शिकवणनाम - ॥ समास छठवां - बुद्धिवादनिरूपणनाम ॥

परमलाभ प्राप्त करने के लिए स्वदेव का अर्थात अन्तरस्थित आत्माराम का अधिष्ठान चाहिये!


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
परमार्थी और विवेकी । लोगों को मान्य उसकी कृति । क्योंकि वह पुनः पुनः विवरण कर गल्ती । होने ही ना दे ॥१॥
जो जो संदेह करते जन । वह सब कदापि करे ना । आदि अंत का अनुमान । करके रखे ॥२॥
स्वयं निःस्पृह रहे ना । उसका कहना ही माने ना । कठिन है जनार्दन । को राजी रखना ॥३॥
कोई जबरन उपदेश देते । कोई मध्यावर्ती में डालते । वे सहज ही मंद होते । लालच के कारण ॥४॥
जिससे कहे विवेक । उसे ही जानें प्रतिकुंचक । आगे जाकर नष्ट । कारोबार होता ॥५॥
भाई को भाई उपदेश देते ही । आगे आगे फजियत होती । परिचित लोगों में महती । करें ही नहीं ॥६॥
पहले दिखे परंतु नाश होये । विवेकी मान्य करेंगे कैसे । अविवेकी वे जैसे तैसे । मिलते वहां ॥७॥
भ्रतार शिष्य स्त्री गुरु । यह भी विपरीत विचारु । नाना भ्रष्टाकारी प्रकारु । वैसा ही है ॥८॥
प्रकट विवेक ना बोले । जनों से लुका छिपी करे। मुख्य निश्चय अनुमान में । आने ही ना दे ॥९॥
लहरी जैसी उड़ाने भरे । विवेक कहने पर भी ना धरे । दूरदृष्टि के पूरे । साधु नहीं वे ॥१०॥
किसी से कुछ भी ना मांगे । भगवद्भजन बढायें । विवेक बल से जन लगायें । भजन की ओर ॥११॥
परांतर की रक्षा का काम । बहुत कठिन विवेकका मर्म । स्वइच्छा से स्वधर्म । में लोकाचार ॥१२॥
स्वयं तुर्क गुरु बनाया । शिष्य चमार इकट्ठा किया । नीच याती से नष्ट हुआ । समुदाय ॥१३॥
ब्राह्मण मंडली को इकट्ठा करें । भक्त मंडली को मान्य करें । संत मंडली को खोजें । भूमंडल में ॥१४॥
उत्कट भव्य ही ग्रहण करें । हीन दीन सारा त्यागें । निस्पृहता से विख्यात बनें । भूमंडल में ॥१५॥
अक्षर भला पढ़ना भला । अर्थांतर कहना भला । गाना नाचना सारा ही भला । कंठस्थ करना ॥१६॥
दीक्षा भली मैत्री भली । तीक्ष्ण बुद्धि राजकरण में भली । नाना प्रकार से रक्षा करें स्वयं की । अलिप्तता से ॥१७॥
अखंड हरिकथा का छंदु । सबको लगे नामवेधु । प्रकट जिसका प्रबोधु । सूर्य जैसा ॥१८॥
दुर्जनों को रखना जाने । सज्जन को शांत करना जाने । सभी के मन का जाने । जिसका उसके अनुसार ॥१९॥
संगति से मनुष्य पलटे । उत्तम गुण तत्काल उपजे । अखंड अभ्यास में लग जाये । समुदाय ॥२०॥
जहां वहां नित्यनूतन । उत्कटता से चाहे उसे जन । परंतु लालच की उलझन । पड़ने ही ना दे ॥२१॥
उत्कट भक्ति उत्कट ज्ञान । उत्कट चातुर्य उत्कट भजन । उत्कट योग अनुष्ठान । ठाई ठाई ॥२२॥
उत्कट निस्पृहता धारण की । उसकी कीर्ति दिगंत में फैली । उत्कट भक्ति से शांत हुई । जनमंडली ॥२३॥
कुछ एक भी उत्कटता बिन । कीर्ति कदापि न बनती जान । व्यर्थ ही दर दर भटकन । से क्या होगा ॥२४॥
नहीं देह का भरोसा । कब आयु का अंत होगा । प्रसंग आयेगा कैसा । कौन जाने ॥२५॥
इस कारण सावधान रहें । जितना बनें उतना करें । भगवद्द्वीर्ति से भरें । भूमंडल ॥२६॥
स्वयं को जो जो अनुकुल । वह सब करें तत्काल । कर ना पाये वह केवल । विवेक से समझें ॥२७॥
विवेक में प्राप्त होयें ना । ऐसा तो कुछ भी रहे ना । एकांत में विवेक अनुमान । में लाकर छोडें ॥२८॥
अखंड प्रयत्न छानना जहां । देखो तो क्या कम वहां । एकांत के बिना कहां । बुद्धि प्राणियों को ॥२९॥
एकांत में विवेक धरें । आत्माराम पहचानें । यहां से वहां तक उलझने । कुछ भी नहीं ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे बुद्धिवादनिरूपणनाम समास छठवां ॥६॥

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Last Updated : December 09, 2023

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