शिकवणनाम - ॥ समास आठवां - उपाधिलक्षणनिरूपणनाम ॥

परमलाभ प्राप्त करने के लिए स्वदेव का अर्थात अन्तरस्थित आत्माराम का अधिष्ठान चाहिये!


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
सृष्टि में बहुत लोग । परिभ्रमण से समझे कौतुक । नाना प्रकार के विवेक । दिखने लगते ॥१॥
कितने सारे प्रपंची जन । अखंड वृत्ति उदासीन । सुख दुःख में समाधान । भंगे ना ॥२॥
स्वभाव से ही अचूक बोलते । सहज ही अचूक चलते । अपूर्व बोलने की स्थिति ये । सभी को माने ॥३॥
सहज ही तालज्ञान होता । स्वभावतः ही रागज्ञान उभरता । सहज ही समझते जाता । न्यायनीतिलक्षण ॥४॥
एखाध मिले गाजी । सारे लोग अखंड राजी । सदा सर्वदा प्रीति ताजी । प्राणिमात्रों की ॥५॥
भूल चूक से उदंड मिलता । भारी मनुष्य दृष्टि से दिखता। महंत के लक्षण जैसे लगता । अकस्मात् ॥६॥
ऐसे मिलते ही लोग । चमत्कार से गुणग्राहक । क्रिया बोलना अचूक । प्रत्यय का ॥७॥
सकल अवगुणों में अवगुण । अपने अवगुण लगते गुण । बडा पाप अभागापन । चूके ना कि ॥८॥
धडाके से ही काम होता सदा । जो सम्हलकर करने से ना हो सर्वदा । वहां दांव पेंच की आपदा । होती ही नहीं ॥९॥
एक को अभ्यास से ना आये । एक को सहज ही आये । भगवंत की महिमा कैसी ये । समझेना ॥१०॥
बडे राजकरण चूकते । राजकरणी घेराव करते । नाना भूलों की फजियत ये । चारों ओर ॥११॥
इसकारण चूकें नहीं । याने उदंड उपाय । उपाय के अपाय । चूकने से होते ॥१२॥
क्या चूके यह समझेना । मनुष्य मन ही पलटेना । खौला अभिमान गलेना । दोनों ओर ॥१३॥
सारा समाज ही नष्ट होता । लोगों का मन भग्न होता । चूकती युक्ति कहां । कुछ भी समझेना ॥१४॥
व्याप के बिना खटाटोप किया । वह सारा बिगड़ता ही गया । अकल को बांध नहीं रखा । दूरदृष्टि से ॥१५॥
एखाध मनुष्य ही कर्तत्वहीन । उसका करना ही पागलपन । नाना विकल्पों का जाल निर्माण । करके रखे ॥१६॥
वह स्वयं से सुलझेना । दूसरों को कुछ भी समझे ना । नाचे विकल्प से कल्पना । ठाई ठाई ॥१७॥
वे गुप्त कल्पनायें समझें किसे । कौन आकर सम्हालें उन्हें । जिसकी वही करें । दृढ बुद्धि ॥१८॥
जिससे उपाधि सम्हलेंना । वह उपाधि बढायें ना । सचेत करके मन । समाधानी रहें ॥१९॥
दौड दौडकर कर उपाधि से घिरे । स्वयं दुःखी लोगो को भी दुःखी करे । ऐसी खुसपुस' की बातें ये । काम की नहीं ॥२०॥
लोक बहुत दुःखी हुआ । स्वयं भी अत्यंत त्रस्त हुआ । व्यर्थ ही गल्बला' किया । किस कारण ॥२१॥
अस्तु उपाधि के ऐसे काम । कुछ अच्छे कुछ न्यून । सकल समझकर बर्ताव । करें भला ॥२२॥
लोगों के पास भावार्थ कैसा । स्वयं जागृत करें उनका । अंत में घोटाला है किसी का । होने ही ना दें ॥२३॥
अंतरात्मा से सारा संबंध रहे । निर्गुण में ये कुछ भी न लगे । नाना प्रकार के धोखे । चंचल के भीतर ॥२४॥
शुद्ध विश्रांति का स्थल । वह एक निर्मल निश्चल । वहां विकार ही सकल । निर्विकार होते ॥२५॥
उद्वेग सारे टूट जाते । मन को विश्रांति प्राप्त होये । ऐसी दुर्लभ परब्रह्मस्थिति ये । विवेक से सम्हालें ॥२६॥
स्वयं को उपाधि कुछ भी नहीं । ऋणानुबंध से मिला सर्व ही । आने जाने की क्षिति नहीं । ऐसा होना चाहिये ॥२७॥
जो उपाधि से ऊब गया । वह शांत होकर बैठ गया। सम्हलें नहीं ऐसा गल्बला । किस कारण ॥२८॥
कुछ गल्बला कुछ शांत । ऐसा बिताते जायें वक्त । जिससे हो सके हमें प्राप्त । विश्रांति का समय ॥२९॥
उपाधि कुछ रहती नहीं । समाधान समान श्रेष्ठ कुछ नहीं। नरदेह प्राप्त होता नहीं । क्षणक्षण ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे उपाधिलक्षणनिरूपणनाम समास आठवां ॥८॥

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Last Updated : December 09, 2023

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