मयमतम्‌ - अध्याय २९

मयमतम्‌ नामक ग्रंथमे संपूर्ण वास्तुशास्त्रकी चर्चा की गयी है। संपूर्ण वास्तु निर्माणमे इस ग्रंथको प्रमाण माना गया है।


राजभवन - अब मै (मय) संक्षेप में बाह्य भाग में नगर एवं शिविर से युक्त राजगृह का वर्णन करता हूँ ।

राजवेश्ममान

राजगृह के प्रमाण - नगर में तीन या चार भाग में पूर्व दिशा में या शालाओं (प्राकारों) के बीच (अथवा विना प्राकारों के) राजभवन होना चाहिये । अधिराज का भवन दक्षिण से पश्चिम भाग में होना चाहिये । पार्ष्णीय आदि राजाओं के भवन नगर के पश्चिम भाग में सात या नौ भाग से होना चहिये । अङ्कुर आदि (राजपुत्रों) के भवन तथा सेनापति के भवन भी वहीं होने चाहिये । विश्वनृपेश्वर (सम्राट) का भवन नगर के तीसरे भाग से मध्य में होना चाहिये ॥१-३॥

नगर के अनुसार राजभवनों का प्रमाण कहा गया है । अब दण्ड-प्रमाण का वर्णन किया जा रहा है । भवन का विस्तार एक सौ चौवालीस दण्ड होना चाहिये । इनमें क्रमशः चार, आठ, बारह एवं सोलह दण्ड कम करते जाना चाहिये । राजभवन का व्यास बत्तीस दण्डपर्यन्त होता है । उपर्युक्त राजभवनों का विस्तार उसी प्रकार बढ़ाना चाहिये, जो पाँच सौ अट्ठाईस दण्डपर्यन्त जाता है एवं जो राजभवन का सबसे बड़ा विस्तार प्रमाण होता है । इस प्रकार बत्तीस दण्ड से प्रारम्भ कर बत्तीस प्रकार के राजभवन के प्रमाण बनते है । राजभवन का ज्येष्ठ या अज्येष्ठ (छोटा) प्रमाण (नगरादि के अनुसार) होना चाहिये ॥४-७॥

लम्बाई चौड़ाई की दुगुनी, दुगुनी से चतुर्थांश कम, डेढ भाग या सवा भाग अधिक होनी चाहिये । साला (प्राकार) का आकार बारह प्रकार का होता है- चौकोर, वृत्त, आयताकार, शकटाकार, नन्द्यावर्त, कौक्कुट (मुर्गे का आकार), गज का आकार, कुम्भ का आकार, स्वस्तिकाकार, गोलाकार, मृदङ्ग का आकार या मग्न (खोखला) होना चाहिये तथा एक मान का प्रयोग करना चाहिये ॥८-९॥

एक बार अभीष्ट लम्बाई एवं चौड़ाई का चयन करने के पश्चात् उसी के अनुसार भवननिर्माण करना चाहिये । यदि भवन निर्मित होने के पश्चात् किसी भी कारण से उससे छोटा है तो वह राजा के लिये अशुभ होता है एवं निरन्तर विपत्तिकारक बनता है । यदि भवन को बाहर बढ़ाकर निर्मित करना अभीष्ट हो तो उसे पुर्व या उत्तर दिशा में बढ़ाना श्रेयस्कर होता है अथवा चारो ओर बढ़ाना चाहिये, ऐसा प्राचीन मनीषियों का मत है ॥१०-११॥

छोटे भवनों की योजना - प्रथम आँगन पूर्व या दक्षिण मे होना चाहिये । भवन के मध्य में पीठ होना चाहिये, जिसकी ऊँचाई एवं चौड़ाई आधा दण्ड हो । यही सह (ब्रह्मा) की वेदी पीठ से चारो ओर एक दण्ड अधिक बड़ी होती है ॥१२-१३॥

वेदी की दक्षिण तीस हाथ की दुरी पर सीध में राजा का भवन होना चाहिये । वेदी के पश्चिम में मध्यसूत्र होता है । वेदी के उत्तर में इसी प्रमाण की दूरी पर रानी का भवन होता है, जिसका मध्य सूत्र वेदी के पूर्व में होता है ॥१४-१५॥

राजा के दैर्घ्य (दीर्घिका, तालाब) को अड़तालीस, बत्तीस, चौबीस या सोलह दण्ड की दूरी पर निर्मित करना चाहिये तथा प्रथम प्राकार को इसके बाहर बनाना चाहिये । यह तीन हाथ विस्तृत एवं ग्यारह हाथ ऊँचा होता है । प्राकार के बाहर सात हाथ चौड़ि सड़क होनी चाहिये । इसके बाहर नौ हाथ चौड़ी भवनो की पंक्ति होनी चाहिये । इसके पश्चात् भवनों की अन्तिम पंक्ति एवं उसके बाहर प्राकार होना चाहिये । यह प्राकार एक दण्ड चौड़ा एवं साढ़े दस हाथ ऊँचा होता है । इसके चारो और नौ हाथ चौड़ी सडक होती है । इससे बत्तीस दण्ड की दूरी पर बाहरी प्राकार 'मर्यादि' होता है । यह डेढ़ दण्ड विस्तृत एवं पन्द्रह हाथ ऊँचा होता है । इसके बाहर तीन दण्ड विस्तृत मार्ग होता है । राजभवन के बाहर देख-रेख के लिये बारह सुरक्षाकर्मी नियुक्त किये जाते है । बुद्धिमान पुरुषों ने भित्तियों के बाहर एवं भीतर का मान इस प्रकार निर्धारित किया है ॥१६-२१॥

एतद्गोपुराण

गोपुर द्वार - छोटे राजाओं के भवनों में तीन प्राकार, तीन मार्ग एवं तीन भाग (तीन भवनों की पंक्तियाँ) होती है । इनमें चार से अधिक गोपुर नही होते है । प्रमुख गोपुर सबसे अधिक उन्नत होना चाहिये । पश्चिम का प्रवेशद्वार (गोपुर) नीचा होना चाहिये । प्रधान गोपुर भवन के पूर्व या दक्षिणमुख होना चाहिये । उत्तर या पश्चिममुख (राजाओं के लिये) प्रशस्त नही होता है । राजाओं के भवन में पाँच मुख अभीष्ट नही होते । पूर्ववर्णित (संख्या में) गोपुर होने चाहिये ॥२२-२३॥

गृहविन्यास

भवनों का विन्यास - कुछ विद्वानों के मतानुसार रानियों का भवन राजाओं के भवन के भीतर होना चाहिये । उसके मध्य में आँगन या एक सौ स्तम्भों से युक्त प्रपा होनी चाहिये । दक्षिण भाग में राजभवन तथा पश्चिम भाग में अभिषेक-गृह होना चाहिये । उत्तर दिशा में एक तल या अनेक तल से युक्त राजमहिषी (पटरानी) का भवन होना चाहिये । राजा का प्रधान आवास पश्चिम दिशा में पूर्वमुख होना चाहिये ॥२४-२६॥

परिखा

खाई - बाह्य प्राकार के चारो ओर परिखा होनी चाहिये, जिसकी चौड़ाई छः दण्ड से लेकर नौ दण्डपर्यन्त होती है । परिखा के बाहर एवं भीतर भाग में तीन दण्ड विस्तृत मार्ग होना चाहिये । परिखा के मूल भाग का विस्तार ऊपरी भाग के विस्तार के आठवे भाग के बराबर होना चाहिये । इसकी गहराई आवश्यकतानुसार (परिस्थिति के अनुसार) एवं आकृति घण्टे के समान (अथवा सुरक्षा के अनुसार) होनी चाहिये ॥२७-२८॥

