मयमतम् - अध्याय २३

मयमतम्‌ नामक ग्रंथमे संपूर्ण वास्तुशास्त्रकी चर्चा की गयी है। संपूर्ण वास्तु निर्माणमे इस ग्रंथको प्रमाण माना गया है। 


तत्र प्राकारविधान

चार दीवारी एवं सहायक देवपरिवार के स्थान का विधान - बुद्धिमान ऋषियों ने देवालय की रक्षा के लिये, शोभा के लिये एवं परिवार (सहायक देव, सेवकवर्ग) के लिये प्राकार का वर्णन जिस प्रकार किया गया है, उसका वर्णन अब किया जा रहा है ॥१॥

प्राकारमान

प्राकार का मान - प्रधान देवालय की चौड़ाई को चार पद में बाँटना चाहिये । प्रथम साल (प्राकार) की संज्ञा 'महापीठ' है एवं इसमें सोलह पद होते है । द्वितीय साल की संज्ञा 'मण्डूक' (चौसठ पद), मध्य साल (तृतीय) की संज्ञा "भद्रमहासन' (एक सौ छत्तीस पद), चतुर्थ 'सुप्रतीकान्त' (चार सौ चौरासी पद) एवं पाँचवे की संज्ञा 'इन्द्रकान्त' (एक हजार चौबीस पद) होती है (ये पाँच प्रकार होते है) । ॥२-३॥

(उपर्युक्त प्राकारभेद) युग्म संख्या वाले पदों के अनुसार वर्णित है । अब असम संख्या के अनुसार (प्राकार) वर्णन किया जा रहा है । विमान (देवालय) का मात्र एक पद होता है । प्रथम साल 'पीठ' (नौ पद), दुसरा 'स्थण्डिल' (उनचास पद), मध्य साल (तृतीय) 'उभयचण्डित' (एक सौ उनहत्तर पद) संज्ञक, चौथ 'सुसंहित' (चार सौ इकतालीस) संज्ञक एवं पाँचवाँ 'ईशकान्त' (नौ सौ इकसठ पद) संज्ञक होता है ॥४-५॥

चतुष्कोण क्षेत्र के अग्र भाग की लम्बाई का वर्णन ऊपर किया जा चुका है । यह लम्बाई (मन्दिर के चौड़ाई की) क्रमशः सवा, डेढ़, तीन, चौथाई एवं दुगुनी होती है । प्राकारों के अग्र भाग की लम्बाई दुगुनी, ढाई गुनी, तीन गुनी या चार गुनी कही गई है ॥६-७॥

छोटे मन्दिरों में भी अत्यन्त छोटे मन्दिर की चौड़ाई के डेढ़ बाग की दूरी पर (प्रथम प्राकार) 'अन्तर्मण्डल', उसके आगे उतनी ही दूरी तीन हाथ पर दूसरा प्राकार, उससे पाँच हाथ दूरी पर तीसरा प्राकार, उससे सात हाथ की दूरी पर चौथा प्राकार एवं नौ हाथ की दूरी पर पाँचवाँ प्राकार होना चाहिये ॥८-९॥

(छोटे मन्दिर के) मध्यम कोटि के देवालय की चौड़ाई के आधे माप की दूरी पर अन्तरमण्डल की रचना की जाती है । दूसरा प्राकार पाँच हाथ की दूरी पर होता है । तीसरा साल (प्राकार) सात हाथ की दूरी पर, चतुर्थ साल नौ हाथ की दुरी पर एवं पाँचवाँ ग्यारह हाथ की दूरी पर होना चाहिये ॥१०-१२॥

(छोटे देवालयों के) उत्तम श्रेणी के देवालयों का प्रथम साल उसकी चौड़ाई के आधे माप की दूरी पर होना चाहिये । दूसरा साल सात हाथ की दुरी पर, तीसरा नौ हाथ की दूरी पर, चौथा ग्यारह हाथ कि दूरी पर एवं पाँचवाँ तेरह हाथ की दूरी पर होना चाहिये । इस प्रकार अत्यन्त छोटे, क्षुद्र-मध्यम एवं क्षुद्र उत्तम कोटि के देवालय के सालों (प्राकारों) का वर्णन किया गया ॥१३-१५॥

बुद्धिमान व्यक्ति को इस विधि से या पूर्वोक्त क्रम से चारो ओर प्राकार की रचना करनी चाहिये । इसके मुखभाग की लम्बाई पूर्व-वर्णित रखनी चाहिये । माप के ज्ञाता भित्ति के भीतर से माप लेते है । कुछ विद्वानों के अनुसार भित्ति के मध्य से एवं कुछ के अनुसार भित्ति के बाहर से माप लेना चाहिये ॥१६-१७॥

