आसीन, सदा अध्ययन करने वाले, पवित्र दोनों कन्धों पर यज्ञोपवीत धारण किये हुये, युवा, वीरासन से युक्त, उल्लासयुक्त, गीत-भाव वाले, देव-भाव वाले तथा सुखासन में स्थित होते है । ये वाम ऊरु के ऊपर दाहिना पैर टिकाये स्थित होते है ॥२०२-२०३॥

(शास्ता) नौ शक्तियों से तथा चौसठ योगिनियों से युक्त होते है । पूर्णा एवं पुष्कला देवियाँ उनके वाम एवं दक्षिण भाग में होती है । इनका वर्ण कृष्ण एवं सुवर्ण के समान होता है । दोनों सौगन्ध्य पुष्प लिये, सभी अलंकारों से सुसज्जित एवं पीत तथा श्वेत वस्त्र धारण किये रहती है ॥२०४-२०५॥

इनके वाम हस्त में मधु होता है । ये मधु के समान शोभा वाले, दो भुजाओं वाले, मांसल शरीर वाले, खिले मुख वाले एवं लम्बे उदर वाले होते है । इनके वाम हस्त में शीधु-पात्र (मधु-पात्र) एवं दाहिने हाथ में दण्ड निर्मित करना चाहिये । इनके द्वारपाल शक्ति धारण करने वाले, दण्ड एवं लांगल से युक्त होते है ॥२०६-२०७॥

देवों के प्रिय शास्ता को वर्णान्तर (छोटी जाति के) आश्रमस्थान में, वेश्या के आवास में, दुर्गम में, निगम में, खर्वट में एवं खेट में स्थापित करना चाहिये । ग्राम आदि वास्तुओं के मध्य में, बाहर, दक्षिण द्वार पर कल्याणेच्छुओं को देवभावी एवं ज्ञानभावी (शास्ता) का निर्माण करना चाहिये । नगर एवं पत्तन में गीतभावी की स्थापना करनी चाहिये ॥२०८-२१०॥

मातृका

मातृकायें - अब मै (मय) मातृकाओं के लक्षण, स्थापन एवं स्थान के विषय में कहता हूँ । ये ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी तथा काली है । इनके दक्षिण एवं वाम भाग में वीरभद्र एवं विनायक रहते है ॥२११-२१२॥

वीरभद्र

वीरभद्र - वीरभद्र वृष पर आरूढ, हाथ में शूल लिये, गदा धारण किये, हाथ में वीणा लिये अथवा (नीचे के हाथ) वरद एवं अभय मुद्रा में होते है । ये चार भुजाओं एवं तीन नेत्रों से युक्त होते है । ये जटा धारण किये हुये एवं जटा में चन्द्रमा धारण किये होते है । सभी आभूषणों से युक्त, श्वेत वर्ण के एवं वृषध्वज वाले (वीरभद्र) पद्मासन से युक्त देवता वटवृक्ष का आश्रय लिये होते है । लोकों के स्वामी, कल्याण करने वाले (लोकेश, शंकर) शम्भु मातृकाओं के आगे स्थित होते है ॥२१३-२१५॥

ब्रह्माणी

ब्रह्माणी - ब्रह्माणी को ब्रह्मा के समान निर्मित करना चाहिये । ये चार मुखों वाली; विशाल नेत्रो वाली; तप्त सुवर्ण के समान वर्ण वाली; वरद मुद्रा, अभयमुद्रा, शूल तथा अक्षमाला से युक्त चार भुजाओं वाली; रक्तकमल के आसन पर आसीन; वाहन एवं ध्वज में हंस से युक्त तथा व्याघ्रचर्म से युक्त होती है ॥२१६-२१७॥

माहेश्वरी

माहेश्वरी - माहेश्वरी को तीन नेत्रोंवाली, लाल वर्ण की, हाथ में शूल लिये, वृषध्वज से युक्त, वरद तथा अभय मुद्रा से युक्त हाथों वाली, अक्षमाला से युक्त, जटा एवं मुकुट से युक्त, शम्भु (के अनुसार, उन्ही के समान) आभूषित, चन्दन के वृक्ष से युक्त तथा वृष पर आरूढ़ होती है ॥२१८-२१९॥