पुनर्गृहविन्यासः

पुनः गृह का विन्यास - रानी के भवन के बाहर गृहों को आवश्यकतानुसार निर्मित करना चाहिये । अब मै यहाँ उनके दैविक भाग का वर्णन कर रहा हूँ । प्रथम प्राकार के बाहर का भवन देवता के भाग के अनुसार होना चाहिये ॥२९॥

प्रथमावरण

द्वारहर्म्य संज्ञक द्वार आर्य के पद पर होना चाहिये । इन्द्र एवं सूर्य के पद पर एक बड़ा आँगन होना चाहिये । भृश एवं व्योम के पद पर वृत्त (शालाविशेष) होना चाहिये । पूषा के पर पर स्वर्ण होना चाहिये । सभी सालाओं (प्राकारों) का आँगन राक्षस के पद से लेकर वितथ के पद तक होना चाहिये । यम के पद पर अत्यन्त उन्नत सेनावेशहर्म्य (रक्षाकर्मी से युक्त प्रवेशद्वार पर निर्मित शाला) होना चाहिये । गन्धर्व के पद पर नीड़ (सजावटी खिड़की की आकृति) के समान निर्माण होना चाहिये, जो नृत्य करने के अनुकूल रङ्गस्थल से सुशोभित हो । यह विमान मन्दिर, शाला या हर्म्य में होना चाहिये ॥३०-३२॥

भृङ्गराज के पद पर अश्वशाला, भृश के पद पर सूतिकागृह, पितृ के पद पर स्थानहर्म्य (स्वागत कक्ष), दौवारिक एवं सुकण्ठ के पद पर जललीला (स्थानविशेष, सम्भवतः जलक्रीडा-स्थल) निर्मित करना चाहिये । पुष्पदन्त के पद पर खलूरिका (अतिरिक्त बाहर निकला स्थान या कक्ष) निर्मित करना चाहिये, जहाँ नमक एवं मरिच आदि मसाले रक्खे जायँ ॥३३-३४॥

वरुण, असुर, शोष एवं मित्र के पद पर सङ्करालय (मिलने-जुलने का स्थान) होना चाहिये । इसके दाहिने एवं बाँये रानी का कक्ष एवं गर्भागार होना चाहिये । मित्र के पद पर नृत्यशाला एवं रस (नाट्यशाला) तथा उपस्करगृह (नृत्यादि से सम्बन्धित सामग्री रखने का कक्ष ) होना चाहिये । रोग एवं समीरण के पद पर पूर्ण रूप से बन्द आवास कक्ष होना चाहिये ॥३५-३६॥

वर्धमान आदि चतुश्शाल गृहो में नाग के पद पर सैरन्ध्री (केशसज्जा करने वाली स्त्री) एवं धात्री स्त्रियों (बच्चों की देख-रेख करने वाली महिलाओं) का कक्ष, मुख्य के पद पर कन्याओं का गृह होना चाहिये । भल्लाट के पद पर औषधकक्ष एवं मृग के पद पर सांवाहिका गृह (मालिश करने वाली स्त्री का कक्ष) होना चाहिये । रुचक आदि चतुश्शाल गृह में यहाँ कक्ष निर्मित करना चाहिये । उदिति एवं आपवत्स के पद पर स्नानगृह होना चाहिये, जहा~म पीने का जल एवं उष्ण जल होना चाहिये । विद्वानों के अनुसार यह प्रासाद के समय होना चाहिये । इष्टदेव का स्थान ईशान एवं जयन्त के पद पर होना चाहिये ॥३७-४०॥

महेन्द्र के पद पर भोजनकक्ष होना चाहिये । महीधर और मरीच के पद पर (भोजनकक्ष) अथवा पार्वत कूर्म सभाकक्ष के समान सम्बाध (मिलने-जुलने का स्थान) निर्मित कराना चाहिये । सभी द्वार एवं भित्तियाँ गृहस्वामी की इच्छा के अनुसार होनी चाहिये । प्रथम आवरण (प्रथम आकार) में (सभी अंगो का) वर्णन किया गया । अब द्वितीय आवरण का वर्णन क्रमानुसार किया जा रहा है ॥४१-४२॥

द्वितीयावरण

द्वितीय प्राकार - इन्द्र एवं आदित्य के पद पर छत्र एवं भेरी का स्थान एवं शंख, काहल तथा तूर्य आदि अन्य वाद्यों का स्थान होना चाहिये । सत्य के पद पर दान की सामग्री, भृश के पद पर धर्मसम्बन्धी कार्यहेतु जल, पंक्तिक (आकाश) के पद पर ओखली, ज्वलन (अग्नि) के पद पर इन्धन, पूषा, साविन्द्र एवं वितथ के पद पर अश्वशाला होनी चाहिये ॥४३-४४॥

पूर्व में स्थित शालाओं के द्वार पश्चिम दिशा में, दक्षिण में स्थित शालाओं के द्वार उत्तर में, पश्चिम में स्थित भवनों का मुख पूर्व में एवं उत्तर मे स्थित शालाओं के मुख दक्षिण में होने चाहिये । सभी गृह मध्य में स्थित भवन के सामने मार्ग द्वारा पृथक्‌-पृथक्‌ होना चाहिये ॥४५-४६॥

राक्षस के पद पर शस्त्रागार, (द्वार के) वाम भाग में द्वारशाला (द्वाररक्षक का कक्ष), धर्मराज के पद पर अन्न एवं पेय पदार्थों को तैयार करने का कक्ष होना चाहिये । चतुश्शाल गृह को मध्य रङ्ग (मध्य में आच्छादित हाल या बड़ा कमरा) से युक्त निर्मित करना चाहिये । गन्धर्व के पद पर सेनापति का स्थान प्रशस्त एवं विजय प्रदान करने वाला होता है । ऐसा भी मत है कि भृंगराज के पद पर (सेनापति का स्थान) अजेय होता है । मृष के पद पर व्यालकामी (सपेरा) एवं इन्द्रकाजाली (जादूगर) आदि का स्थान होना चाहिये । निऋति के पर पर दौवारिक एवं सुकण्ठ के पद पर भैसों का स्थान होना चाहिये । पुष्पदन्त आदि के पद पर दानगृह, ईक्षणगृह (मिलने-जुलने का स्थान) तथा स्नानगृह होना चाहिये ॥४७-५०॥

नाग एवं रुद्र के भाग पर लम्बी दीर्घिका (तालाब) होनी चाहिये । कन्याओं एवं (उनकी) धात्रियों का स्थान मुख्य के पद पर होना चाहिये । सामान्यतया विद्वानों के मतानुसार कञ्जुकियों से मद्गु (एक विशेष प्रकार के राजसेवक, सङ्कर जाति के लोग) का स्थान अन्यत्र (राजभवन से हट कर) होना चाहिये । भल्लाट, सोम एवं मृग के पद पर कृण्व आदि (चित्रकार एवं कलाकार आदि) का निवास होना चाहिये । अदिति के पद पर कुब्जिनी (कुबड़ी), वामनी कन्या (बौनी) एवं षण्डकी (हिजड़ी) आदि का स्थान होना चाहिये । उदिति, ईश एवं पर्जन्य के पद पर धात्री स्त्रियों का स्थान होना चाहिये ॥५१-५३॥

आप एवं आपवत्स के पद पर बावडी, कूप, दीर्घिका (तालाब), पीने योग्य जल का स्थान एवं पुष्पों का बाग होना चाहिये । जयन्त के पद पर दक्षिणा-गृह एवं सुरेन्द्र के पद पर दानशाला होनी चाहिये । पूर्व से दक्षिण की ओर निर्मित इन सभी भवनों का मुख मुख्य भवन की ओर होना चाहिये ॥५४-५५॥

