मित्रभेद - कथा ७

पंचतंत्र मतलब उच्चस्तरीय तात्पर्य कथा संग्रह।


एक दिन जंगल में रहने वाला चंडरव नाम का गीदड़ भूख से तड़पता हुआ लोभवश नगर में भूख मिटाने के लिये आ पहुँचा ।

उसके नगर में प्रवेश करते ही नगर के कुत्तों ने भौंकते-भौंकते उसे घेर लिया और नोचकर खाने लगे । कुत्तों के डर से चंडरव भी जान बचाकर भागा । भागते-भागते जो भी दरवाजा पहले मिला उसमें घुस गया । वह एक धोबी के मकान का दरवाजा था । मकान के अन्दर एक बड़ी कड़ाही में धोबी ने नील घोलकर नीला पानी बनाया हुआ था । कड़ाही नीले पानी से भरी थी । गीदड़ जब डरा हुआ अन्दर घुसा तो अचानक उस कडा़ही में जा गिरा । वहाँ से निकला तो उसका रंग ही बदला हुआ था । अब वह बिल्कुल नीले रंग का हो गया । नीले रंग में रंगा हुआ चंडरव जब वन में पहुँचा तो सभी पशु उसे देखकर चकित रह गये । वैसे रंग का जानवर उन्होंने आज तक नहीं देखा था ।

उसे विचित्र जीव समझकर शेर, बाघ, चीते भी डर-डर कर जंगल से भागने लगे । सबने सोचा, " न जाने इस विचित्र पशु में कितना सामर्थ्य हो । इससे डरना ही अच्छा है....।"

चंडरव ने जब सब पशुओं को डरकर भागते देखा तो बुलाकर बोला----"पशुओ ! मुझसे डरते क्यों हो ? मैं तुम्हारि रक्षा के लिये यहाँ आया हूँ । त्रिलोक के राजा ब्रह्मा ने मुझे आज ही बुलाकर कहा था कि----"आजकल चौपायों का कोई राजा नहीं है । सिंहमृगादि सब राजाहीन हैं । आज मैं तुझे उन सब का राजा बनाकर भेजता हूँ । तू वहाँ जाकर सबकी रक्षा कर ।’ इसीलिये मैं यहाँ आ गया हूँ । मेरी छत्रछाया मैं सब पशु आनन्द से रहेंगे । मेरा नाम ककुद्‌द्रुम राजा है ।"

यह सुनकर शेर-बाघ आदि पशुओं ने चंडरव को राजा मान लिया; और बोले, "स्वामी ! हम आपके दास हैं, आज्ञा-पालक हैं । आगे से आप की आज्ञा का ही हम पालन करेंगे ।"

चंडरव ने राजा बनने के बाद शेर को अपना प्रधान मंत्री बनाया, बाघ को नगर-रक्षक और भेड़िये को सन्तरी बनाया । अपने आत्मीय गीदड़ों को जंगल से बाहर निकाल दिया । उनसे बात भी नहीं की ।

उसके राज्य में शेर आदि जीव छोटे-छोटे जानवरों को मारकर चंडरव कीं भेंट करते थे; चंडरव उनमें से कुछ भाग खाकर शेष अपने नौकरों-चाकरों में बाँट देता था ।

कुछ दिन तो उसका राज्य बड़ी शान्ति से चलता रहा । किन्तु एक दिन बड़ा अनर्थ हो गया ।

उस दिन चंडरव को दूर से गीदड़ों की किलकारियाँ सुनाई दीं । उन्हें सुनकर चंडरव का रोम-रोम खिल उठा । खुशी में पागल होकार वह भी किल्करियाँ मारने लगा ।

शेर-बाघ आदि पशुओं ने जब उसकी किलकारियाँ सुनीं तो वे समझ गये कि यह चंडरव ब्रह्मा का दूत नहीं, बल्कि मामूली गीदड़ है । अपनी मूर्खता पर लज्जा से सिर झुकाकर वे आपस में सलाह करने लगे---"स गीदड़ ने तो हमें खूब मूर्ख बनाया, इसे इसका दंड दो, इसे मार डालो ।"

चंडरव ने शेर-बाघ आदि की बात सुन ली । वह भी समझ गया कि अब उसकी पोल खुल गई है । अब जान बचानी कठिन है । इसलिये वह वहाँ से भागा । किन्तु, शेर के पंजे से भागकर कहाँ जाता ? एक ही छलांग में शेर ने उसे दबोच कर खंड-खंड कर दिया ।