कौमारी

कौमारी - वस्त्र से मुकुट बाँधे हुये, शक्ति एवं कुक्कुट धारण करने वाली, रक्त वर्ण की, अत्यन्त शक्तियुक्त, हार एवं केयूर से आभूषित, वरद एवं अभय मुद्रा में हस्ते से युक्त, कुंकुम के समान प्रभा वाली, सभी आभूषणों से आभूषित, मयूरध्वज से युक्त एवं मयूर पर आरूढ, उदुम्बर वृक्ष का आश्रय ली हुई कौमारी देवी का प्रकल्पन बुद्धिमान मनुष्य को करना चाहिये ॥२२०-२२१॥

वैष्णवी

वैष्णवी - विद्वान व्यक्ति को वैष्णवी का निर्माण इस प्रकार करना चाहिये- वह देवी शंख एवं चक्र धारण किये हो एवं (शेष दो) हाथ वरद एवं अभय मुद्रा में हो । उन्हें अच्छी प्रकार खड़ी, श्याम वर्ण की, पीत वस्त्र धारण की हुई एवं सुन्दर नेत्रों से युक्त निर्मित करना चाहिये । गरुड़ध्वज एवं वाहन वाली (वैष्णवी) पीपल के वृक्ष से संयुक्त होती है । ये विष्णु के आभूषणों से अलंकृत होती है ॥२२२-२२३॥

वाराही

वाराही - वरद एवं अभय हस्त वाली वाराही कृष्ण के समान होती है । हल एवं मुसल को धारण कर चर्मवस्त्र से युक्त होती है । शंख वर्ण की (वाराही) वरद, अभय एवं दण्ड को हाथ में धारण करती है । (बड़े) दाँतो वाली, विशाल शरीर वाली, प्रकाशमान मुकुट एवं किरीट से युक्त, कृष्ण वस्त्र धारण करने वाली देवी सभी आभूषणों से आभूषित होती है । (वाराही) करञ्ज के वृक्ष के युक्त तथा महिष ध्वज एवं वाहन से युक्त होती है ॥२२४-२२६॥

इन्द्राणी

इन्द्राणी - (इन्द्राणी) किरीट एवं मुकुट से युक्त एवं सभी आभूषणों से सुसज्जित होती है । हाथ में वरद एवं अभय मुद्रा तथा पाश एवं कमल धारण किये होती है । ये चन्द्रमा के समान होती है । बुद्धिमान व्यक्ति को इन्द्राणी को कल्पद्रुम से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥२२७-२२८॥

चामुण्डी

चामुण्डी - चामुण्डी देवी कपाल लिये, शूल धारण की हुई, वरद एवं अभय मुद्रा में हाथ वाली होती है । (अथवा) उनकी आठ भुजायें होती है । शूल एवं कपाल (के अतिरिक्त), वाम हस्त में दण्ड, धनुष, खड्‌ग, खेटक, पाश एवं बाण धारण किये रहती है । इनकी आठ भुजायें कही गई है । इनके दस हाथ (भी) कहे गये है । सभी का पूर्व में वर्णन किया गया है । (इनके अतिरिक्त हाथों में) डमरु एवं शूल कहा गया है । ये रक्तवर्ण के नेत्रों वाली, कुटिका पर आसीन एवं स्तनोंपर सर्पबन्ध धारण किये रहती है ॥२२९-२३१॥

वह शिरों (मुण्डो) की माला धारण किये रहती है । वह पतले उदर वाली शव पर आरूढ होती है । ये मांसरहित खुले मुख वाली, लम्बी जिह्वा वाली, तीन नेत्रों वाली, व्याघ्रचर्म धारण की हुई होती है । इसके केश ज्वाला के सदृश एवं सर्पो से युक्त होते है । ये अभीष्ट प्रदान करती है । काली, पतले अंगो वाली, कृष्णा, वट वृक्ष का आश्रय ली हुई है, बड़े दाँतो एवं भयानक मुख वाली चामुण्डा गृध्रध्वज से युक्त होती है ॥२३२-२३३॥