तृतीयावरणम्

तृतीय आवरण या प्राकार - इन्द्र के पद पर शास्त्र, रवि के पद पर संगीत, सत्य एवं भृश के पद पर अध्यय्न, आकाश के पद पर प्रधान रसोईगृह, पूषा एवं पावक के पद पर गायों एवं उनके बछड़ो को रखना चाहिये । वितथ के पद पर नमक, वल्लूर (सूखा मांस), स्नायु (नस, नाड़ी) तथा चर्म रखना चाहिये । राक्षस के पद पर गजशाला एवं धर्म के पद पर चित्र एवं शिल्प का स्थान होना चाहिये एवं इसकी योजना दण्डक, शूर्प या लांगल (हल) के समान करनी चाहिये ॥५६-५७॥

गन्धर्व एवं भृंगराज के पद पर रसपदार्थों का स्थान बनाना चाहिये । मृष के पद पर दाह (इन्धन), पितृ एवं दौवारिक के पद पर दान-सामग्री, सुग्रीव के पद पर मल्लों का निवास तथा पुष्पदन्त के पद पर चार कोष्ठ (शालायें) होने चाहिये । ॥५८-५९॥

वारुण के पद पर युवराज की शाला या मालिका होनी चाहिये । वही पर अश्वशाला एवं पुरोहित का आवास होना चाहिये । असुर के पद पर चन्द्रशाला एवं शोष के पद पर हिरणों का स्थान होना चाहिये । रोग के पद पर गधे एवं ऊँट का स्थानन होना चाहिये एवं औषध-स्थान भी वही निर्मित करना चाहिये । वायु के पद पर वापी एवं गोत्रनाग के पद पर पुष्करिणी (कमल का तालाब) होना चाहिये । मुख्य एवं भल्लाट के पद पर गजशाला एवं अश्वशाला होनी चाहिये ॥६०-६२॥

सोम के पद पर प्रसूतिगृह एवं उपनीतिका (विचार-विमर्श का स्थान) होनी चाहिये । मृग, अदिति, उदिति, ईशान एवं जयन्त के पद पर दीर्घिका (तालाब) आदि होना चाहिये । वही पर विहार एवं आराम (उपवन) तथा आँगन से युक्त सभा-स्थल होना चाहिये ॥६३-६४॥

नगर

नगर - (राज) भवन के सामने एवं बगल में राजा की सेनापंक्ति होनी चाहिये । उसके बाहर व्यापारियों के आवास की पंक्ति आवश्यकतानुसार होनी चाहिये । राजभवन की पश्चिम दिशा में लम्बी दीर्घिका, वापी एवं कूप आदि क्रमशः ओने चाहिये । वही पर अन्तःपुर तथा मूलभृत्यों (वंशो से रहने वाले सेवकों) के आवास की पंक्ति होनी चाहिये ॥६५-६६॥

(नगर में) दीर्घिका, आराम (उपवन), वापी एवं कूप सभी स्थानों पर होना चाहिये । विभिन्न जाति के लोग एवं विभिन्न प्रकार की स्त्रियाँ वहाँ निवास करती है । विभिन्न प्रकार केशिल्पी वहाँ निवास करते है तथा (नगर) छः प्रकार की सेनाओं से युक्त होता है । पूर्वोत्तर कोण एवं दक्षिण-पूर्व कोन में गजशाला एवं अश्वशाला होती है । नगर विभिन्न वर्ण के लोगों से युक्त, विभिन्न व्यापारीवर्ग से युक्त होता है । सभी वर्ग के लोग राजा की इच्छा के अनुसार अपने-अपने अभिधान वाले होने चाहिये । ॥६७-६९॥

नगरभित्ति

नगर का प्राकार - नगर को चारो ओर से घेरने वाला प्राकार दो दण्ड चौड़ा होना चाहिये । इसकी चौड़ाई क्रमशः पाँच, छः या सात हाथ माप की भी कही गई है । इसकी ऊँचाई चौड़ाई से दुगुनी या तीन गुनी होनी चाहिये एवं इसके बाहर मिट्टी की भित्ति होनी चाहिये या इसके बाहर एक धनुप्रमाण (एक दन्ड) से परिखा एवं वप्र (मिट्टी की भित्ति) होनी चाहिये । उसके बाहर सभी स्थान पर शिल्पिका (रचना विशेष) होनी चाहिये ॥७०-७१॥

राजवेश्मगोपुराण

राजभवन के गोपुर द्वार - सभी राजभवनों में छोटा या बड़ा गोपुर होना चाहिये । बाहरी (प्राकार का) गोपुर स्वामी (राजा) के आवास बराबर होना चाहिये । यदि स्वामी का आवास छोटा हो तो गोपुर आवास से छोटा एवं एक तल का होना चाहिये । यदि प्रधान भवन नौ या ग्यारह तल का हो तो द्वार-गोपुर सात तल का होना चाहिये । भीतरी (भित्ति पर निर्मित) गोपुर बाहरी भित्तियों के गोपुर से क्रमशः एक-एक तल कम होता जाना चाहिये ॥७२-७४॥

नरेन्द्र राजाओं (राजाओं का स्तरविशेष) का सबसे बड़ा गोपुर द्वार महेन्द्र के पद पर या राक्षस के पद पर पाँच या तीन तल का होना चाहिये । पुष्पदन्त और भल्लाट के पद पर कम तलों का गोपुर द्वार होना चाहिये । सुग्रीव, मुख्य, जयन्त एवं वितथ के पद पर पक्षद्वार (पार्श्वद्वार) एक या दो तल से युक्त निर्मित करना चाहिये । ॥७५-७७॥

विशेष रूप से नरेन्द्रों का भवन इन्द्र के पद पर होना चाहिये । ब्रह्मा के भाग से संलग्न राजभवन सभी प्रकार की सम्पत्तियों एवं सुखों का प्रदाता होता है॥७८॥

वेश्मतललम्बविधान

राजभवन के तल का विधान - सम्पूर्ण पृथिवी के स्वामी राजा का भवन ग्यारह तल का होता है । ब्राह्मणों का भवन नौ तल का, राजाओं (क्षत्रियों) का भवन सात तल का, मण्डल के स्वामियों का भवन छः तल क युवराज का भवन पाँच तल का, वैश्यों का चार तल का तथा योद्धाओं एवं सेनाओं के स्वामी का भवन भी चार तल का होता है । शूद्रों का भवन एक से लेकर तीन तलपर्यन्त होना चाहिये । सामन्त आदि प्रमुखों का भवन पाँच भूमियों का होना चाहिये ॥७९-८१॥

सभी राजभवन सम या विषम संख्या वाले तल से युक्त होते है । राजा की स्त्रियों तथा देवियों (अन्य पत्नियो) के भवन के तल सम या विषम संख्या में होते है । दण्डियुक्त, लूपायुक्त, दो नेत्र (खिड़की) एवं प्रस्तर से युक्त मृत्तिका-निर्मित, तृणों (घास-फूस) से आच्छादित, एक तल या दो तल से युक्त, स्तूपिका एवं कर्णलुपा से रहित भवन सभी वर्ण वालों के लिये प्रशस्त होता है ॥८२-८३॥

मिश्रित जाति के लोगों, सभी प्रकार के ऐश्वर्य का भोग करने वालों, रुचक आदि भवनों में निवास करने वालों के भवन में (तल आदि का) आवश्यकतानुसार निर्माण करना चाहिये । यहाँ जिन अंगों की चर्चा नही की गई है, उनका प्रयोग बुद्धिमान व्यक्ति को आवश्यकतानुसार करना चाहिये । इस प्रकार पण्डितों ने राजाओं की राजधानी के सामान्य नियमों का वर्णन किया है ॥८४-८५॥

नरेन्द्रवेश्म

नरेन्द्र का राजभवन - अब मै (मय) विशेष रूप से नरेन्द्र के सनातन आवास के विषय में कहता हूँ ॥८६॥