प्राकारभित्ति

अन्तर्मण्डल की भित्ति का विष्कम्भ (मोटाई) डेढ़ हाथ होना चाहिये । इसके आगे के प्राकारों के विष्कम्भो का माप तीन-तीन अङ्गुल बढ़ाते हुये दो हाथ तक क्रमानुसार ले जाना चाहिये । पाँचो सालो (प्राकारों) का विष्कम्भ इस प्रकार ग्रहण करना चाहिये । उनके विष्कम्भ-मान से उनकी ऊँचाई तीन गुनी या चार गुनी अधिक होनी चाहिये । अग्र भाग (ऊपरी भाग) का विस्तार (मूल से) आठ भाग कम होना चाहिये ॥१८-१९॥

प्राकार की ऊँचाई उत्तर के अन्त तक या (स्तम्भ के) कुम्भ या मण्डि तक रखनी चाहिये । प्राकार को मसूरक से युक्त एवं खण्डहर्म्य से सुसज्जित होना चाहिये । यह भित्ति सीधी हो अथवा बुद्बुद (गोल सजावटी बिन्दु) या अर्धचन्द्र उसके शीर्षभाग पर सुसज्जित होना चाहिये ॥२०-२१॥

(छोटे देवालयो के) सबसे छोटे मन्दिर के सालों की भित्ति (प्राकारों की मोटाई) हस्त-प्रमाण से होती है । इसे डेढ़ हाथ से प्रारम्भ होकर पूर्व-वर्णित रीति (तीन-तीन अङ्गुल) से क्रमानुसार बढ़ाना चाहिये ॥२२॥

प्राकार-शीर्ष उत्तर, वाजन एवं छत्र से युक्त होता है । इसकी ऊँचाई भित्ति के चौड़ाई के बराबर, सवा भाग या डेढ़ भाग अधिक होनी चाहिये । ऊँचाई को ग्यारह भागों में बाँटना चाहिये । तीन भाग से उत्तर, तीन भाग से वाजन, दो भाग से अब्ज एवं तीन भाग से क्षेपण की क्रमानुसार योजना करनी चाहिये । भित्ति (का बाहरी भाग) सीधा अथवा खण्डहर्म्य से युक्त हो सकता है । यह अधिष्ठान से प्रारम्भ होकर (ऊँचाई पर) निर्गम से युक्त होता है ॥२३-२५॥

आवृतमण्डप

भित्ति के भीतरी भाग में एक, दो या तीन तल से युक्त आवृतमण्डप का निर्माण करना चाहिये । भित्ति बाहर से सीधी होती है । निचले तल के तीन भाग में से दो भाग के बराबर ऊपरी तल का मान रखना चाहिये । अथवा यह चतुर्थांश या आठवाँ भाग हीन हो सकता है । या इसकी ऊँचाई बाहरी भित्ति के बराबर हो सकती है । यह मालिका की आकृति वाली या महावार (बड़ा बरामदा) से युक्त होती है ॥२६-२७॥

बाह्य भित्ति की सबसे अधिक ऊँचाई प्रधान देवालय की निचली भूमि के स्थलभाग से उत्तर पर्यन्त, प्रस्तर तक, खण्डहर्म्य के उत्तर तक अथवा शिखर पर्यन्त हो सकती है ॥२८-२९॥

दो या एक तलयुक्त मण्डप (देवालय) के चाओ ओर हो सकता है । यह अधिष्ठान से युक्त, उसके बराबर ऊँचा, आठ भाग कम या तीन चौथाई ऊँचा ओ सकता है । मण्डप के स्तम्भ (अधिष्ठान से) दुगुने ऊँचे या (दुगुने से) आठ या छः भाग कम ऊँचे हो सकते है ॥३०-३१॥

सालशीर्षालङ्कार

प्राकार के शीर्षभाग के अलङ्करण - साल (प्राकार) के शीर्षभाग पर वृषभ या बूतों का स्वरूप अङ्कित करना चाहिये । मूल देव-भवन का जन्मतल (अधिष्ठान) साल के जन्म से एक हाथ ऊँचा रखना चाहिये ॥३२॥