विनायक

विनायक - बुद्धिमान व्यक्ति को विनायक का स्वरूप पूर्व-वर्णन (१२२-१२५ श्लोक) के अनुसार निर्मित करना चाहिये ॥२३२॥

मातृका स्थापन

मातृकाओं की स्थापना - मातृकाओं की स्थापना ग्राम से दूर, ग्राम के उत्तर या ईशान कोण में की जानी चहिये । इन्हे त्रिशूल के आकार के शूल एवं वस्त्रों से व्याह्रत (जागृत, मन्त्रयुक्त) करना चाहिये । (अथवा) दिशाओं के द्वार के पास इन्हे पूर्वमुख या उत्तरमुख स्थापित करना चाहिये ॥२३५॥

(इसके पश्चात) इन्हे ब्रह्मस्थान पर दक्षिणक्रम से क्रमशः स्थापित करना चाहिये । इससे शान्ति, पुष्टि, जय, आरोग्य, भोग, ऐश्वर्य एवं आयु की वृद्धि होती है । इससे विपरीत होने पर निस्सन्देह शत्रुता होती है ॥२३६-२३७॥

पूर्ववर्णित विधान के अनुसार यदि मध्य में ब्रह्माणी स्थापित होती है तो यह प्रतिष्ठा सभी को मोहित करती है एवं सभी कामनाये परिपूर्ण होती है । यदि मध्य में चामुण्डी की स्थापना की जाय तो प्रतिष्ठित होने पर प्रजा (सन्तति) की प्राप्ति होती है । (मातृकाओं की स्थापना) कामासन में होने पर योग, वीरासन में होने पर शान्ति प्राप्त होती है । सुखासन में (प्रतिष्ठा) होने पर सभी कामनाओं की प्राप्ति होती है ॥२३८-२३९॥

पुनः चामुण्डी

विद्वान व्यक्ति को काश्ठ, मृत्तिका या सुधा (चूना-गारा) से आठ, दस, बारह या सोलह भुजाओम से युक्त चामुण्डी का निर्माण करना चाहिये । अथवा आठ भुजाओं से युक्त नृत्यमुद्रा में चामुण्डी का निर्माण आवश्यकतानुसार करना चाहिये । इसे सन्ध्यानृत्य (शिव) के समीप अथवा जिस प्रकार सन्ध्यानृत्य

होता है, उस प्रकार निर्मित करना चाहिये या लोक की शान्ति के लिये (चामुण्डी के) चार या छः भुजायें निर्मित करनी चाहिये ॥२४०-२४२॥

परिवार

परिवार - द्वार के बाहर स्थित दो दौवार्यों (द्वारपालों) की स्थापना करनी चाहिये । ये शूल आदि धारण करने वाले भूत होते है । ये भयानक भूतों के समूह से युक्त एवं पिशाचों से घिरे होते है ॥२४३॥

मण्डप के भीतर दो सुन्दर, युवा, रक्त तथा श्याम वर्ण की स्त्रियाँ योगिनी कही गई है । ये हाथमें कपाल की अस्थि लिये होती है एवं व्याल से युक्त होती है । इनके केश माँग से युक्त, धम्मिल शैली में (सजे) होते है तथा मुकुट से प्रकाशमान होते है । ये (दोनो योगोनियाँ) सभी प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित, सुन्दर मुख तथा तीन नेत्रों से युक्त होती है ॥२४४-२४५॥

उसी स्थान पर भूत, वेताल एवं डाकिनी आदि को स्थापित करना चाहिये । मन्त्रशास्त्र द्वारा वर्णित यामल विधि से नित्योत्सव करना चाहिये ॥२४६॥