प्राकार

प्राकार, बाहरी भित्ति - प्राकार की चौड़ाई एक दण्ड (एवं उससे लगी हुई) परिखा दो या तीन दण्ड की होनी चाहिये । वृत्त-मार्ग चार दण्ड एवं बीस दण्ड तक गृहों की पंक्तियाँ होनी चाहिये । वेश्याओं की क्रीड़ा से आवृत मार्ग तीन या चार दण्ड मान का होना चाहिये । वृत्त-मार्ग चार दण्ड एवं बीस दण्ड तक गृहों की पंक्तियाँ होनी चाहिये । (इसके पश्चात् ) तीन दण्ड का वप्र मार्ग (मिट्टि से निर्मित मार्ग) तथा पाँच हाथ प्रमाण का प्राकार (दूसरा प्राकार) होना चाहिये ॥८७-८८॥

उसकी (द्वितीय प्राकार की ) परिखा चार दण्ड चौड़ी होनी चाहिये । परिखा के चारो ओर आठ यष्टि विस्तृत मार्ग होना चाहिये । उसके पश्चात् अड़तालीस दण्ड विस्तृत क्षेत्र में सभी प्रकार के भवन होने चाहिये । उसके बाहर चारो ओर छः या सात धनु प्रमाण विस्तृत मार्ग होने चाहिये । पुनः चार दण्ड प्रमण का वप्र एवं सात हाथ का प्राकार (तीसरा प्राकार) होना चाहिये । (इसके पश्चात्) एक दण्ड प्रमाण का नागों से युक्त बन्धन (बाँध, खाई) होना चाहिये ॥८९-९१॥

परिखा की चौड़ाई आठ दण्ड से लेकर बारह दण्डपर्यन्त होनी चाहिये । प्राकार की चौड़ाई के बराबर भितरी एवं बाहरी मार्ग होना चाहिये । उसे बाहर दस दण्ड तक सभी प्रकार के लोगों का आवास होना चाहिये । अथवा वहाँ प्राकार (चौथा प्राकार) या आवास के साथ परिखाये होनी चाहिये । वास्तुविदों के द्वारा इस प्रकार वप्र एवं प्राकार की प्रशंसा की गई है । पाँचवाँ आवरण (प्राकार) आठ हाथ चौड़ा होना चाहिये । भीतरी भागों की योजना आवश्यकतानुसार करनी चाहिये ॥९२-९४॥

वेश्मविन्यास

राजभवन का विन्यास - राजभवन के चुने हुये विस्तार एवं लम्बाई के छः एवं नौ भाग करने चाहिये । एक भाग सामने के लिये, एक भाग पीछे के लिये एवं एक-एक भाग दोनों पार्श्वो के लिये रखना चाहिये । शेष भाग में पैंतीस भाग ब्रह्मा का स्थान होता है । उस स्थान पर सौ स्तम्भों वाला मण्डप एवं उसके भीतर वेदिकापीठ होना चाहिये या उसके भीतर देवालय हो एवं उसके चारो ओर प्रपा निर्मित हो । एक भाग से मार्ग एवं उसी प्रमाण से खलुरिका (अतिरिक्त भाग) निर्मित करना चाहिये । यह चार द्वारों से युक्त, सौष्ठिक (लम्बा कक्ष) एवं कोष्ठ से युक्त होने पर प्रशस्त होती है ॥९५-९७॥

राजभवन का केन्द्रभाग के नियमों का वर्णन किया गया । वहाँ नौ पदों पर प्रमुख देवता का स्थान भी हो सकता है । राजभवन को अभीप्सित भाग में, देवालय के दक्षिण भाग में तथा ज्येष्ठ रानियों के आवास के उत्तर भाग में होना चाहिये । आर्य के पद पर द्वार होना चाहिये एवं जिसके पश्चिम में हर्म्य, शाला या सभी रंग-विरंगे अलंकरणों से युक्त अभिषेक-सभा होनी चाहिये । चारो कोनों पर दृढ़ स्तम्भों से युक्त खलूरिकायुक्त सभा होनी चाहिये ॥९८-१००॥

पूर्वोत्तर दिशा में जल, स्नान एवं देवों का गृह होना चाहिये । सामने होम का स्थान होना चाहिये । पूर्व-दक्षिण दिशा में सेना के अवलोकन का हर्म्य (कक्ष) या कूट होना चाहिये । पश्चिम-दक्षिण कोण में नृत्य, वाद्य एवं अन्य मनोरञ्जन के स्थान तथा उत्तर-पश्चिम कोण मे गायक गादि का एवं अन्य (नाट्यादिकर्मी) स्त्रियों का स्थान होना चाहिये ॥१०१-१०२॥

पूर्व दिशा में दुर्ग का आँगन एवं मेरु गोपुर, पूर्वोत्तर दिशा मे जल, जलक्रीडा का आँगन एवं सभा होनी चाहिये । वहाँ भोजन एवं पा का गृह सभी उचित लक्षणों से युक्त निर्मित करना चाहिये । पूर्व-दक्षिण कोण में मध्य-आँगन से युक्त सभा होनी चाहिये । वहाँ रत्न, सुवर्ण एवं वस्त्र आदि का गृह प्रशस्त होता है । उसके पश्चात् दक्षिण को में मध्य-आँगन से युक्त सभा होनी चाहिये । इसके बाहर चारो ओर स्त्रियों के अपने भवन होने चाहिये । वहाँ आराम (बगीचा) से युक्त क्रीड़ागृह एवं जल का स्थान होना चाहिये । पूर्वोत्तर कोण में सभी स्त्रियों का सभावास (सभी के रूप में आवास या कक्ष) होना चाहिये ॥१०३-१०६॥

यहाँ राजभवन के जिन भीतरी अंगो एवं बाहरी अंगो का वर्णन नही किया गया है, उनके विषय में पूर्ववर्णित नियम जानना चाहिये । इस प्रकार मुनियों ने राजाओं के पद्मक आवास का वर्णन किया है ॥१०७॥

सौबलवेश्म

प्रथमावरण

सौबल राजगृह (पथम आवरण, प्राकार) - राजभवन की लम्बाई एवं चौड़ाई सुनिश्चित कर स्थानीय संज्ञक वास्तुमण्डल (एक सौ बीस पद वास्तु) निर्मित करना चाहिये । मध्य पद में सकल वास्तुमण्डल के अनुसार ब्रह्मा की पीठ बनानी चाहिये । यह वेदिका पर मण्डप में होनी चाहिये । रानी का भवन दक्षिण एवं उत्तर में होना चाहिये । पश्चिम दिशा में राजा का भवन अनेक तलों से युक्त होना चाहिये । पूर्व दिशा में आँगन होना चाहिये एवं मध्य भाग में द्वारशोभा संज्ञक द्वार आदि से सुसज्जित होना चाहिये । द्वार के पश्चिम में पुर्वी भाग में अभिषेक गृह होना चाहिये । इसकी योजना पीठ वास्तु पद पर होनी चाहिये । इस पर साल (प्रथम आवरण) पूर्व-वर्णन के अनुसार करना चाहिये ॥१०८-११०॥

द्वितीयावरण

उसके पश्चात् ( प्रथम आवरण के पश्चात् ) पूर्व से प्रारम्भ कर क्रमशः जयन्त, भानु एवं भृश के पद पर आँगन होना चाहिये । उनके मध्य में तीन तल से युक्त द्वारहर्म्य द्वार होना चाहिये । अग्नि के पद पर रसोई एवं वितथ के पद पर मूल कोश (परिवारिक कोष) होना चाहिये । उसी पद-भाग पर द्वारप्रासाद द्वार का निर्माण होना चाहिये । ॥१११-११३॥

