लङ्काकाण्ड

`गीतावली` गोस्वामी तुलसीदास की एक प्रमुख रचना है जिसके गीतों में राम-कथा कही गयी है । सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है ।


२६६--०१---  लङ्काकाण्ड
२६६--०१---  मन्दोदरी-प्रबोध
२६७--राग--- मारु
२६७--०१---  मानु अजहू सिष परिहरि क्रोधु ।
२६७--०१---  पिय पूरो आयो अब काहि, कहु, करि रघुबीर-बिरोधु ॥
२६७--०२---  जेहि ताड़ुता-सुबाहु  मारि, मख राखि जनायो आपु ।
२६७--०२---  कौतुक ही मारीच नीच मिस प्रगट्यौ बिसिष-प्रतापु ॥
२६७--०३---  सकल भूप बल गरब सहित तोर्यो कठोर सिवचापु ।
२६७--०३---  ब्याही जेहि जानकी जीति जग, हर्यौ परसुधर-दापु ॥
२६७--०४---  कपट-काक साँसति-प्रसाद करि बिनु श्रम बध्यो बिराधु ।
२६७--०४---  खर-दूषन-त्रिसिरा-कबन्ध हति कियो सुखी सुर-साधु ॥
२६७--०५---  एकहि बान बालि मार्यो जेहि, जो बल-उदधि अगाधु ।
२६७--०५---  कहु, धौं कन्त कुसल बीती केहि किये राम-अपराधु ॥
२६७--०६---  लाँघि न सके लोक-बिजयी तुम जासु अनुज-कृत-रेषु ।
२६७--०६---  उतरि सिन्धु जार्यो प्रचारि पुर जाको दूत बिसेषु ॥
२६७--०७---  कृपासिन्धु, खल-बन-कृसानु सम, जस गावत श्रुति-सेषु ।
२६७--०७---  सोइ बिरुदैत बीर कोसलपति, नाथ! समुझि जिय देषु ॥
२६७--०८---  मुनि पुलस्त्यके जस-मयङ्क महँ कत कलङ्क हठि होहि ।
२६७--०८---  और प्रकार उबार नहीं कहुँ, मैं देख्यो जग जोहि ॥
२६७--०९---  चलु, मिलु बेगि कुसल सादर सिय सहित अग्र करि मोहि ।
२६७--०९---  तुलसिदास प्रभु सरन-सबद सुनि अभय करैङ्गे तोहि ॥
२६८--०१---  अंगदका दूतकर्म
२६८--राग--- कान्हरा
२६८--०१---  तू दसकण्ठ भले कुल जायो ।
२६८--०१---  ता महँ सिव-सेवा, बिरञ्चि-बर, भुजबल बिपुल जगत जस पायो ॥
२६८--०२---  खर-दूषन-त्रिसिरा, कबन्ध रिपु जेहि बाली जमलोक पठायो ।
२६८--०२---  ताको दूत पुनीत चरित हरि सुभ सन्देस कहन हौं आयो ॥
२६८--०३---  श्रीमद नृप-अभिमान मोहबस, जानत अनजानत हरि लायो
२६८--०३---  तजि ब्यलीक भजु कारुनीक प्रभु, दै जानकिहि सुनहि समुझायो ॥
२६८--०४---  जातें तव हित होइ, कुसल कुल, अचल राज चलिहै न चलायो ।
२६८--०४---  नाहित रामप्रताप-अनलमहँ ह्वै पतङ्ग परिहै सठ धायो ॥
२६८--०५---  जद्यपि अंगद नीति परम हित कह्यो, तथापि न कछु मन भायो ।
२६८--०५---  तुलसिदास सुनि बचन क्रोध अति, पावक जरत मनहु घृत नायो ॥
२६९--०१---  तैं मेरो मरम कछू नहिं पायो ।
२६९--०१---  रे कपि कुटिल ढीठ पसु पाँवर! मोहि दास-ज्यों डाटन आयो ॥
२६९--०२---  भ्राता कुम्भकरन  रिपुघातक, सुत सुरपतिहि बन्दि करि ल्यायो ।
२६९--०२---  निज भुजबल अति अतुल कहौं क्यों, कन्दुक ज्यों कैलास उठायो ॥