अधिष्ठानोत्सेध

अधिष्ठान की ऊँचाई - क्षुद्र देवालय में शेष सालों मे प्रत्येक साल छः-छः अङ्गुल कम होता जाता है । मध्यम देवालय में अट्ठारह अङ्गुल का अन्तर होता है । प्रत्येक साल में (प्रथम से) पाँचवे तक चार-चार अङ्गुल कम होता जाता है । स्थपति को इसी विधि से साल-योजना करनी चाहिये ॥३३-३४॥

परिवारालयविधान

देव-परिवार के भवन का विधान - परिवार देवालय (प्रधान देव-मूर्ति से पृथक्‌ देव-परिवार का मन्दिर, जो मन्दिर परिसर में बने होते है) के गर्भगृह का मान प्रधान देवालय के विस्तार का आधा होता है । इस तीसरे भाग, आधा, तीन चौथाई के बराबर भी रक्खा जाता है । इस भवन का विस्तार तीन, चार, पाँच, छः या सात हात रखना चाहिये ॥३५॥

शास्त्र के ज्ञाताओं के अनुसार आथ, बारह, सोलह या बत्तीस परिवार-देवता होते है । परिवार-देवों की मूर्ति की ऊँचाई नियमानुसार होनी चाहिये । जो प्रमाण सकल बेरों (बेरों, पट्टियों पर निर्मित आकृति) के लिये कही गई है, वही प्रमाण श्रेष्ठ स्थपति को ग्रहण करना चाहिये । ये (मूर्तियाँ) सभी लक्षणों से युक्त बैठी या खड़ी मुद्रा में होनी चाहिये ॥३६-३८॥

अष्टौ परिवार

आठ परिवार-देवता - छोटे देवालयों में एक ही प्राकार एवं आठ परिवार देवता होने चाहिये । यदि पीठ-संज्ञक वास्तु-पद हो तो आर्यक के पद से प्रारम्भ कर ऋषभ, गणाधिप, कमलजा (लक्ष्मी), मातृकायें, गुह, आर्य, अच्युत एवं चण्डेश होने चाहिये ॥३९॥

द्वादश परिवार

बारह परिवार-देवता - उपपीठ वास्तुपद पर बारह परिवार-देवताओं की स्थापना करनी चाहिये । पहले की भाँति आर्यक पद से प्रारम्भ कर वृष, कमलजा, गृह एवं हरि होने चाहिये । सूर्य के पद से दाहिनी ओर रवि, गजवदन, यम, मातृकायें, जलेश, दुर्गा, धनद एवं चण्ड क्रमानुसार होने चाहिये ॥४०-४१॥

षोडश परिवार

षोडश परिवार-देवता - उग्र पीठ वास्तुपद पर सोलह देव-परिवार स्थापित करना चाहिये । आर्यक पद पर वृष आदि देवों को पहले के सदृश स्थापित करना चाहिये । ईश, जयन्त, भृश, अग्नि, वितथ, भृङ्गनृप, पितृ, सुगल, शोष,वायु,मुख्य एवं उदिति के पद पर क्रमशः चन्द्र, चन्द्र, सूर्य, गजवदन, श्री, सरस्वती, मातृकायें, शुक्र, जीव, दुर्गा, दिति एवं उदिति होनी चाहिये ॥४२-४४॥

द्वात्रिंशत् परिवार

बत्तीस परिवार-देवता - स्थण्डिल वास्तुपद पर बत्तीस परिवारदेवता स्थापित किये जाते है । ब्रह्मा के पद के बाहर नौ पदो पर श्री, ज्येष्ठा, उमा एवं सरस्वती को क्रमशः साविन्द्र, इन्द्रजय, रुद्रजय एवं आपवत्स के पद पर रखना चाहिये । आर्यक आदि के पद पर वृषभ आदि देवों को पहले की भाँति स्थापित करना चाहिये । ॥४५-४६॥

ईश, पर्जन्य, महेन्द्र, सूर्य, सत्य, अन्तरिक्ष, अनल, पूषा, गृहक्षत, यम, गन्धर्व, मृष, पितृ, बोधन, पुष्पदन्त, वरुण, यक्ष, समीरण, नाग, भल्लाट, सोम, मृग एवं उदिति के पद पर क्रमशः देवों की स्थापना करनी चाहिये । (ये देवता है०) ईश, शशि, नन्दिकेश्वर, सुरपति, महाकाल, दिनकर, वह्नि, बृहस्पति, गजवदन, यम, भृङ्गरीटि, चामुण्डा, निऋति, अगस्त्य, विश्वकर्मा, जलपति, भृगु, दक्ष प्रजापति, वायु, दुर्गा, वीरभद्र, धनद, चण्डेश्वर एवं शुक्त । विद्वानों के कथनानुसार स्थण्डिल वास्तु-विभाग में यह व्यवस्था होनी चाहिये ॥४७-५२॥