यम, भृंगराज एवं पितृभाग पर स्त्रियों का भवन होना चाहिये । सुगल के पद पर नृत्तशाला (रंगमञ्च, नाट्यगृह) एवं वारुण के पद पर राजभवन होना चाहिये । शोष के पद पर अन्तःपुर एवं वायु के पद पर जल-क्रीड़ा के निमित्त वापी होनी चाहिये । मुख्य के पद पर राजमहिषी का आवास, शाला या मालिका होनी चाहिये । ॥११४-११५॥

तुलाभार का निर्माण सोम के पद पर और उसके पश्चात् हेमगर्भ का कृत्य होना चाहिये । दिति के भाग पर सुवर्ण एवं रत्न तथा सुगन्धि का कक्ष होना चाहिये । वही गजशाला होनी चाहिये । ईश के पद पर वापी एवं कूप होना चाहिये । वही वर्चोगृह (शौचगृह) एवं जलयन्त्र स्थापित करना चाहिये । वही पर साल (द्वितीय आवरण) एवं मार्ग का निर्माण पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये ॥११६-११७॥

तृतीय आवरण - उसके (द्वितीय आवरण) के बाहर स्थण्डिल वास्तुमण्डल (उनचास पद का वास्तुमन्डल) निर्मित करना चाहिये । बुद्धिमानों के मतानुसार पर्जन्य, महेन्द्र, भानु, सत्य एवं अन्तरिक्ष के पद पर आँगन निर्मित करना चाहिये । महेन्द्र के पद पर चार या पाँच तल से युक्त द्वार निर्मित करना चाहिये । वही शंख, भेरी आदि वाद्यों के विभिन्न प्रकार के शब्द होते है । यहाँ जिन बातों का वर्णन नही किया गया है, उन्सभी का चारो ओर निर्माण पूर्ववर्णन के अनुसार करना चाहिये । इस (तृतीय आवरण) के बाहर परमशायी वास्तुमण्डल (इक्यासी पद) निर्मित करना चाहिये । इसके पूर्व भाग में आँगन होना चाहिये ॥११८-१२०॥

चतुर्थावरण

चौथा आवरण - इसका (पूर्ववर्णित आँगन का) अधिकांश भाग जयन्त से अन्तर्क्षपर्यन्त होना चाहिये । जिनकी यहाँ चर्चा नही की गई है, वे सभी श्येन (अग्नि) के पद से प्रारम्भ करते हुये निर्मित होने चाहिये ॥१२१॥

पञ्चमावरण

पाँचवा आवरण - उसके (चौथे आवरण के) बाहर स्थानीय वास्तुमण्दल (एक सौ इक्कीस पद) के पूर्व दिशा में आँगन होना चाहिये । इस आँगन की चौड़ाई उसकी लम्बाई के सात भाग में दो बाग से रखनी चाहिये । यह गोपुर द्वार से एवं दुर्ग के मन्दिर से युक्त होना चाहिये । इसके पूर्व-दक्षिण भाग में बड़ी रसोईगृह होनी चाहिये । वही राजभवन के राजकीय कार्यो का लेखन करने वाले (प्रशासन) कर्मियों का स्थान होना चाहिये ॥१२२-१२४॥

दक्षिण भाग में आठ पदों पर एक बड़ा आवृत आँगन होना चाहिये, जहाँ अश्वक्रिडा या गज-क्रीडा होनी चाहिये । वही ऊँचा कूट एवं निऋति के पद पर राजभवन होना चाहिये । उसके बाहरी भाग में खलूरिका तथा उसके बाहर वरुण पद पर स्त्रियों का आवास होना चाहिये । नृप-भवन के वाम भाग में स्त्रियों का सङ्करालय (मिलने-जुलने का कक्ष), जलक्रीडास्थान, सभा, मालिका या आवासभवन होना चाहिये । ॥१२५-१२७॥

वायु के पद पर वापी, विहार (उद्यान आदि) एवं आश्रम आदि का स्थान होना चाहिये । सोम के पद पर तुलाभार एवं उसके बाद सुवर्णगर्भ का कृत्य करना चाहिये । ईश के पद पर शिवालय उचित रीति से निर्मित करना चाहिये । उसके (पाँचवी भित्ति के) बाहर नगर या शिविर का निर्माण पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । इस राजभवन का सौबल कहा गया है ॥१२८-१२९॥

अधिराजमन्दिर

अधिराज राजभवन - अब मै विशेष रूप से संक्षेप में अधिराज राजाओं के भवन का वर्णन करता हूँ । विस्तार एवं लम्बाई का निश्चय करने के पश्चात् वहाँ उभयचन्दित वास्तुमन्डल (उनहत्तर पद) निर्मित करना चाहिये । उसके मध्य पद मे ब्रह्मा का आसन या अभिषेक के योग्य सभागर एवं मण्डप निर्मित करना चाहिये ॥१३०॥

उसके पश्चिम भाग में पाँच, सात या नौ तल का राजभवन होना चाहिये । उसके पृष्ठ भाग एवं दोनो पार्श्वों में एक भाग से आँगन से युक्त खलूरिका होनी चाहिये । राजा की इच्छानुसार भीतरी भाग में भोजन-कक्ष का निर्माण करना चाहिये ॥१३१-१३२॥

पूर्वोत्तर कोण में स्नानगृह एवं देवालय होना चाहिये । सामने नौ भाग से अत्यन्त लम्बा-चौड़ा विशाल आँगन होना चाहिये, जिसके पूर्व भाग में मध्यभाग से युक्त खलूरिका निर्मित होनी चाहिये । दो या तीन तलयुक्त द्वार हो, जिस पर भेरी होनी चाहिये । भवन का मुख-मण्डप यहाँ निर्मित करना चाहिये तथा पार्श्व-भाग में पोत का पार्श्वभाग निर्मित करना चाहिये......................... द्वार के समीप राजा का प्रयोगस्थल (अभ्यासस्थल) होना चाहिये । आँगन के दो यातीन पार्श्व भागों में गोलक आदि (खेलों) का स्थान होना चाहिये । जिस भवन में मूल कोश (प्रधान खजाना) रक्खा जाय, वह पूर्वोत्तर कोण में होना चाहिये ॥१३३-१३६॥

उसके पश्चिम भाग में वस्त्र आदि का स्थान एवं कक्ष होना चाहिये । द्वार के उत्तर भाग में पीने योग्य पानी एवं उष्ण जल का कक्ष निर्मित करना चाहिये । वहीं पर पाक-गृह एवं सभी वस्तुओं को रखने का स्थान (संग्रह कक्ष) निर्मित करना चाहिये । द्वार के दक्षिण भाग में अधिवासक गृह (कपड़ा बदलने का स्थान) निर्मित करना चाहिये । उसके दक्षिण भाग में सुगन्ध आदि (श्रृंगारपरक सामग्री ) का कक्ष होना चाहिये । पूर्व-दक्षिण में निर्मित कक्ष में मूल कोश रखने का गृह निर्मित होना चाहिये । राक्षस के पद पर एवं उसके पश्चिम भाग में गजशाला होनी चाहिये । उसके पश्चात् दक्षिण-पश्चिम कोण में शिव का स्थान एवं रत्न और सुवर्ण रखने का कक्ष होना चाहिये । ॥१३७-१४०॥

पूर्वोत्तर कोण में दान एवं अध्ययन हेतु शाला होनी चाहिये । प्रायः प्रयोगशाला एवं छोटा द्वार होना चाहिये । (यहाँ मूल-पाठ खण्डित है ।) द्वार के दोनों पार्श्वों में सार-द्रव्यों का स्थान एवं कूट-गृह होना चाहिये । वही पर गजशाला,सभी प्रकार के ओषधियों का कक्ष एवं शस्त्रागार होना चाहिये । अन्य सभी व्यवस्थायें राजा की इच्छा के अनुसार करनी चाहिये ॥१४१-१४२॥

