हिंदी सूची|हिंदी साहित्य|अनुवादीत साहित्य|दासबोध हिन्दी अनुवाद|देवशोधन नाम| सृष्टिकथननाम देवशोधन नाम देवशोधननाम ब्रह्मपावननाम मायोद्भवनाम ब्रह्मनिरूपणनाम सृष्टिकथननाम सगुणभजननाम दृश्यनिरसननाम सारशोधननाम अनिर्वाच्यनाम समास छठवां - सृष्टिकथननाम ‘संसार-प्रपंच-परमार्थ’ का अचूक एवं यथार्थ मार्गदर्शन समर्थ रामदास लिखीत दासबोध में है । Tags : dasbodhramdasदासबोधरामदास समास छठवां - सृष्टिकथननाम Translation - भाषांतर ॥ श्रीरामसमर्थ ॥ सृष्टि के पहले ब्रह्म रहते । तब सृष्टि कुछ भी न रहे । अब सृष्टि दिखती है । वह सत्य कि मिथ्या ॥१॥ आप सर्वज्ञ गोसावी । मिटायें आशंका मेरी । ऐसा श्रोता करे विनती । वक्ता से ॥२॥ अब सुनो प्रत्युत्तर । कथा के लिये हों तत्पर । वक्ता सर्वज्ञ उदार। कहने लगे ॥३॥ 'जीवभूतः सनातन' । ऐसे गीता का वचन । इस वाक्य से सत्यपन । सृष्टि में आया ॥४॥ 'यदृष्टं तन्नष्टं' ऐसे । वचन से सृष्टि मिथ्यापन से । सत्य मिथ्या कौन ऐसे । तय करे ॥५॥ सत्य कहें तो भी नाश पाये । मिथ्या कहें तो भी दिखे । अब जैसी है वैसे । है कहा जाता ॥६॥ सृष्टि में बहुत जन । अज्ञान और सज्ञान । इस कारण समाधान । होता नहीं ॥७॥ सुनो अज्ञान का मत । सृष्टि है वह शाश्वत । देव धर्म तीर्थ व्रत । सत्य ही है ॥८॥ बोले सर्वज्ञ का राजा । मूर्खस्य प्रतिमा पूजा । ब्रह्म प्रलय की शर्त । लगाकर देखे ॥९॥ तब बोले वह अज्ञान । फिर क्यों करे संध्या स्नान । गुरूभजन तीर्थाटन । क्यों करें ॥१०॥॥ श्लोक ॥ तीर्थे तीर्थे निर्मल ब्रह्मवृंद । वृंदे वृंदे तत्त्वचिंतानुवादः । वादे वादे जायते तत्त्वबोधः । बोधे बोधे भासते चंद्रचूडः ॥छ॥चंद्रचूड के वचन । सद्गुरु के उपासन । गुरुगीता निरूपण । कहे हैं हर ने ॥११॥ गुरू को भजें कैसे । पहले पहचानें उसे । उसका स्वयं विवेक से । समाधान लें ॥१२॥॥ श्लोक ॥ ब्रह्मानंद परमसुखदं केवल ज्ञानमूर्ति । द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्य । एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं । भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि ॥१॥ गुरूगीता का वचन । ऐसे सद्गुरू का ध्यान । वहां सृष्टि मिथ्याभान । रहे कैसे ॥१३॥ ऐसा सज्ञान ने कथन किया । सद्गुरू वह पहचान लिया । सृष्टि मिथ्या ऐसा किया । निश्चितार्थ ॥१४॥श्रोता ऐसे न माने कदा । और उठा वेवादा । कहे कैसा रे गोविंदा । अज्ञान कहते हो ॥१५॥ जीवभूतः सनातनः । ऐसे गीता का वचन । उसे तू अज्ञान । कहे कैसे ॥१६॥ ऐसा श्रोता आक्षेप करे । अंतरंग में विशाद माने । इसका प्रत्युत्तर चतुर सावधानी से । परिशीलन करें ॥१७॥ गीता में बोला गोविंद । उसका न समझे तुझे भेद । इस कारण व्यर्थ खेद । ढोता है तू ॥१८॥॥ श्लोक ॥ अश्वस्थः सर्ववृक्षाणां ॥छ ।॥मेरी विभूति पीपल । इस तरह बोले गोपाल । वृक्ष तोडने पर तत्काल । टूटता है ॥१९॥॥ श्लोक ॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥१॥शस्त्र से टूटे ना । अग्नि से जले ना । उदक में गले ना । स्वरूप मेरा ॥२०॥ पीपल टूटे शस्त्र से । पीपल जले पावक से । पीपल गले उदक से । नाशवंत ॥२१॥ टूटे जले डूबे उडे । अब ऐक्य कैसे गढे । अतः इस पर उजाला पडे । सद्गुरू मुख से ॥२२॥ इंद्रियाणां मनश्चास्मि । कहे कृष्ण मन तो मैं ही । तो फिर क्यों संवारे ऊर्मी । चंचल मन की ॥२३॥ ऐसे कृष्ण क्यों बोला । साधनमार्ग दिखलाया । कंकड जमाकर सिखाया । ओनामा जैसे ॥२४॥ ऐसा है वाक्यभेद । सर्व जाने वह गोविंद । देहबुद्धि का विवाद । काम न आये ॥२५॥ वेदशास्त्र श्रुति स्मृति । वहां वाक्यभेद होता । उन सभी का निर्णय होता । सद्गुरू वचनों से ॥२६॥