वास्तु-विन्यास सम पदों का हो अथवा विषम पदों का हो, परिवार-देवता प्राकार की भित्ति पर निर्मित होने चाहिये । उससे पृथक्‌ होने की स्थिति में मध्य पद के पास होने चाहिये । जहाँ तीन अथवा पाँच प्राकार हो, वहाँ प्रारम्भिक आठ देवता मध्याहार या अन्ताहार पर निर्मित होने चाहिये । यदि देवालय पश्चिम-मुख हो तो मित्र के पद पर वृषभ की स्थिति होनी चाहिये ॥५३-५४॥

कमजल, गृह एवं हरि को भुधर, आर्य एवं विवस्वान् के पद पर होना चाहिये । जिस दिशा में ईश्वर के भवन का मुख हो, उसी दिशा में उनका भी मुख होना चाहिये । शेष देवों को पूर्ववर्णित पदो पर होना चाहिये एवं उनका मुख देवालय की ओर होना चाहिये ॥५५॥

देवालय का मुख चाहे पूर्व दिशा में हो, चाहे पश्चिम में हो, वृष का मुख अथवा पृष्ठभाग शिव की ओर होना चाहिये । चण्डेश एवं गजानन का मुख क्रमशः दक्षिण एवं उत्तर की ओर होना चाहिये । देव-परिवार के भवन सभी अङ्गो से युक्त, उचित रीति से प्रासाद, मण्डप, सभा अथवा शाला के आकार का निर्मित करना चाहिये । ॥५६-५७॥

मध्यहार एवं अन्तर्हार के बीच में मालिका-पङ्क्ति निर्मित होनी चाहिये । यह एक, दो, तिन, चार या पाँच तल की होनी चाहिये । दीवार के ऊपर एवं स्तम्भ के ऊपर स्तम्भ निर्मित होना चाहिये । भित्ति के ऊपर स्तम्भ निर्मित हो सकते है; किन्तु स्तम्भ के ऊपर भित्ति नही निर्मित होनी चाहिये । मालिका-पङ्क्ति को कूट एवं कोष्ठ आदि से युक्त एवं जालभित्ति से अलङ्कृत होना चाहिये । यह मण्डप के आकृति की, शाला या सभा के आकृति की होनी चाहिये ॥५८-६०॥

अब भक्तिमान (विभाजन, दूरी) एवं स्तम्भ का आयाम संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है । प्रधान देवभवन के उपानत् (अधिष्ठान का ऊपरी भाग) से उत्तरपर्यन्त की दूरी को सात बराबर भागों में बाँट कर दो भाग से मसूरक (अधिष्ठान) की ऊँचाई एवं पाँच भाग से स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । स्तम्भ को सबी अङ्गो से युक्त निर्मित करना चाहिये या स्तम्भ के प्रमाण को नौ भागों में बाँटना चाहिये । दो भाग से अधिष्ठान एवं शेष भाग से स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । ढ़ाई हाथ से प्रारम्भ कर छः- छः- अङ्गुल बढ़ाते हुये छः हाथ तक स्तम्भ की ऊँचाई रखनी चाहिये । इस प्रकार स्तम्भों की उँचाई पन्द्रह प्रकार की हो सकती है । भीतरी भित्ति की मोटाई के अनुसार स्तम्भ की चौड़ाई होनी चाहिये । यह भक्तिमान एवं लम्बाई छोटे एवं बड़े सभी देवालयों के लिये समान है । अथवा छः अङ्गुल से प्रारम्भ करके एक-एक अङ्गुल बढ़ाते हुये बीस अङ्गुलपर्यन्त पादविष्कम्भ (स्तम्भ की चौड़ाई) रखना चाहिये । ॥६१-६६॥

अधिष्ठान की ऊँचाइ स्तम्भ की ऊँचाई का आधा, छः या आठ भाग कम या स्तम्भ की ऊँचाई का तीसरा अथवा चौथा भाग रखना चाहिये । यह अधिष्ठान पादबन्ध या चारुबन्ध शैली का होना चाहिये । इसका चतुर्थांश कम प्रस्तर होना चाहिये, जो अलङ्करणों से सुसज्जित हो । इस प्रकार पूर्ववर्णित रीति से उचित ढंग से निर्माणकार्य करना चाहिये ॥६७-६९॥