२६९--०३---  सुर, नर, असुर, नाग, खग, किन्नर सकल करत मोरो मन भायो ।
२६९--०३---  निसिचर रुचिर अहार मनुज-तनु, ताको जस खल! मोहि सुनायो ॥
२६९--०४---  कहा भयो, बानर सहाय मिलि, कर उपाय जो सिन्धु बँधायो ।
२६९--०४---  जो तरिहै भुज बीस घोर निधि, ऐसो को त्रिभुवनमें जायो ?॥
२६९--०५---  सुनि दससीस-बचन कपि-कुञ्जर बिहँसि ईस-मायहि सिर नायो ।
२६९--०५---  तुलसिदास लङ्केस कालबस गनत न कोटि जतन समझायो ॥
२७०--०१---  सुनु खल! मैं तोहि बहुत बुझायो ।
२७०--०१---  एतो मान सठ! भयो मोहबस, जानतहू चाहत बिष खायौ ॥
२७०--०२---  जगत-बिदित अति बीर बालि-बल जानत हौ, किधौं अब बिसरायो ।
२७०--०२---  बिनु प्रयास सोउ हत्यो एक सर, सरनागतपर प्रेम देखायो ॥
२७०--०३---  पावहुगे निज करम-जनित फल, भले ठौर हठि बैर बढ़ायो ।
२७०--०३---  बानर-भालु चपेट लपेटनि मारत, तब ह्वैहै पछितायो ॥
२७०--०४---  हौं ही दसन तोरिबे लायक, कहा करौं, जो न आयसु पायो ।
२७०--०४---  अब रघुबीर-बान-बिदलित उर सोवहिगो रनभूमि सुहायो ॥
२७०--०५---  अबिचल राज बिभीषनको सब, जेहि रघुनाथ-चरन चित लायो ।
२७०--०५---  तुलसिदास यहि भाँति बचन कहि गरजत चल्यो बालि-नृप जायो ॥
२७१--०१---  लक्ष्मण-मूर्च्छा
२७१--राग--- केदारा
२७१--०१---  राम-लषन उर लाय लये हैं ।
२७१--०१---  भरे नीर राजीव-नयन सब अँग परिताप तए हैं ॥
२७१--०२---  कहत ससोक बिलोकि बन्धु-मुख बचन प्रीति गुथए हैं ।
२७१--०२---  सेवक-सखा भगति-भायप-गुन चाहत अब अथए हैं ॥
२७१--०३---  निज कीरति-करतूति तात! तुम सुकृती सकल जए हैं ।
२७१--०३---  मैं तुम्ह बिनु तनु राखि लोक अपने अपलोक लए हैं ॥
२७१--०४---  मेरे पनकी लाज इहाँलौं हठि प्रिय प्रान दए हैं ।
२७१--०४---  लागति साँगि बिभीषन ही पर, सीपर आपु भए हैं ॥
२७१--०५---  सुनि प्रभु-बचन भालु-कपि-गन, सुर सोच सुखाइ गए हैं ।
२७१--०५---  तुलसी आइ पवनसुत-बिधि मानो फिरि निरमये नए हैं ॥
२७२--राग--- सोरठ
२७२--०१---  मोपै तो न कछू ह्वै आई ।
२७२--०१---  ओर निबाहि भली बिधि भायप चल्यो लखन-सो भाई ॥
२७२--०२---  पुर, पितु-मातु, सकल सुख परिहरि जेहि बन-बिपति बँटाई ।
२७२--०२---  ता सँग हौं सुरलोक  सोक तजि सक्यो न प्रान पठाई ॥
२७२--०३---  जानत हौं या उर कठोरतें कुलिस कठिनता पाई ।
२७२--०३---  सुमिरि सनेह सुमित्रा-सुतको दरकि दरार न जाई ॥
२७२--०४---  तात-मरन, तिय-हरन, गीध-बध, भुज दाहिनी गँवाई ।
२७२--०४---  तुलसी मैं सब भाँति आपने कुलहि कालिमा लाई ॥
२७३--०१---  मेरो सब पुरुषारथ थाको ।
२७३--०१---  बिपति बँटावन बन्धु-बाहु बिनु करौं भरोसो काको ॥