राजा का भवन मुखाङ्गण (सम्मुख आँगन) एवं मुखमण्डल से युक्त होना चाहिये । राजा की इच्छानुसार भोग-गृह एवं रक्षा-व्यवस्था करनी चाहिये । (यहाँ मूल पाठ खण्डित है) । ॥१४३॥

उसके दक्षिण पार्श्व भाग में बारह पद का लम्बा आँगन होना चाहिये । वही पश्चिम भाग में मण्डप, शाला या मालिका होनी चाहिये । उसके दोनों पार्श्वो मे स्नान-गृह एवं मण्डप होना चाहिये । आँगन के दक्षिण भाग में सभी प्रकार की वस्तुओं का संग्रहकक्ष होना चाहिये । पूर्व भाग में परिघा, मिण्ठक एवं कूटशाला से सुसज्जित वेशन (प्रवेश द्वार) होना चाहिये । राजभवन के एवं आँगन के पूर्व भाग, दोनों पार्श्वों एवं पश्चिम भाग मे स्त्रियों का आँगन से युक्त आवास या मालिकागृहों की पंक्ति होनी चाहिये । भवन के उत्तर पार्श्व में राजभवन के समान ऊँचा राजमहिषी का भवन होना चाहिये । उसके एक भाग माप से पार्श्व भाग में रानियों की मालिका-पंक्ति (भवनों की पंक्ति) होनी चाहिये । वही कन्याओं का आवास एवं कुब्जक आदि (सेवकों) का आवास होना चाहिये ॥१४४-१४८॥

दक्षिण से उत्तर की ओर क्रमशः एक, दो या तीन भाग से विशाल उद्यान एवं उसके बाहर साल (प्राकार) होना चाहिये । उसके उत्तर भाग में जलक्रीड़ा का स्थान, जल का स्थान एवं राजा की दीर्घिका (जल-वापी) होनी चाहिये । राजभवन के पश्चिम भाग में स्त्रियों की सङ्करशाला (मिलने-जुलने का कक्ष) होना चाहिये । ॥१४९-१५०॥

राजभवन के पूर्वोत्तर भाग में बाहर नव पदों में इष्टदेवों का गृह होना चाहिये । वहीं पर आग्रायण (पूजाकृत्य) की शाला, पुष्पवाटिका एवं कूप होना चाहिये । पूर्व दिशा में तीस पदों से एक विस्तृत आँगन निर्मित होना चाहिये । महेन्द्र के पद पर तीन या चार तल से युक्त गोपुरद्वार निर्मित होना चाहिये । द्वार के दक्षिण ओर पार्वती, सरस्वती एवं लक्ष्मी का मन्दिर होना चाहिये । इनका मुख भीतर की ओर होना चाहिये एवं ये दो, तीन या चार तल से मुक्त होने चाहिये । इसके पूर्व भाग में शंख, भेरी आदि वादों का कक्ष होना चाहिये ॥१५१-१५४॥

उसके दक्षिण भाग मे सभी प्रकार के रक्षकों से युक्त बड़ी रसोई होनी चाहिये । आँगन के दक्षिण भाग में दो या तीन तल से युक्त द्वार होना चाहिये । द्वार के दोनो पार्श्वो मे लेखक (हिसाब लिखने वाले) की खलूरी होनी चाहिये । आँगन के उत्तर भाग में एक विशाल सभागृह होना चाहिये, जिसका मुख दक्षिण की ओर हो, साथ ही सुसज्जित, सुन्दर एवं उँचा हो, जिसके पश्चिम भाग में पूर्व की ओर गीत आदि की सभा होनी चाहिये । अन्य सभी राजा की इच्छा के अनुसार करना चाहिये । ॥१५५-१५७॥

राजभवन के बाहर प्रस्तर एवं ईट से प्राकार निर्मित करना चाहिये, जिसके मूल की चौड़ाई एवं ऊँचई पूर्ववर्णित नियम के अनुसार होनी चाहिये । उसके बाहर परिखा होनी चाहिये । उत्तम राजभवन ईट आदि से निर्मित होना चाहिये; इसे 'जयङ्ग' कहते है ॥१५८॥

परिखा को प्रवाहित होने वाले जल से भरना चाहिये । इसे कर्दम, मत्स्य, जोक, जलसर्प, पद्म, काँटेदार मछलियाँ, कच्छप, केकड़ा एवं शंखो से युक्त करना चाहिये । ॥१५९॥

भित्ति पर निवास करने योग्य कूट से युक्त आलम्बन निर्मित होने चाहिये । यह जाल, लता एवं पत्रों से परिपूर्ण होता है । इसका भीतरी भाग झुका एवं उठा होता है । भित्ति छिद्र से युक्त होती है एवं अनेक यन्त्रों से युक्त होती है । इस प्रकार राजभवन बाहर, भीतर एवं मध्य भाग में दुर्गयुक्त होना चाहिये । राजा के सभी जन (प्रजा) रक्षणीय होते है, इसलिये बाहर (दुर्ग के बाहर) छः प्रकार के बल (सैनिक) होने चाहिये ॥१६०-१६१॥

नगरभेद

नगर के भेद - विद्वानों के मतानुसार राजाओं के नगर चार प्रकार के होते है- स्थानीय, आहुत, यात्रामणि एवं विजय ॥१६२॥

जनपद के मध्य में (वर्तमान राजा के) कुल के मूल राजाओं के द्वारा बसाया गया नगर स्थानीय संज्ञक होता है । यह तृण, जल एवं भूमि से युक्त होता है । ॥१६३॥

प्रभु (स्वामी), मन्त्र (सही मन्त्रणा) एवं उत्साहरूपी तीन शक्तियों से युक्त; तृण, भूमि एवं जल से युक्त; नदी से आवृत या अन्य रक्षणों से युक्त नगर को कभी रिक्त नही छोड़ना चाहिये । प्रतिपक्षी राजागण इस नगर (आहुत) को दुर्गम कहते है । भूमि, जल एवं तृण से युक्त तथा युद्ध की यात्रा के लिये निर्मित नगर को संग्राम (यात्रामणि) कहते है । जो नगर विजय के अवसर पर स्थापित किया जाता है, तीन आवश्यक वस्तुओं स युक्त होता है एवं जिसका प्रधान उद्देश्य सीमा की रक्षा है, विज्ञोने उस नगर को विजय कहा है ॥१६४-१६६॥

बड़े राजभवन में धनुष (शस्त्र) से युक्त भवन यदि (शत्रुओं द्वारा) अधिगृहीत कर लिया जाता है तो शेष राजभवन शक्तिहीन हो जाता है ॥१६७॥

हस्तिशाला

गजशाला- तीन हाथ से प्रारम्भ कर आधा-आधा हाथ बढ़ाते हुये पाँच हाथ तक गजशाला के पाँच माप प्राप्त होते है ॥१६८॥

लम्बाइ एवं चौड़ाई के अनुसार गजशाला तीन प्रकार की होती है । ये क्रमशः नौ एवं छः भाग, सत एवं चार भाग तथा तीन एवं पाँच भाग के होते है । छोटे राजभवन में छोटे माप की एवं बड़े राजभवन में बड़े माप की गजशाला निर्मित करनी चाहिये । मुखशाला एक भाग माप से होनी चाहिये तथा मध्य भाग के विस्तार से निर्गत निर्मित होना चाहिये । इसके दक्षिण भाग में एक भाग माप से शयनस्थान निर्मित होना चाहिये ॥१६९-१७०॥

गजशाला के स्तम्भ के लिये अनुकूल काष्ठ राजादन, मधूक, खदिर, खादिर, अर्जुन, तिन्त्रिणी, स्तम्बक, पिशित, शमी, क्षीरिणी एवं पद्मक होते है ॥१७१-१७२॥