(जिस प्रकार देवालय में मालिका) उसी प्रकार मनुष्यो के आवास में खलूरिका का निर्माण गृह के चारो ओर होना चाहिये, जो प्रथम आवरण (प्राकार) से लेकर तीसरे प्राकार तक होता है ॥७०॥

उनके द्वारों को अभीप्सित दिशा में मनुष्यों के भवन में कहे गये नियम के अनुसर स्थापित करना चाहिये । (मालिकापङ्क्ति में) परिवार-देवालयों को जिन-जिन पदों में कहा गया है, उन्हे क्रमानुसार वही निर्मित करना चाहिये । आर्यक के पद से प्रारम्भ करते हुये पूर्ववर्णित नियम के अनुसार देवालय की ओर उन्मुख बनाना चाहिये । इन परिवार-देवालयोंके बाहर नृत्य-मण्डप एवं पीठ (वेदी) आदि का निर्माण करना चाहिये अथवा स्नान-मण्डप एवं नृत्य-मण्डप परिवारदेवालय के भीतर भी प्रमाण के अनुसार निर्मित हो सकता है ॥७१-७३॥

पीठलक्षण

पीठ के लक्षण - गर्भगृह के व्यास के आधे प्रमाण से दो पीठों की चौड़ाई एवं ऊँचाई रखनी चाहिये । बलिविष्टर (जहाँ बलि दी जाय) की ऊँचाई एवं चौड़ाई एक, दो या तीन हाथ होनी चाहिये । (पिशाच) पीठ को गोपुर से बाहर प्रासाद की चौड़ाई के आधे भग की दूरी पर निर्मित करना चाहिये । बलिविष्टर की गोपुर से दूरी उपर्युक्त माप के बराबर अथवा तीन चौथाई होनी चाहिये । पिशाचपीठ को पाँचो प्राकारों के बाहर एवं मन्दिर के सम्मुख होना चाहिये तथा बलिविष्टर को पिशाचपीठ एवं प्रासाद के मध्य में निर्मित करना चाहिये ॥७४-७६॥

पीठ की ऊँचाई को सोलह बराबर भागों में बाँटना चाहिये । एक भाग से जन्म, चार भाग से जगती, तीन भाग से कुमुद, उसके ऊपर एक भाग से पट्ट, तीन भाग से कण्ठ, ऊपर एक भाग से कम्प एवं उसके ऊपर दो भाग से वाजन होना चाहिये । ॥७७-७८॥

उसके ऊपर एक भाग से वाजन एवं कमलपुष्प होना चाहिये । कमल का घेरा (पीठ के) व्यास का आधा या तीन चौथाई होना चाहिये । पद्म के ऊपर मध्य भाग में कर्णिका निर्मित करनी चाहिये, जिसका विस्तार पद्म का तीन चौथाई हो । पद्म की ऊँचाई उसकी चौड़ाई का आधा अथवा कर्णिका की ऊँचाई का आधा होना चाहिये । पीठ मध्य भाग में भद्रयुक्त, भद्ररहित या उपपीठ से युक्त हो सकता है । पीठ की आकृति अधिष्ठान के अनुसार या उससे पृथक्‌ हो सकती है । इस प्रकार प्राचीन श्रेष्ठ मुनियों ने पीठ के अलङ्करणों का वर्णन किया है ॥७९-८१॥

प्रासाद के आधे माप से वृषभ के अग्र भाग में ध्वज स्थान का निर्माण होना चाहिये एवं आगे त्रिशिखालय (त्रिशूल) होना चाहिये । ये सभी वृष आदि गोपुर के वाम भाग में (प्राकार के) भीतर होने चाहिये ॥८२॥

प्राकाराश्रितस्थान

प्राकार के आश्रित स्थान - मर्यादि साल (प्राकार) से सटा कर आग्नेय कोण में हवि का प्रकोष्ठ होना चाहिये । अग्निकोण एवं गोपुर के मध्य में धन-धान्य का गृह होना चाहिये । यम के प्रकोष्ठ पर मज्जनशाला (स्नानमण्डप) एवं वही पुष्पमण्डप निर्मित होना चाहिये ॥८३-८४॥

निऋति के स्थान पर अस्त्र-मण्डप एवं वरुण तथा वायु के स्थान पर शयनस्थान निर्मित करना चाहिये ॥८५॥