वेदशास्त्रों के झगडे । ऐसा कौन जो शस्त्रों से तोडे । साधु बिन न निपटे । कदापि कल्पांततक ॥२७॥पूर्वपक्ष और सिद्धांत । शास्त्रों में कहे संकेत । इसका होता निश्चितार्थ । साधुमुख से ॥२८॥ अन्यथा वाद के उत्तर । एक से एक बढकर । कहने जाओ तो अपार । वेदशास्त्रों में ॥२९॥ इस कारण वादविवाद । छोडकर कीजिये संवाद । जिससे होगा ब्रह्मानंद । स्वानुभव से ॥३०॥ एक कल्पना के कारण ही । होती जाती अनंत सृष्टि । बातें उस सृष्टि की । सांच कैसे ॥३१॥ कल्पना का बनाया देव । वहां दृढ हुआ भाव । देव को होनेपर अपाय । भक्त दुःख से दुःखी हुआ ॥३२॥पाषाण का देव बनाया । एक दिन भग्न हुआ । उससे भक्त दुःखी हुआ। रोये गिरे आक्रंद करे ॥३३॥ एक देव घर में खो गया । एक देव चोर ले गया । एक देव फोड डाला । बलपूर्वक दुराचारी ने ॥३४॥ एक देव भ्रष्ट किया । एक देव उदक में डाला । एक देव को रौंद डाला । पैरों तले ॥३५॥ क्या कहे तीर्थ महिमा । उध्वस्त कर गया दुरात्मा । महान सत्त्व होने पर भी ना । समझे क्या हुआ ॥३६॥ देव बनाया सुनार ने । देव सांचे में ढाला ओतारी ने । एक देव बनाया संगतराश ने । पत्थर का ॥ ३७॥नर्मदागंडकीतटपर हैं । लक्ष के ऊपर देव पडे । उनकी संख्या कौन करे । असंख्यात है पत्थर ॥३८॥चक्रतीर्थ में चक्रांकित । देव रहते असंख्यात । नहीं मन में निश्चितार्थ । एक देव ॥३९॥ बाण लाल रंग के देव ताम्र सिक्के । स्फटिक मंदिर की पूजा विधाने । ऐसे देव कौन जाने । खरे कि खोटे ॥४०॥ देव रेशम का बनाया । वह भी टूट गया । अब नेम धरा नया । मृत्तिका का ॥४१॥ हमारा देव बहुत सत्य । हमें संकट में प्राप्त । पूर्ण करे मनोरथ । सर्वकाल ॥४२॥ अब इसका सत्त्व गया । प्राप्त होना था सो हो गया । प्राप्त न पलटाया गया । ईश्वर से ॥४३॥ धातु पाषाण मृत्तिका । चित्रलेप काष्ठ का । वहां देव कैसे रे मूर्खा । भ्रांति हो गई ॥४४॥ यह अपनी कल्पना । प्राप्तानुसार फल है मिलना । मगर उस देव के चिन्ह । अलग ही ॥४५॥ इस कारण यह मायाभ्रमण । सृष्टि मिथ्या कोटिगुना । वेदशास्त्र पुराण । ऐसे कहते ॥४६॥ साधुसंत महानुभाव । उनका ऐसा ही अनुभव । पंचभूतातीत देव । सृष्टि मिथ्या ॥४७॥ सृष्टिपूर्व सृष्टि रहते । सारे सृष्टि का संहार होते । शाश्वत देव आदि अंत में । तत्त्वतः ॥४८॥ ऐसा सभी का निश्चय । यदर्थी नहीं संशय । व्यतिरेक और अन्वय । कल्पनारूप ॥४९॥ एक कल्पना के कारण । कही जाती अष्ट सृष्टि । बातें उस सृष्टि की । सावधानी से सुनें ॥५०॥ एक कल्पना की सृष्टि । दूजी शाब्दिक सृष्टि । तीसरी प्रत्यक्ष सृष्टि । जानते सब ॥५१॥ चौथी चित्रलेपसृष्टि । पांचवीं स्वप्नसृष्टि । छठवीं गंधर्व सृष्टि । ज्वरसृष्टि सातवीं ॥५२॥ आठवीं दृष्टिबंधन । ऐसी ये अष्ट सृष्टि जान । इनमें श्रेष्ठ कौन । सत्य माने ॥५३॥ इस कारण सृष्टि नाशवंत । जानते संत महंत । सगुण को भजें निश्चित । निश्चय कारण से ॥५४॥ सगुण के आधार से । निर्गुण पायें निर्धार से । सारासार विचार से । संतसंग में ॥५५॥ अब रहने दो ये बहुत । संतसंग से समझे निश्चित । अन्यथा चित्त दुश्चित । संशय में पडे ॥५६॥ तब शिष्य ने आक्षेप किया । सृष्टि मिथ्या ये समझ में आया। परंतु ये सारी है मिथ्या । फिर दिखती क्यों ॥५७॥ दृश्य प्रत्यक्ष दिखता । इस कारण सत्य ही लगता । करे क्या अब इसका । कहियें स्वामी ॥५८॥ इसका प्रत्युत्तर भला । अगले समास में बोला । श्रोताओं ने श्रवण करना । चाहिये आगे ॥५९॥ एवं सृष्टि मिथ्या जान । जानकर करें सगुण रक्षण । ऐसे ये अनुभव के चिन्ह । अनुभवी जानते ॥६०॥इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सृष्टिकथननाम समास छठवां ॥६॥ N/A References : N/A Last Updated : February 14, 2025 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