लक्ष्मी

लक्ष्मी - पद्मासन पर आसीन लक्ष्मि दो भुजाओं से युक्त एवं सुवर्ण आभा वाली होती है । उनके (दोनो कुण्डलों में से एक) नक्र-कुण्डल (तथा दूसरा) शंखकुण्डल होता है एवं वह कुण्डल सुवर्ण एवं रत्नों से प्रकाशमान होता है । वे यौवनसम्पन्न, सुन्दर अंगो वाली, मुडे हुये भौंहो से लीला करती हुई, गोल मुख वाली, कर्णपूर (कान में आभूषण) से युक्त एवं कमल के समान नेत्रों से युक्त होती है । इनके ओष्ठ लाल वर्ण के, कपोल भरे हुये तथा स्तन कञ्चुक से ढँके होते है । शिर का श्रृंगार शंख, चक्र, माँग एवं कमल से होता है । दाहिने हाथ में पद्म होता है एवं बाँये हाथ में श्रीफल होता है । इनका मध्य भाग सुन्दर तथा ब़डे नितम्ब सुन्दर वस्त्रों से लिपटे रहते है । ये मेखला, कटिसूत्र एवं सभी आभूषणों से अलंकृत होती है । इनका शिरोभाग करण्डक से सुशोभित होता है एवं ये कमलासन पर आसीन होती है ॥२४७-२५१॥

उनके पार्श्व में दो स्त्रियाँ हाथ में चामर धारण किये रहती है । दो हाथियों को सूँड में कुम्भ लेकर उन्हे (लक्ष्मी देवी को) स्नान कराते हुये दिखाना चाहिये ॥२५२॥

गृह में पूजा-योग्य लक्ष्मी चार भुजाओं से युक्त होती है । इनके हाथ वरद एवं अभय मुद्रा में होते है । वे रक्त वर्ण के पद्म की आभा के समान अरुण वर्ण की होती है । वे सभी आभूषणों से सुसज्जित, तपे हुये सोने के समान आभा वाली होती है । (लक्ष्मी) पर्यङ्कबन्ध मुद्रा में श्वेत कमल पर आसीन होती है । इस प्रकार अभीष्ट पल प्रदान करने वाली लक्ष्मी देवी को निर्मित करना चाहिये ॥२५३-२५५॥

यक्षिणी

यक्षिणी - हेममाला यक्षिणी लक्ष्मी के लक्षणों से युक्त, किन्तु गज से रहित परिलक्षित होनी चाहिये । यह सिद्ध एवं अप्सराओं से सेवित होती है । किन्नर के साथ गान करती हुई यक्षों एवं गन्धर्वो से सेवित होती है । ग्राम आदि वास्तुओं में भीतर एवं बाहर इनकी स्थापना होनी चाहिये ॥२५६-२५७॥

कात्यायनी

कात्यायनी - कात्यायनी देवी किरीट एवं मुकुट से युक्त, सभी अलंकरणों से सुसज्जित, दस भुजाओं से युक्त तथा महिष का सिर काटने के लिये उद्यत होती है । इनके (दाहिने हाथ में) शक्ति, बाण, मुसल, शूल तथा खड्‌ग एवं बाँयें हाथ में क्रमशः चर्म, वराखेट, पूर्ण चाप, अङ्कुश तथा नागपाश होते है । इनके सभी करकमलों में सभी अस्त्र होते है ॥२५८-२५९॥

ये सुन्दर वस्त्रों से युक्त, नीले केशों वाली, नील कमल के पत्र के समान नेत्रों वाली, तीन नेत्रों वाली, सुन्दर अंगो वाली, उन्नत एवं पीन वक्षो वाली, सुन्दर मध्य भाग वाली, श्याम वर्ण की तथा स्तनों पर सर्पबन्ध धारण किये होती है । ये सिंह पर आरूढ, सिंह-ध्वज से युक्त एवं सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये होती है । दस भुजाओं वाली कात्यायनी महिष के सिर पर खड़ी रहती है ॥२६०-२६२॥