सोम के पद पर धर्मश्रवण-मण्डप (जहाँ धर्मसभा, धर्मविषयक प्रवचन होते हो ) होना चाहिये । ईश के पद पर एवं आपवत्स के पद पर वापी एवं कूप होना चाहिये । ईश एवं गोपुर के मध्य स्थल में वाद्यस्थान होना चाहिये । विमान के निकट ही ईश के पद पर चण्डेश्वर का स्थान होना चाहिये । अथवा पूर्ववर्णित स्थान पर बुद्धिमान को निर्माण करना चाहिये ॥८६-८७॥

(विमान के) पीठ के सामने विमान के मान के अनुसार शक्तिस्तम्भ होना चाहिये । क्षुद्र (अत्यन्त छोटे) मन्दिर की ऊँचाई के दुगुने माप की शक्तिस्तम्भ की ऊँचाई होनी चाहिये । अल्प (छोटे) विमान का शक्तिस्तम्भ उसके बराबर माप का तथा मध्यम विमान में उसकी ऊँचाई का आधा या तीन चौथाई माप का शक्तिस्तम्भ होना चाहिये । उत्तम विमान में उसकी ऊँचाई के तीसरे या आधे भाग के बराबर शक्तिस्तम्भ की ऊँचाई होनी चाहिये । इसकी चौड़ाई एक हाथ, सोलह अङ्गुल या दश अङ्गुल होनी चाहिये । शक्तिस्तम्भ को मण्डि एवं कुम्भ से युक्त होना चाहिये एवं उसके ऊपर भूत या वृषभ की आकृति होनी चाहिये । यह भाग प्रस्तर या काष्ठ से निर्मित होना चाहिये तथा इसे वृत्ताकार, अष्टकोण या सोलह कोण का होना चाहिये । ॥८८-९१॥

इतर स्थानानि

अन्य स्थान -

वेशस्थान (पुरोहित का आवास), वापी (बावड़ी), कूप, बगीचा एवं दीर्घिका (तालाब) सभी स्थानों में (कही भी) हो सकते है । इसी प्रकार मठ एवं भोजनशाला भी कहीं भी निर्मित हो सकते है ॥९२॥

यदि विमान में एक प्राकार हो तो वह अन्तर्मण्डल न होकर अन्तर्हार होता है । यदि तीन प्राकार हो तो वे अन्तर्हार, मध्यमहार एवं मर्यादाभित्ति होते है । यदि पाँच प्राकार हो (तो वे पूर्ववर्णित होते है) इन प्राकारों के ऊपर चारो ओर पङ्क्ति में वृषभों की आकृतियाँ निर्मित होती है ॥९३-९४॥

शक्तिस्तम्भ से पूर्व प्रधान देवालय की चौड़ाई के तीन, चार या पाँच गुनी दूरी पर गणिकागृह एवं उसके दोनों पार्श्वों में संवाहिका-स्थान होना चाहिये । प्राकार के बाहर चारो ओर (मन्दिर के) सेवकों का आवास होना चाहिये । इसी प्रकार दासियों का आवास होना चाहिये अथवा पूर्व दिशा में सेवकादिकों का आवास होना चाहिये । गुरुमठ (प्रधान पुजारी का स्थान) दक्षिण दिशा में होना चाहिये अथवा पूर्व दिशा में होना चाहिये, जिसका मुख दक्षिण दिशा में हो । शेष के विषय में, जो नही कहा गया है, वह सब राजा के अनुसार करना चाहिये ॥९५-९७॥

विष्णुपरिवारक

विष्णू-देवालय के परिवार -देवता - अब मै विष्णूभवन के परिवारदेवों के विषय में कहता हूँ । प्रमुख स्थान (पूर्व मे) वैनतेय (गरुड़), अग्निकोण में गजमुख, दक्षिण में पितामह एवं पितृपद पर सप्त मातृकायें कही गई है । जलेश के पद पर गुह, वायव्य कोण में दुर्गा, सोम के पद पर धनाधिप कुबेर तथा ईशान कोण पर सेनापति का स्थान होना चाहिये । पीठ आदि की स्थिति पूर्ववर्णित नियमों के अनुसार होनी चाहिये ॥९८-९९॥

(उपर्युक्त व्यवस्था) एक प्राकार होने पर इस प्रकार होनी चाहिये । अब बारह परिवारदेवों का वर्णन किया जा रहा है । विष्णु के सामने चक्र, उसके दाहिने गरुड एवं वाम भाग में शङ्ख होना चाहिये । सूर्य एवं चन्द्रमा गोपुर के दोनों पार्श्वों मे निर्मित हो एवं इनका मुख भीतर की ओर होना चाहिये । आग्नेय कोण में हविष को पकाने का स्थान होना चाहिये एवं शेष निर्माण पूर्ववर्णित नियम के अनुसार होना चाहिये ।॥१००-१०२॥