इसीलिये मैं कहता हूँ कि जो आत्मीयों को दुत्कार कर परायों को अपनाता है उसका नाश हो जाता है ।"

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दमनक की बात सुनकर पिंगलक ने कहा---"दमनक ! अपनी बात को तुम्हें प्रमाणित करना होगा । इसका क्या प्रमाण है कि संजीवक मुझे द्वेषभाव से देखता है ।"

दमनक----"इसका प्रमाण आप स्वयं अपनी आँखों से देख लेना । आज सुबह ही उसने मुझ से यह भेद प्रगट किया है कि कल वह आपका वध करेगा । कल यदि आप उसे अपने दरबार में लड़ाई के लिये तैयार देखें, उसकी आँखें लाल हों, होंठ फड़कते हों, एक ओर बैठकर आप को क्रूर वक्रदृष्टि से देख रहा हो, तब आप को मेरी बात पर स्वयं विश्वास हो जायगा ।"

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शेर पिंगलक को संजीवक बैल के विरुद्ध उकसाने के बाद दमनक संजीवक के पास गया । संजीवक ने जब उसे घबड़ाये हुए आते देखा तो पूछा---"मित्र ! स्वागत हो । क्या बात है ? बहुत दिन बाद आए ? कुशल तो है ?"

दमनक---"राज-सेवकों के कुशल का क्या पूछना ? उनका चित्त सदा अशान्त रहता है । स्वेच्छा से वे कुछ भी नहीं कर सकते । निःशंक होकर एक शब्द भी नहीं बोल सकते । इसीलिये सेवावृत्ति को सब वृत्तियों से अधम कहा जाता है ।"

संजीवक----"मित्र ! आज तुम्हारे मन में कोई विशेष बात कहने को है, वह निश्‍चिन्त होकर कहो । साधारणतया राजसचिवों को सब कुछ गुप्त रखाना चाहिये, किन्तु मेरे-तुम्हारे बीच कोई परदा नहीं है । तुम बेखटके अपने दिल की बात मुझ से कह सकते हो ।"

दमनक----"आपने अभय वचन दिया है, इसलिये मैं कह देता हूँ । बात यह है कि पिंगलक के मन में आप के प्रति पापभावना आगई है । आज उसने मुझे बिल्कुल एकान्त में बुलाकर कहा है कि कल सुबह ही वह आप को मारकर अन्य मांसाहारी जीवों की भूख मिटायेगा ।"

दमनक की बात सुनकर संजीवक देर तक हतप्रभ-सा रहा; मूर्छना सी छा गई उसके शरीर में । कुछ चेतना आने के बाद तीव्र वैराग्य-भरे शब्दों में बोला---"राजसेवा सचमुच बड़ा धोखे का काम है । राजाओं के दिल होता ही नहीं । मैंने भी शेर से मैत्री करके मूर्खता की । समान बल-शील वालों से मैत्री होती है; समान शील-व्यसन वाले ही सखा बना सकते हैं । अब, यदि मैं उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करुँगा तो भी व्यर्थ है, क्योंकि जो किसी कारण-वश क्रोध करे उसका क्रोध उस कारण के दूर होने पर दूर किया जा सकता है, लेकिन जो अकारण ही कुपित हो उसका कोई उपाय नहीं है । निश्चय ही, पिंगलक के पास रहने वाले जीवों ने ईर्ष्यावश उसे मेरे विरुद्ध उकसा दिया है । सेवकों में प्रभु की प्रसन्नता पाने की होड़ लगी ही रहती है । वे एक दूसरे की वृद्धि सहन नहीं करते ।"

दमनक----"मित्रवर ! यदि यही बात है तो मीठी बातों से अब राजा पिंगलक को प्रसन्न किया जा सकता है । वही उपाय करो ।"

संजीवक---"नहीं, दमनक ! यह उपाय सच्चा उपाय नहीं है । एक बार तो मैं राजा को प्रसन्न कर लूँगा किन्तु, उसके पास वाले कूट-कपटी लोग फिर किन्हीं दूसरे झूठे बहानों से उसके मन में मेरे लिये जहर भर देंगे और मेरे वध का उपाय करेंगे, जिस तरह गीदड़ और कौवे ने मिलकर ऊँट को शेर के हाथों मरवा दिया था ।

दमनक ने पूछा--- "किस तरह ?"

संजीवक ने तव ऊँट, कौवों और शेर की यह कहानी सुनाई----

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Last Updated : February 20, 2008

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