दुर्गा

दुर्गा - दुर्गा देवी चार भुजाओं से युक्त पंकज के आसन पर स्थित होती है । इनके हाथ वरद एवं अभय मुद्रा में होते है तथा (शेष दो हाथों में) शंख एवं चक्र धारण किये रहती है । अष्ट भुजाओं से युक्त होने पर (पूर्वार्णित पदार्थों में से) खेटक एवं शक्ति से रहित होती है एवं शुक धारण करती है । वह दुर्गा है तथा दुर्ग एवं ग्रामादि वास्तुओं में विशेष रूप से (स्थापित) होती है ॥२६३-२६४॥

सरस्वती

सरस्वती - सरस्वती देवी श्वेत वर्ण की, सिर पर जटा धारण किये, चार भुजाओं वाली, श्वेत कमल के आसन पर आसीन, रत्नकुण्डल से सुसज्जित, यज्ञोपवीत से युक्त, सुन्दर मोतियों का हार धारण की हुई, सुन्दर नेत्रों वाली, दाहिने हाथ में व्याख्यान-मुद्रा एवं अक्षसूत्र धारण किये तथा (वाम हस्तों में) पुस्तक एवं कुण्डिका धारण किये रहती है । ये तीन नेत्रों वाली, सुन्दर रूप वाली, ऊपर उठे सीधे मुख वाली तथा सभी मुनियों से सेवित होती है । कल्याण की कामना करने वाली द्वारा वास्तु के मध्य में चारो दिशाओं में इनकी स्थापना होनी चाहिये ॥२६५-२६७॥

ज्येष्ठा

ज्येष्ठा - ज्येष्ठा देवी लम्बे ओठों वाली, ऊँची नासिका वाली, लम्बे स्तनों एवं उदर वाली, हाथ में कमल लिये ज्येष्ठा महालक्ष्मी की बड़ी (बहन) है । पीठ पर आसीन, कलि की देवी, पीठ पर पैर लटकाये रहती है । ये लाल वर्ण का वस्त्र धारण करती है । इनका वर्ण श्याम है तथा ये अमृत से उत्पन्न है । सभी आभूषणों से युक्त एवं शिर पर वस्त्र का बन्ध धारण करती है । ये काकध्वज से युक्त तथा साराल के तिलक से युक्त होती है ॥२६८-२७०॥

उनका पुत्र वृष के समान मुख वाला, सुखासन में आसीन, हाथ में दण्ड धारण किये, बड़ी भुजाओं वाला होता है । वह ज्येष्ठा के दक्षिण में होता है । उनकी पुत्री ज्येष्ठा के वाम भाग में होती है । वह सुन्दर स्तनों वाली, युवावस्था से युक्त अंगो वाल, सुन्दर वस्त्रों वाली, सुन्दर नेत्रों वाली, कृष्ण वर्ण की एवं सभी आभूषणों से आभूषित होती है । अथवा प्रत्येक द्वार पर, प्रत्येक स्थान पर भित्तियों के ऊपर युवा स्त्री होना चाहिये ॥२७१-२७३॥

भूमि

भूमि - धान्य के अंकुर के समान भूमि कमलपुष्प के समान बड़े नेत्रो वाली होती है । ये तिलक एवं केशों से युक्त एवं सभी आभरणों से अलंकृत होती है । भूमि हाथ में पुष्प धारण किये सुन्दर रूप वाली, करण्ड एवं मुकुट से प्रकाशमान, पीले वस्त्र धारण किये, सभी प्राणियों को धारण करने वाली एवं पीठ पर आसीन होती है ।॥२७४-२७५॥