(गज) शाला के स्तम्भों की ऊँचाई सात, आठ या नौ हाथ होनी चाहिये । इसमें स्तम्भ का भूमि में गड़ा भाग नही ग्रहण किया जाता है । इसकी चौड़ाई भूमि मे गड़े भाग के अनुसार इस प्रकार होनी चाहिये, जिसमें स्तम्भ दृढ़तापूर्वक स्थापित हो सके । ये शालास्तम्भ वृक्ष की शाखाओं के समान शिखाओं से युक्त होने चाहिये ॥१७३॥

गजशाला के स्तम्भ वृत्ताकार होने चाहिये । इनकी मोटाई एक हाथ, तीन चौथाई हाथ या आधा हाथ इस तरह तीन प्रकार की कही गई है । इसके ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई (नीचे से) आठ भाग कम होनी चाहिये ॥१७४-१७५॥

चौड़ाई के सोलह भाग करने पर पाँच भाग शाला की चौड़ाई में एवं तीन भाग पृष्ठ भाग में ग्रहण करना चाहिये । वाम भाग में आठ भाग छोड़कर पूर्वोक्त नियम के अनुसार स्तम्भ को (भूमि के भितर) गाड़ना चाहिये ॥१७६॥

भित्ति के ऊँचाई स्तम्भ की आधी ऊँचाई तक होनी चाहिये । उसके ऊपर कटक (तृण-सींक आदि से) आच्छादित करना चाहिये, जिसे खोला एवं बन्द किया जा सके । वितस्तिगोस्तन (विशेष प्रकार की खिड़की या झरोखा) एवं बाहर की ओर मुख होना चाहिये । इसका तल (भूमि, फर्श) गज के प्रमाण से फलक-प्रस्तर (काष्ठ-फलक ) से निर्मित करना चाहिये । इसका प्रस्तर शिलाओं एवं ईंटो से निर्मित नही करना चाहिये । इसमें (गजशाला) मूत्र निकलने का द्वार (बाहर निकलने के) द्वार की स्थिति के अनुसार निर्मित करना चाहिये । अन्य सभी व्यवस्थायें बुद्धिमान स्थपति को आवश्यकतानुसार करनी चाहिये ॥१७७-१८०॥

अश्वशाला

अश्वशाल, घुड़शाल - अश्वशाला के पाँच प्रकार के प्रमाण- नौ, आठ, सात, छः या पाँच हाथ होना चाहिये तथा इसकी लम्बाई तीन भक्ति (इकाई) से लेकर इक्कीस भक्ति तक होनी चाहिये ॥१८१॥

अश्वशाला चार द्वार, चार कक्ष एवं प्रत्येक कक्ष में प्रग्रीव से युक्त होनी चाहिये । स्तम्भ का व्यास दस या बारह हाथ कहा गया है । भित्ति की ऊँचाई तीन,चार, पाँच या छः हाथ होनी चाहिये । भिन्न एवं अभिन्न (दोनो प्रकार की शालाओं) की भित्ति का जोड़ समुचित रीति से होना चाहिये । प्रत्येक गृह में नेत्रभित्ति एवं पृष्ठ भाग में जालक (झरोखा) होना चाहिये । गृह के अन्तिम भाग में दृढ़ कर्णधारा (रचनाविशेष) होनी चाहिये ॥१८२-१८४॥

विषय संख्या वाले बिछाये गये वंश के ऊपर प्रस्तरफलकों (काष्ठ-खण्ड) से भूमि निर्मित होनी चाहिये । इसमें मूत्र निकलेके लिये छिद्र होना चाहिये एवं इसे ठोस काष्ठ से दृढ़ बनाना चाहिये । प्रत्येक अश्वस्थान मे प्रवेश के लिये एक भक्ति-प्रमाण का प्रवेश मार्ग होना चाहिये । (अश्वशाला की) कील ठोस काष्ठ से निर्मित चौदह अंगुल लम्बी होनी चाहिये । इसकी चौड़ाई दो या तीन अंगुल एवं अग्र भाग में सूई के समान नोंक होनी चाहिये । पश्चाद्बन्ध को अग्रबन्ध में दृढ़तापूर्वक इस प्रकार जोड़ना चाहिये, जैसे गर्त में दृढ़तापूर्वक बैठाया जाता है ॥१८५-१८७॥

नानालया

विविध भवन - मोर एवं बन्दर आदि के गृह, तोते का पिञ्जरा, एक जोड़ी बैल, गाय एवं बछडो़, जल, धान्य एवं धन के कक्ष; वस्त्र, रत्न, अस्त्र-शस्त्र, द्यूतक्रीडा एवं कार्य करने के लिये आवरण-कक्ष; दानशाला, भोजनगृह एवं दक्षिणायुक्त यज्ञशाला होनी चाहिये ॥१८८-१८९॥

दक्षिण दिशा में उचित स्थान पर पिञ्जरे का स्थान होना चाहिये । बगीचे और जलाशय के पास स्थान-मण्डप (बैठने के लिये मण्डप) होना चाहिये । बैलों के लिये कूटागार या गोल कक्ष होना चाहिये ॥१९०॥

मन्त्रशालादिविधि

मन्त्रणा कक्ष आदि की विधि - राजा मन्त्रणा-कक्ष पूर्व-पश्चिम लम्बा, सुन्दर एवं ऊँची भित्तियों से युक्त होना चाहिये । सभा स्तम्भों से आवृत तथा भित्तिहीन होनी चाहिये, जिससे दूर तक देखा जा सके ॥१९१॥

अथवा वहाँ पश्चिम दिशा में कूटागार होना चाहिये, जो राज-सिंहासन युक्त हो एवं इस प्रकार निर्मित हो, जिससे कि उसका मुख पूर्व की ओर हो । उसके पूर्व-दक्षिण भाग मे मन्त्री का आसन होना चाहिये । दूत का पूर्वोत्तर भाग में एवं प्रशास्ता का उत्तर भाग में आसन होना चाहिये । उसके दक्षिण भाग में सेनापति का आसन होना चाहिये । सभी आसनों के मध्य बराबर नालिक का अन्तर होना चाहिये । मन्त्रनालिका सुन्दर एवं एक-एक अंगुल की दूरी पर पाँच गाँठ से युक्त होनी चाहिये । यह छिद्रयुक्त एवं अग्र भाग में (दोनो ओर) कली से युक्त होनी चाहिये ॥१९२-१९४॥

प्रसाधनगृह

भवन की चौड़ाई के पाँच भाग एवं लम्बाई के छः भाग करने चाहिये । मध्य भाग में एक भाग (चौड़ा) एवं दो भाग लम्बा आँगन होना चाहिये । यह वक्ष के बराबर ऊँची भित्ति से ढँका होना चाहिये । उसके मध्य में वृत्ताकार प्रस्तर होना चाहिये तथा पूर्वोत्तर भाग में जलपूर्ण पात्र होना चाहिये । उसके दक्षिण भाग में केश धोने के लिये पर्यंक (आसन) होना चाहिये ॥१९५-१९६॥

मण्डप-मालिका पूर्वोत्तर द्वार से युक्त होती है । प्रसाधन करने वाली स्त्री का आसन मित्र के पद पर तथा वहीं पर महिलाओं का स्थानमण्डप होना चाहिये । इसका विस्तार पाँच हाथ से प्रारम्भ होकर पच्चीस हाथ तक विशम संख्या वाले माप में होना चाहिये । सभा, मण्डप एवं शालाओं की लम्बाई के सामान्य नियम होते है । चौड़ाई पन्द्रह हाथ होने पर लम्बाई इक्कीस हाथ एवं ऊँचाई चूली-पर्यन्त होनी चाहिये; किन्तु वर तेरह हाथ से अधिक नही होनी चाहिये ॥१९७-१९९॥