२७३--०२---  सुनु, सुग्रीव! साँचेहू मोपर फेर्यो बदन बिधाता ।
२७३--०२---  ऐसे समय समर-सङ्कट हौं तज्यो लषन-सो भ्राता ॥
२७३--०३---  गिरि, कानन जैहैं साखा-मृग, हौं पुनि अनुज-सँघाती ।
२७३--०३---  ह्वैहै कहा बिभीषनकी गति रही सोच भरि छाती ॥
२७३--०४---  तुलसी सुनि प्रभु-बचन भालु-कपि सकल बिकल हिय हारे ।
२७३--०४---  जामवन्त हनुमन्त बोलि तब, औसर जानि प्रचारे ॥
२७४--राग--- मारु
२७४--०१---  जौ हौं अब अनुसासन पावौं ।
२७४--०१---  तौ चन्द्रमहि निचोरि चैल-ज्यों, आनि सुधा सिर नावौं ॥
२७४--०२---  कै पाताल दलौं ब्यालावलि अमृत-कुण्ड महि लावौं ।
२७४--०२---  भेदि भुवन, करि भानु बाहिरो तुरत राहु दै तावौं ॥
२७४--०३---  बिबुध-बैद बरबस आनौं धरि, तौ प्रभु-अनुग कहावौं ।
२७४--०३---  पटकौं मीच नीच मूषक-ज्यौं, सबहिको पापु बहावौं ॥
२७४--०४---  तुम्हरिहि कृपा, प्रताप तिहारेहि नेकु बिलम्ब न लावौं ।
२७४--०४---  दीजै सोइ आयसु तुलसी-प्रभु, जेहि तुम्हरे मन भावौं ॥
२७५--०१---  सुनि हनुमन्त-बचन रघुबीर ।
२७५--०१---  सत्य, समीर-सुवन! सब लायक, कह्यो राम धरि धीर ॥
२७५--०२---  चहिये बैद, ईस-आयसु धरि सीस कीस बलाइन ।
२७५--०२---  आन्यो सदनसहित सोवत ही, जौलौं पलक परै न ॥
२७५--०३---  जियै कुँवर, निसि मिलै मूलिका, कीन्हीं बिनय सुषेन ।
२७५--०३---  उठ्यो कपीस,सुमिरि सीतापति चल्यो सजीवनि लेन ॥
२७५--०४---  कालनेमि दलि बेगि बिलोक्यौ द्रोनाचल जिय जानि ।
२७५--०४---  देखी दिब्य ओषधी जहँ तहँ जरी, न परि पहिचानि ॥
२७५--०५---  लियो उठाय कुधर कन्दुक-ज्यौं, बेग न जाइ बखानि ।
२७५--०५---  ज्यों धाए गजराज-उधारन सपदि सुदरसनपानि ॥
२७५--०६---  आनि पहार जोहारे प्रभु, कियो बैदराज उपचार ।
२७५--०६---  करुनासिन्धु बन्धु भेण्ट्यो, मिटि गयो सकल दुख-भार ॥
२७५--०७---  मुदित भालु कपि-कटक, लह्यो जनु समर पयोनिधि पार ।
२७५--०७---  बहुरि ठौरही राखि महीधर आयो पवनकुमार ॥
२७५--०८---  सेन सहित सेवकहि सराहत पुनि पुनि राम सुजान ।
२७५--०८---  बरषि सुमन, हिय हरषि प्रसंसत बिबुध बजाइ निसान ॥
२७५--०९---  तुलसिदास सुधि पाइ निसाचर भए मनहु बिनु प्रान ।
२७५--०९---  परी भोरही रोर लङ्कगढ़, दई हाँक हनुमान ॥
२७६--राग---       केदारा
२७६--०१---  कौतुक ही कपि कुधर लियो है ।
२७६--०१---  चल्यो नभ नाइ माथ रघुनाथहि, सरिस न बेग बियो है ॥
२७६--०२---  देख्यो जात जानि निसिचर, बिनु फर सर हयो हियो है ।
२७६--०२---  पर्यो कहि राम, पवन राख्यो गिरि, पुर तेहि तेज पियो है ॥
२७६--०३---  जाइ भरत भरि अंक भेण्टि अंक भेण्टि निज, जीवन-दान दियो है ।
२७६--०३---  दुख लघु लषन मरम-घायल सुनि, सुख बड़ो कीस जियो है ॥