पार्वती

पार्वती - पार्वती देवी प्रसन्नमुख, सौम्य दृष्टी वाली, सुन्दर रूप वाली, सभी आभूषणों से युक्त, श्यामवर्ण की, दो भुजाओं वाली, दुकूल वस्त्र धारण की हुई, हाथ में पुष्प लिये, अत्यन्त सुन्दर होती है । चारो दिशाओं में, मध्य में या भल्लाट के पद पर सुसम्पन्न एवं परिवार (सहायकों) से युक्त पार्वती की स्थापना करनी चाहिये । सिद्ध एवं विद्याधर स्त्रियों से सेवित (पार्वती) सभी अभिलषित कामनाओं की पूर्ण करती है ॥२७६-२७८॥

सप्तमाता - सप्तमाता को ग्राम एवं नगर के बाहर स्थापित करना चाहिये । ये स्थूल शरीर की, बडे उदर वाली, पार्श्व में दो वधुओं से युक्त, श्याम वर्ण की, बड़े नेत्रों वाली, लाल वस्त्र धारण किये तथा दो भुजाओं से युक्त होती है । ये विशेष रूप से भूत, प्रेत एवं पिशाच आदिसे सेवित होती है ॥२७९-२८०॥

बुद्ध

बुद्ध - बुद्धदेव पर्यङ्कबन्ध मुद्रा (एक के ऊपर दूसरा पैर रखकर, पालथी मार कर बैठना) में आसीन रहते है । अपनी गोद में अपने हाथ ऊपर की ओर (हथेली किये) रक्खे रहते है । ये रक्त वर्ण का वस्त्र धारण किये, रक्त वर्ण का उत्तरीय (चादर, ऊपर ओढने का वस्त्र) ओढे तथा दो भुजाओं वाले होते है । पिङ्ग वर्ण (पीला, भूरा) वस्त्र धारण किये, सिर पर विना किसी आभूषण के, सिंहासन के ऊपर (स्थित बुद्धदेव) इन्द्र आदि देवों से सेवित रहते है । यक्ष, विद्याधर, सिद्ध तथा गन्धर्व आदि उनकी सेवा करते है । इस प्रकार अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष से संयुक्त बुद्ध के रूप का निर्माण करना चाहिये ॥२८१-२८३॥

जिन - जैन (जिन) नीले (काले) अञ्जन के समान वर्ण वाले, अशोक वृक्ष द्वारा सेवित होते है । इनका आसन स्थानक मुद्रा (खड़ी प्रतिमा) में वर्णित है तथा इनका आसन (पीठ) सिंह या पद्म होता है । इनका (एक) हाथ बगल में लटका रहता है तथा (दूसरा) स्तनान्त पर टिका होता है । इनका माप देवों के अनुसार रखना चाहिये । इनके चामर ग्रहण करने वाले का मान देवता के अंगुल-मान से तीस अंगुल का होता है । शेष मान पूर्ववर्णन के अनुसार आवश्यकतानुसार रक्खा जाना चाहिये । इनका रूप वस्त्ररहित होता है । तीन छत्रों से युक्त ये देवों एवं अमरों (अन्य देवों) द्वारा सेवित होते है । पार्श्व में स्थित उनकी भुजाये लताओं एवं रत्नों से युक्त होती है । प्रत्येक अपने वर्ण से युक्त होते है । इनकी दो भुजायें होती है । उनके पार्श्व में यक्षेन्द्र एवं अपराजित होते है । उनका शीर्ष (जिन देव के) कमर तक होता है । इन दोनों को पूर्ववर्णित नियमों के अनुसार शिल्पशास्त्र के तलस्पर्शी विद्वानों द्वारा निर्मित करना चाहिये ॥२८४-२८७॥

सामान्यविधि

सामान्य नियम - इसी प्रकार अन्य देवों का भी निर्माण करना चाहिये तथा उनके चिह्नो को भी प्रदर्शित करना चाहिये । सर्पो को सात या तीन भोगों (कुण्डलियों) से युक्त तथा राक्षसों एवं पिशाचों को भयानक स्वरूप वाला निर्मित करना चाहिये । प्रेत तथा भूत-वेताल आदि सभी को यथोचित रीति से निर्मित करना चाहिये । उन्हे अनुकूल स्थान पर रखना चाहिये । इस प्रकार मैने (मय ने) संक्षेप में प्रतिमाओं के लक्षण का वर्णन किया ॥२८८-२९१॥