जहाँ सोलह परिवारदेवों की स्थापना करनी हो, वहाँ उनकी स्थापना मध्यहार एवं अन्तर्हार के बीच में करनी चाहिये । मण्डप के आगे पक्षिराज (गरुड) एवं पीथ होना चाहिये । शिव को छोड़कर सभी लोकपालों को उनके स्थानों पर स्थापित करना चाहिये । कोण एवं द्वारपालों के मध्य भाग मे आदित्य, भृगु, दोनो अश्विनीकुमार, सरस्वती, पद्मा, पृथिवी, मुनिगण एवं सचिवदेवों को स्थापित करना चाहिये । यदि देवपरिवार की संख्या बत्तीस हो तो उन्हे वही उचित रीति से स्थापित करना चाहिये । ॥१०३-१०५॥

चण्ड, प्रचण्ड, रथनेमि, पाञ्चजन्य, दुर्गा, गणेश, रवि तथा चन्द्र-इन सभी महान देवों को तथा सर्वेश्वर एवं सुरपति- इन दस को पाँचों प्राकारों के गोपुर की ओर मुख किये हुये निर्मित करना चाहिये ॥१०६॥

वृषलक्षण

वृषभ के लक्षण - वृष (की प्रतिमा) का लक्षण अब संक्षेप में वर्णित किया जा रहा है । श्रेष्ठ वृष की ऊँचाई द्वार के बराबर या लिङ्ग के बराबर होती है । मध्यम वृष उससे चार भाग कम एवं छोटा वृष तीन भाग में दो भाग के बराबर ऊँचा होता है । (अथवा) छोटे वृष की ऊँचाई गर्भगृह की ऊँचाई की आधी होती है एवं श्रेष्ठ वृष की ऊँचाई गर्भगृह के बराबर होती है । इन दो ऊँचाई के मध्य के अन्तर को आठ भागों में बाँटा गया है । इस प्रकार एक हाथ से लेकर नौ हाथ तक कनिष्ठ आदि तीन(उत्तर, मध्यम, कनिष्ठ ऊँचाई वाले) वृषों के तीन-तीन भेद बनते है । इसमें एक अंश (अङ्गुलप्रमाण) का माप मूर्ति की ऊँचाई के पन्द्रहवे भाग के बराबर कहा गया है ॥१०७-११०॥

इसकी लम्बाई चालीस अङ्गुल होती है । इसके प्रमान का वर्णन अब किया जा रहा है । शिर के ऊर्ध्व भाग से लेकर गले तक का माप द्स अङ्गुल होता है । इसके पश्चात् उसके नीचे गले का माप आठ अङ्गुल तथा गले से ऊरू भाग के अन्त तक का माप सोलह अङ्गुल होता है । ऊरू की लम्बाई का प्रमाण छः अङ्गुल एवं जानु (घुटने) का माप दो अङ्गुल होता है । जङ्घा (घुटने के नीचे का भाग) की लम्बाई छः अङ्गुल एवं खुर की लम्बाई कोलक (दो अङ्गुल) होती है । दोनों सींगों के मध्य की दूरी दो अङ्गुल तथा सींग की लम्बाई दो कोलक (चार अङ्गुल) होनी चाहिये । ॥१११-११३॥

सींग के निचले भाग का व्यास तीन अङ्गुल से एवं ऊपरी सिरा दो अङ्गुल का होना चाहिये । वृष का ललाट नौ अङ्गुल का एवं मुख का व्यास पाँच अङ्गुल का होना चाहिये । मुख की ऊँचाई उसकी चौड़ाई के बराबर रखनी चाहिये । नेत्रों की लम्बाई दो अङ्गुल एवं उसकी ऊँचाई (चौड़ाई के) डेढ़ अङ्गुल होनी चाहिये । नेत्रों के मध्य में मुखभाग की लम्बाई आठ अङ्गुल होनी चाहिये । इसके पश्चात् पृष्ठभाग ग्रीवा के अन्त तक छः अङ्गुल होनी चाहिये । नेत्र के मध्य से ललाट की ऊँचाई चार अङ्गुल कही गई है ॥११४-११६॥

नेत्र से कान की दूरी कान की लम्बाई के बराबर होनी चाहिये एवं कान की लम्बाई पाँच अङ्गुल होनी चाहिये । कानों को मूल में दो अङ्गुल चौड़ा, मध्य में दो अङ्गुल चौड़ा एव ऊपरी भाग एक अङ्गुल चौड़ा होना चाहिये । इनकी मोटाई आधी अङ्गुल होनी चाहिये ॥११७॥