२७६--०४---  आयसु इतहि, स्वामि-सङ्कट उत, परत न कछू कियो है ।
२७६--०४---  तुलसिदास बिदर्यो अकास, सो कैसेकै जात सियो है ॥
२७७--०१---  भरत-सत्रुसूदन बिलोकि कपि चकित भयो है ।
२७७--०१---  राम-लषन रन जीति अवध आए, कैधौं मोहि भ्रम,
२७७--०१---  कैधौं काहू कपट ठयो है ॥
२७७--०२---  प्रेम पुलकि, पहिचानिकै पदपदुम नयो है ।
२७७--०२---  कह्यो न परत जेहि भाँति दुहू भाइन
२७७--०२---  सनेहसों सो उर लाय लयो है ॥
२७७--०३---  समाचार कहि गहरु भो, तेंहि ताप तयो है ।
२७७--०३---  कुधर सहित चढ़ौ बिसिष, बेगि पठवौं, सुनि
२७७--०३---  हरि हिय गरब गूढ़ उपयो है ॥
२७७--०४---  तीरतें उतरि जस कह्यो चहै, गुनगननि जयो है ।
२७७--०४---  धनि भरत! धनि भरत! करत भयो,
२७७--०४---  मगन मौन रह्यो मन अनुराग रयो है ॥
२७७--०५---  यह जलनिधि खन्यो, मथ्यो, लँघ्यो, बाँध्यो, अँचयो है ।
२७७--०५---  तुलसिदास रघुबीर बन्धु-महिमाको सिन्धु
२७७--०५---  तरि को कबि पार गयो है ?॥
२७८--०१---  होतो नहि जौ जग जनम भरतको ।
२७८--०१---  तौ, कपि कहत, कृपान-धार मग चलि आचरत बरत को ?॥
२७८--०२---  धीरज-धरम धरनिधर-धुरहूँतें गुर धुर धरनि धरत को ?।
२७८--०२---  सब सदगुन सनमानि आनि उर, अघ-औगुन निदरत को ?॥
२७८--०३---  सिवहु न सुगम सनेह रामपद सुजननि सुलभ करत को ?।
२७८--०३---  सृजि निज जस-सुरतरु तुलसी कहँ, अभिमत फरनि फरत को ?॥
२७९--०१---  सुनि रन घायल लषन परे हैं ।
२७९--०१---  स्वामिकाज सङ्ग्राम सुभटसों लोहे ललकारि लरे हैं ॥
२७९--०२---  सुवन-सोक, सन्तोष सुमित्रहि, रघुपति-भगति बरे हैं ।
२७९--०२---  छिन-छिन गात सुखात, छिनहिं छिन हुलसत होत हरे हैं ॥
२७९--०३---  कपिसों कहति सुभाय, अंबके अंबक अंबु भरे हैं ।
२७९--०३---  रघुनन्दन बिनु बन्धु कुअवसर, जद्यपि धनु दुसरे हैं ॥
२७९--०४---  "तात! जाहु कपि सँग, रिपुसूदन उठि कर जोरि खरे हैं ।
२७९--०४---  प्रमुदित पुलकि पैन्त पूरे जनु बिधिबस सुढर ढरे हैं ॥
२७९--०५---  अंब-अनुजगति लखि पवनज-भरतादि गलानि गरे हैं ।
२७९--०५---  तुलसी सब समुझाइ मातु तेहि समय सेचत करे हैं ॥
२८०--०१---  बिनय सुनायबी परि पाय ।
२८०--०१---  कहौं कहा, कपीस! तुम्ह सुचि, सुमति, सुहृद सुभाय ॥
२८०--०२---  स्वामि-सङ्कट-हेतु हौं जड़ जननि जनम्यो जाय ।
२८०--०२---  समौ पाइ, कहाइ सेवक घट्यो तौ न सहाय ॥
२८०--०३---  कहत सिथिल सनेह भो, जनु धीर घायल घाय ।
२८०--०३---  भरत-गति लखि मातु सब रहि ज्यौं गुड़ी बिनु बाय ॥
२८०--०४---  भेण्ट कहि कहिबो, कह्यो यों कठिन-मानस माय ।
२८०--०४---  "लाल! लोने लषन-सहित सुललित लागत नाँय ॥