बेरमान

प्रतिमाओं के प्रमाण -

यजमान (स्थापक) के बराबर ऊँचा बेर श्रेष्ठ, आठ भाग कम मध्यम तथा उससे एक भाग कम अधम (छोटा, हीन) होता है । इसे (यजमान की) रुचि के अनुसार या उसे पृथक्‍ इच्छानुसार निर्मित करना चाहिये । अथवा (प्रतिमा यजमान के) स्कन्ध, स्तनान्त या नाभि तक निर्मित करनी चाहिये । ये (क्रमशः) श्रेष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ होती है । (किन्तु यदि यजमान) कूबड़युक्त या बौना हो तो (यजमान के प्रमाण को) छोड़ देना चाहिये ॥२९२-२९३॥

धाम (मन्दिर), गर्भगृह, स्तम्भ, द्वार अथवा निर्माण करने वाले की ऊँचाई के अनुसार लम्बोच्च मान को बराबर अंगुल-मान से बाँटना चाहिये । बुद्धिमान व्यक्ति को अंगुलच्छेद (भिन्न) को छोड़कर संख्या की वृद्धि या हानि (कम) कर पूर्ण संख्या कर लेनी चाहिये । इसे इस प्रकार करना चाहिये, जिससे आय, व्यय, नक्षत्र, वार, अष्ट योनियाँ एवं अंशक शुभ हों ॥३९४-३९५॥

ऋषियों के अनुसार आय एवं व्यय क्रमशः लाभ एवं हानि के कारण होते है । मूर्त्ति की ऊँचाई को आठ, नौ एवं तीन से गुणा करना चाहिये । प्राप्तांक को क्रमशः बारह, आठ, आठ से विभाजित करना चाहिये । इससे आय, व्यय एवं योनि का ज्ञान होता है । यदि आय अधिक हो एवं व्यय कम हो तो इससे सम्पत्ति (लाभ) प्राप्त होती है । आठ योनियों में ॥२९६-२९८॥

ऐसा कहा गया है कि श्रेष्ठ बेर स्तम्भ के डेढ़ भाग के बराबर होता है । अथवा स्तम्भ की ऊँचाई के नौ भागों में आठ भाग के बराबर या आठ में सात भाग के बराबर (मूर्त्ति की ऊँचाई के) दो प्रकार के प्रमाण प्राप्त होते है ॥२९९॥

इस प्रकार बेर के प्रमाण का अनेक प्रकार से वर्णन किया गया है । श्रेष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ तीन प्रकार की प्रतिमाओं के अनुसार ऊँचाई पन्द्रह, दस या पाँच हाथ की होती है । इनका मान छोटे एवं बड़े गृहों के अनुसार, प्रासाद के हस्त-मान के अनुसार रखना चाहिये ॥३००-३०१॥

इकतीस अंगुल से प्रारम्भ कर नौ हाथ, सात अंगुल तक छः-छः अंगुल बढ़ते हुये प्रतिमा की ऊँचाई का मान रखना चाहिये । पाँच हाथ से बारह हाथ (चौड़े) विमा (मन्दिर) के तैतीस ऊँचाई के प्रमाण के ज्ञाता मनीषियों द्वारा वर्णित है ॥३०२-३०३॥

जङ्गबेरमानानि

जंगम प्रतिमाओं के प्रमाण - महान ऋषियों के अनुसार चल प्रतिमाओं की ऊँचाई मूल प्रतिमा के सात, छः, पाँच भाग अथवा चार, तीन एवं दो भाग के बराबर रखनी चाहिये ॥३०४॥