अभिषेकशाला

अभिषेक के अनुकूल शाला पूर्वाभिमुख निर्मित करनी चाहिये । इसके मध्य भाग में रंगमञ्च से युक्त सभा होनी चाहिये । राजा का मण्डप दक्षिण भाग मे होना चाहिये एवं जिस कक्ष में पट्टाभिषेक हो, उसे उत्तर दिशा में होना चाहिये ॥२००-२०१॥

(मध्य भाग में) पाँच, सात या नौ हाथ चौड़ी एवं लम्बाई में चौड़ाई की दुगुनी वेदिका होनी चाहिये । इसकी ऊँचाई चौड़ाई के तीन, चार या पाँच भाग के बराबर होनी चाहिये । स्तम्भों की ऊँचाई वेदिका के बराबर एवं चौड़ाई वेदिका के अनुसार होनी चाहिये । भीतरी भाग स्तम्भों से युक्त होना चाहिये; किन्तु मध्य भाग में स्तम्भ नही होना चाहिये । स्तम्भों की चौड़ाई बारह, सोलह या अट्ठारह अंगुल होनी चाहिये । एक भक्ति (माप की इकाई) पर्यन्त जाल से यह आवृत होना चाहिये; जिससे कि वहाँ प्रकाश का प्रवेश हो सके ॥२०२-२०४॥

तुलाभारस्थान

तुलाभार का स्थान - तुलाभार कृत्य के अनुरूप कूट या मण्डप होता है । तोरण्के स्तम्भ की लम्बाई तीन हाथ एवं व्यास दस अंगुल होना चाहिये । इसके पृष्ठ भाग में (ऊर्ध्व भाग मे) नौ, आठ या सात अंगुल की शिखा होनी चाहिये । इसे वास्तु के मध्य में इस प्रकार स्थापित करना चाहिये, जिससे यह दक्षिण-उत्तर की ओर रहे । तोरण के मध्य भाग की ऊँचाई समान होनी चाहिये ॥२०५-२०७॥

एक-दूसरे में प्रविष्ट लट्ठे (क्रास बीम) मध्य भाग में वक्रतुण्ड (मुड़े हुये मुख या सूँड की आकृति) से युक्त होते है । पूर्व से पश्चिम में लगाई गई प्रधान तुला के दोनों सिरे अचल (न हिलने-डूलने वाले) निर्मित करना चाहिये । तुला के मध्य में लगी अरे (तीलियाँ, श्रृंखलाये) महाराज के (पदादि) अनुसार होनी चाहिये । मध्य भाग में दृढ़ काष्ठ से निर्मित कुण्डल जड़ देना चाहिये । इस कुण्डल को वक्रतुण्ड से दृढ़तापूर्वक जोड़ना चाहिये । फलकासन (काष्ठ का आसन) का निर्माण पुं-काष्ठ या नपुंसक-काष्ठ को छोड़कर करना चाहिये । इसे समान्रूप से लम्बी एवं दृढ श्रृंखलाओं द्वार सावधानी से जोड़ना चाहिये । इसे दो-दो वक्रतुण्डों से दो-दो बार प्रयत्नपूर्वक जोड़ना चाहिये ॥२०८-२११॥

वास्तु की चारो दिशाओं मे तथा पूर्वमुख तोरण होना चाहिये । स्तम्भ, विष्ट (क्रास बीम) एवं तुला प्रशस्त एवं दृढ काष्ठों से निर्मित करना चाहिये । चारो ओर बाहर प्रपा (मण्डप) का निर्माण होना चाहिये, जो वास्तु के मध्य तक पहुँचता हो । उसी के बराबर उसके बाहर चारो ओर (दूसरी प्रपा) निर्मित करनी चाहिये । तोरण काष्ठ (क्रमशः) उदुम्बर (गूलर), वट (बड़), अश्वत्थ (पीपल) तथा न्यग्रोध (बरगद) के काष्ठ से निर्मित होना चाहिये । इसी क्रम से पीला, लाल, श्वेत एवं नीला ध्वज लगाना चाहिये ॥२१२-२१४॥

जब राजा तुला के बराबर (तुला के दोनो पलडे बराबर) हो जाय एवं राजा का मुख इन्द्र की दिशा (पूर्व) की ओर हो जाय, तो राजा को सभी सुख प्राप्त होते है । अपने सञ्चित सुवर्ण राशि को देखकर राजा पृथ्वी पर कुबेर के समान हो जाता है ॥२१५॥

हिरण्यगर्भस्थान

हिरण्यगर्भ का स्थान - सुवर्ण-गर्भ से युक्त भवन के भित्ति की लम्बाई सात या नौ हाथ, व्यास चौकोर एवं व्यास के बराबर भूतल से उसकी ऊँचाई होती है । स्तम्भ का व्यास दस या बारह अंगुल का कहा गया है । यह वृत्ताकार या चौकोर होता है एवं इसे भूमि के भीतर यथाशक्ति दृढ़तापूर्वक गाड़ना चाहिये । आवृतभित्ति (भवन के पास की भित्ति) की ऊँचाई तीन हाथ एवं इसकी वेदिका एक दण्ड ऊँची होनी चाहिये । (भवन का) भीतरी भाग सोलह विष्टों (क्रास बीम) की दो पंक्तियों से सुसज्जित होना चाहिये, जो स्तम्भों के अग्र भाग पर टिके है ॥२१६-२१८॥

उनकी ऊँचाई समान होनी चाहिये; ऊपर से ढँकी होनी चाहिये एवं लुपा के द्वारा इन्हे सहारा प्राप्त होना चाहिये । सभा के मध्य भाग में वेदिका निर्मित होनी चाहिये, जो सात हाथ चौड़ी एवं दो हाथ ऊँची या पाँच हाथ चौड़ी एवं दो हाथ ऊँची हो । उसके मध्य में गर्त होना चाहिये ॥२१९-२२०॥

बाहर जाल से युक्त भित्ति होनी चाहिये, जिसके बाहर प्रकाश हो । सभा की ऊँचाई नीव्र (छत का किनारा) के बराबर एवं चौडाई एक दण्ड प्रमाण की होनी चाहिये । उसके बाहर तेईस हाथ की परिखा होनी चाहिये । चारो दिशाओं में चार द्वार एवं दूध वाले वृक्षों के काष्ठ से निर्मित तोरण होना चाहिये । प्रत्येक तोरण का व्यास एवं ऊँचाई द्वार के बराबर होनी चाहिये ॥२२१-२२३॥

आठ मांगलिक पदार्थ काँसे के पात्र पर या अन्य धातु पर (अंकित कर) स्तम्भों के ऊपर तोरण पर लगाना चाहिये । चक्रवर्ती की शिखा (पहचान, चिह्न) को प्रत्येक द्वार पर लगाना चाहिये । सभी के लिये आठ मंगल- छत्र, ध्वज, पताका, भेरी, श्री, कुम्भ, दीपक एवं नन्द्यावर्त (स्वस्तिक) है ॥२२४-२२५॥

राजभवन के रक्षक का आवास द्वार की ऊँचाई का दुगुना होना चाहिये । राजभवन के बाहर की रक्षा बाहर चलने वाले लोगों (रक्षकों) के द्वारा की जानी चाहिये । राजा की इच्छानुसार रानी एवं राजकुमारी का आवास मालिका-भवन के अन्त में भूमि के नीचे या जहाँ मन को अच्छा लगे, वहाँ बनवाना चाहिये ॥२२६-२२७॥

राजा की इच्छानुसार राजभवन, कोष एवं अन्य भाग, रक्षा, प्रकार, गजशाला, अश्वशाला, रानियों का आवास आदि निर्मित करना चाहिये । नगर की संरचना परिस्थिति के अनुसार करनी चाहिये ॥२२८॥

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Last Updated : January 20, 2012

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