२८०--०५---  देखि बन्धु-सनेह, अंब सुभाउ, लषन-कुठाय ।
२८०--०५---  तपत तुलसी तरनि-त्रासुक एहि नये तिहुँ ताय ॥
२८१--०१---  हृदय घाउ मेरे पीर रघुबीरै ।
२८१--०१---  पाइ सजीवन, जागि कहत यों प्रेमपुलकि बिसराय सरीरै ॥
२८१--०२---  मोहि कहा बूझत पुनि पुनि, जैसे पाठ-अरथ-चरचा कीरै ।
२८१--०२---  सोभा-सुख, छति-लाहु भूपकहँ, केवल कान्ति-मोल हीरै ॥
२८१--०३---  तुलसी सुनि सौमित्रि-बचन सब धरि न सकत धीरौ धीरै ।
२८१--०३---  उपमा राम-लषनकी प्रीतिकी क्यों दीजै खीरै-नीरै ॥
२८२--०१---  विजयी राम
२८२--राग--- कान्हरा
२८२--०१---  राजत राम काम-सुत-सुन्दर ।
२८२--०१---  रिपु रन जीति अनुज सँग सोभित, फेरत चाप-बिसिष बनरुह-कर ॥
२८२--०२---  स्याम सरीर रुचिर श्रम-सीकर, सोनित-कन बिच बीच मनोहर ।
२८२--०२---  जनु खद्योत-निकर, हरिहित-गन, भ्राचत मरकत-सैल-सिखरपर ॥
२८२--०३---  घायल बीर बिराजत चहुँ दिसि, हरषित सकल रिच्छ अरु बनचर ।
२८२--०३---  कुसुमित किंसुक-तरु समूह महँ, तरुन तमाल बिमाल बिटप बर ॥
२८२--०४---  राजिव-नयन बिलोकि कृपा करि, किए अभय मुनि-नाग, बिबुध-नर ।
२८२--०४---  तुलसिदास यह रूप अनुपम हिय-सरोज बसि दुसह बिपतिहर ॥
२८३--०१---  अयोध्यामें प्रतीक्षा
२८३--राग--- आसावरी
२८३--०१---  अवधि आजु किधौं औरो दिन ह्वैहै ।
२८३--०१---  चढ़ि धौरहर बिलोकि दखिन दिसि, बूझ धौं पथिक कहाँते आये वै हैं ॥
२८३--०२---  बहुरि बिचारि हारि हिय सोचति, पुलकि गात लागे लोचन च्वैहैं ।
२८३--०२---  निज बासरनि बरष पुरवैगो बिधि, मेरे तहाँ करम कठिन कृत क्वैहैं ॥
२८३--०३---  बन रघुबीर, मातु गृह जीवति, निलज प्रान सुनि सुनि सुख स्वैहैं ।
२८३--०३---  तुलसिदास मो-सी कठोर-चित कुलिस सालभञ्जनि को ह्वैहैं ॥
२८४--०१---  आली, अब राम-लषन कित ह्वै हैं ।
२८४--०१---  चित्रकूट तज्यौ तबतें न लही सुधि, बधू-समेत कुसल सुत द्वै हैं ॥
२८४--०२---  बारि बयारि, बिषम हिम-आतप सहि बिनु बसन भूमितल स्वै हैं ।
२८४--०२---  सन्द-मूल, फल-फूल असन बन, भोजन समय मिलत कैसे वैहैं ॥
२८४--०३---  जिन्हहि बिलकि सोचिहैं लता-द्रुम, खग-मृग-मुनि लोचन जल च्वैहैं ।
२८४--०३---  तुलसिदास तिन्हकी जननि हौं, मो-सी निठुर-चित औरो कहुँ ह्वैहैं ॥
२८५--०१---  बैठी सगुन मनावति माता ।
२८५--०१---  कब ऐहैं मेरे बाल कुसल घर, कहहु, काग! फुरि बाता ॥
२८५--०२---  दूध-भातकी दोनी दैहौं, सोने चोञ्च मढ़ैहौं ।
२८५--०२---  जब सिय-सहित बिलोकि नयन भरि राम-लषन उर लैहौं ॥
२८५--०३---  अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी ।
२८५--०३---  गनक बोलाइ, पाँय परि पूछति प्रेम मगन मृदु बानी ॥