चल प्रतिमा की ऊँचाई लिङ्ग के मान के अनुसार होती है । हीन प्रतिमा लिङ्ग के पूजा भाग के बराबर, मध्यम प्रतिमा उससे आधी भाग अधिक होती है । श्रेष्ठ प्रतिमा उसकी (पूजाबाग की) दुगुनी होती है । (अथवा) चल प्रतिमा की ऊँचाई लिङ्ग के पूजा भाग की ऊँचाई की आधी, तीन चौथाई या उसके बराबर ऊँची होती है । इस प्रकार चल प्रतिमा दो प्रकार की होती है ॥३०५-३०६॥

तेरह अंगुल से प्रारम्भ कर दो-दो अंगुल क्रमशः बढ़ाते हुये इकतीस अंगुल तक चल प्रतिमा के दस प्रकार की ऊँचाई के प्रमाण बनते है । मनुष्यों के (आवास) गृह में निर्मित होने वाली प्रतिमा तीन अंगुल से प्रारम्भ कर आधा-आधा अंगुल बढ़ाते हुये पन्द्रह अंगुल तक ( ऊँची ) होती है । अथवा, यजमान के अंगुल से प्रमाण ग्रहण करना चाहिये । छोटी मूर्तियों के लिये यव के प्रमाण का प्रयोग करना चाहिये ॥३०७-३०९॥

द्वारपाल

नन्दी तथा काल पूर्व दिशा में, दण्डी एवं मुण्डी दक्षिण में, वैजय एवं भृङ्गरीटी पश्चिम में तथा गोप एवं अनन्तक उत्तर दिशा में होते है । इन्हे क्रमशः दक्षिण-क्रम से (प्रथम नाम दाहिनी ओर) स्थापित करना चाहिये ॥३१०॥

इन द्वारपालों के वर्ण इस प्रकार कहे गये है - श्याम वर्ण (नन्दी), कुंकुम के समान वर्ण (काल), इन्द्रक वर्ण अर्थात इन्द्रनील वर्ण (दण्डी), लाल वर्ण (मुण्डी), श्वेत वर्ण (वैजय), मयूर के कण्ठ के समान वर्ण (भृङ्गरीटी), नील पद्म के समान वर्ण (गोप) तथा काला वर्ण (अनन्तक) ॥३११॥

इनके आयुध इस प्रकार है - दण्ड, टङ्क, तीक्ष्ण नोक से युक्त खड्‌ग, भिण्डिपाल, वेल, शूल, वज्र एवं स्फुरित शिखा से युक्त शक्ति । ये चार भुजाओं से युक्त, तीन या दो नेत्र तथा उग्र दाँतो से युक्त होते है । इनके मुकुट के तल शूल से युक्त होते है तथा अंगो पर सर्प अंकित होते है ॥३१२॥

प्रत्येक के एक हाथ सूची के समान, दूसरा अर्धचन्द्र के समान तथा अन्य हाथ खिले हुये कमल के समान होते है । उनके शरीर उचित मांस से युक्त होते है । देवों के समान उनके चेहरे भयरहित होते है; किन्तु (देखने वालों के लिये) भय उत्पन्न करते है । ये प्रचण्ड स्वरूप वाले होते है । ये विभिन्न कार्यों के लिये उपयुक्त होते है । ये हात में शूल धारण किये, केशों से युक्त शिवालय में स्थापित होते है ॥३१३॥

सभी के प्रमाण नौ ताल कहे गये है । विद्वान्‍ शिल्पियों को ताल-प्रमाण के क्रम को हर के द्वारा उपदिष्ट शास्त्र (आगम) के अनुसार ग्रहण करना चाहिये । सभी के एक पैर मुड़े होने चाहिये । मन्दिरों में इन्हे द्वारपाल के रूप में स्थापित करना चाहिये । सभी प्रकाश से युक्त, सर्पों से सुसज्जित एवं इच्छानुसार वस्त्रों से युक्त होते है ।॥३१४॥

आगम-परम्परा के अनुयायियों के लिये यहाँ ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं कुमार आदि प्रमुख देवों के आकार, वर्ण, आभूषण, वाहन, स्थान, ध्वज, आयुध, उनके आसन आदि का वर्णन किया गया है ॥३१५॥

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Last Updated : January 20, 2012

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