नाक की लम्बाई डेढ़ अङ्गुल, चौड़ाई एक अङ्गुल तथा ऊँचाई एक अङ्गुल होनी चाहिये । मुख की लम्बाई पाँच अङ्गुल, ऊपरी ओठ तीन अङ्गुल तथा निचला ओठ दो अङ्गुल होना चाहिये ॥११८-११९॥

जिह्वा की लम्बाई तीन अङ्गुल, चौड़ाई दो अङ्गुल एवं ऊँचाई (मोटाई) एक अङ्गुल होनी चाहिये । ग्रीवा का व्यास दश अङ्गुल एवं उसका निचला भाग बारह अङ्गुल होना चाहिये । पृष्ठ पर इसका मूल भाग आठ अङ्गुल एवं शीर्ष के नीचे छः अङ्गुल होना चाहिये । ककुत् (पीठ का ऊभरा भाग) का व्यास छः अङ्गुल एवं इसकी ऊँचाइ चौड़ाई की आधी होनी चाहिये ॥१२०-१२१॥

ग्रीवा के अग्र भाग मे ककुत् की चौड़ाई दो अङ्गुल होनी चाहिये । ककुत् तक शरीर की ऊँचाई अट्ठारह अङ्गुल एवं पीठ तक ऊँचाई चौदह अङ्गुल होनी चाहिये तथा व्यास बारह अङ्गुल होना चाहिये । पिछले ऊरुओं की चौड़ाई दश, आठ एवं चार अङ्गुल होनी चाहिये ॥१२२-१२३॥

उनकी लम्बाई पाँच अङ्गुल एवं जानु (घुटना) दो अङ्गुल का होना चाहिये । जङ्घा (घुटने से नीचे का भाग) की लम्बाई पाँच अङ्गुल एवं चौड़ाई चार अङ्गुल होनी चाहिये । खुरों की ऊँचाई तीन अङ्गुल एवं इसी प्रकार पूँछ के मूल भाग का माप (तीन अङ्गुल) होना चाहिये । इसका अग्र भाग डेढ़ अङ्गुल होना चाहिये एवं जङ्घा के अन्त तक यह लटकती होनी चाहिये ॥१२४-१२५॥

मुष्क (अण्डकोश) की लम्बाई तीन अङ्गुल एवं चौड़ाई दो अङ्गुल होनी चाहिये तथा शेफ (लिङ्ग) की लम्बाई तीन अङ्गुल एवं पेट के पास इसकी मोटाई एक अङ्गुल होनी चाहिये ॥१२६॥

ऊरूमल की चौड़ाई चार अङ्गुल एवं आगे जङ्घा के अग्रभाग पर दो अङ्गुल प्रमाण का होना चाहिये । शेष को आवश्यकतानुसार निर्मित करना चाहिये । वृषभ की मूर्ति को खड़ी अथवा शयित (बैठी, फैली हुई) मुद्रा में, जो उचित लगे, निर्मित करनी चाहिये ॥१२७॥

यह प्रतिमा सुधा (चूना, गारा) लौह (धातु) या अन्य पदार्थों से, जो अनुकूल हो, निर्मित होनी चाहिये । प्रतिमा यदि धातुनिर्मित हो तो वह घन (ठोस, पूर्ण रूप से भरी हुई) या खोखली आवश्यकतानुसार हो सकती है । वृषभ की ऊँचाई शिव की मूर्ति की ऊँचाई के अनुसार हो सकती है ॥१२८-१२९॥

इसकाकुछ कम या अधिक होना सभी प्रकार के दोषों को उत्पन्न करता है । अतः ज्ञाता शिल्पी को दोषों को त्यागते हुये सभी लक्षणों से युक्त वृषप्रतिमा का निर्माण करना चाहिये । श्रेष्ठ मुनियों के अनुसार वृषप्रतिमा की ऊँचाई तीन प्रकार की होनी चाहिये. १. शिव-लिङ्ग के द्वार के बराबर उत्तम प्रतिमा,

२. उससे चार भाग कम मध्यम प्रतिमा तथा

३. तीन भाग में से दो भाग के बराबर कनिष्ठ प्रतिमा (इस प्रकार वृष की तीन ऊँचाई वाले प्रमाण की प्रतिमायें होती है) ॥१३०-१३१॥

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Last Updated : January 20, 2012

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