२८५--०४---  तेहि अवसर कोउ भरत निकटतें समाचार लै आयो ।
२८५--०४---  प्रभु-आगमन सुनत तुलसी मनो मीन मरत जल पायो ॥
२८६--०१---  छेमकरी! बलि, बोलि सुबानी ।
२८६--०१---  कुसल छेम सिय राम-लषन कब ऐहैं, अंब! अवध रजधानी ॥
२८६--०२---  ससिमुखि, कुङ्कुम-बरनि, सुलोचनि, मोचनि सोचनि बेद बखानी ।
२८६--०२---  देवि! दया करि देहि दरसफल, जोरि पानि बिनवहिं सब रानी ॥
२८६--०३---  सुनि सनेहमय बचन, निकट ह्वै, मञ्जुल मण्डल कै मड़रानी ।
२८६--०३---  सुभ मङ्गल आनन्द गगन-धुनि अकनि-अकनि उर-जरनि जुड़ानी ॥
२८६--०४---  फरकन लगे सुअंग बिदिसि दिसि, मन प्रसन्न, दुख-दसा सिरानी ।
२८६--०४---  करहिं प्रनाम सप्रेम पुलकि तनु, मानि बिबिध बलि सगुन सयानी ॥
२८६--०५---  तेहि अवसर हनुमान भरतसों कही सकल कल्यान-कहानी ।
२८६--०५---  तुलसिदास सोइ चाह सजीवनि बिषम बियोग ब्यथा बड़ि भानी ॥
२८७--०१---  अयोध्यामें आनन्द
२८७--राग--- धनाश्री
२८७--०१---  सुनियत सागर सेतु बँधायो ।
२८७--०१---  कोसलपतिकी कुसल सकल सुधि कोउ इक दुत भरत पहँ ल्यायो ॥
२८७--०२---  बध्यो बिराध, त्रिसिर, खर-दूषन सूर्पनखाको रूप नसायो ।
२८७--०२---  हति कबन्ध, बल-अंध बालि दलि, कृपासिन्धु सुग्रीव बसायो ॥
२८७--०३---  सरनागत अपनाइ बिभीषन, रावन सकुल समूल बहायो ।
२८७--०३---  बिबुध-समाज निवाजि, बाँह दैं बन्दिछोर बर बिरद कहायो ॥
२८७--०४---  एक-एकसों समाचार सुनि नगर लोग जहँ तहँ सब धायो ।
२८७--०४---  घन-धुनि अकनि मुदित मयूर-ज्यों, बूड़त जलधि पार-सो पायो ॥
२८७--०५---  "अवधि आजु यौं कहत परसपर, बेगि बिमान निकट पुर आयो ।
२८७--०५---  उतरि अनुज-अनुगनि समेत प्रभु गुर-द्विजगन सिर नायो ॥
२८७--०६---  जो जेहि जोग राम तेहि बिधि मिलि, सबके मन अति मोद बढ़ायो ।
२८७--०६---  भेण्टी मातु, भरत भरतानुज, क्यों कहौं प्रेम अमित अनमायो ॥
२८७--०७---  तेही दिन मुनिबृन्द अनन्दित तुरत तिलकको साज सजायो ।
२८७--०७---  महाराज रघुबंस-नाथको सादर तुलसिदास गुन गायो ॥
२८८--०१---  राज्याभिषेक
२८८--राग--- जैतश्री
२८८--०१---  रन जीति राम राउ आए ।
२८८--०१---  सानुज सदल ससीय कुसल आजु, अवध आनन्द-बधाए ॥
२८८--०२---  अरिपुर जारि, उजारि, मारि रिपु, बिबुध सुबास बसाए ।
२८८--०२---  धरनि-धेनु, महिदेव-साधु, सबके सब सोच नसाए ॥
२८८--०३---  दई लङ्क, थिर थपे बिभीषन, बचन-पियूष पिआए ।
२८८--०३---  सुधा सीञ्चि कपि, कृपा नगर-नर-नारि निहारि जिआए ॥
२८८--०४---  मिलि गुर, बन्धु, मातु, जन, परिजन, भए सकल मन भाए ।
२८८--०४---  दरस-हरस दसचारि बरसके दुख पलमें बिसराए ॥
२८८--०५---  बोलि सचिव सुचि, सोधि सुदिन, मुनि मङ्गल-साज सजाए ।
२८८--०५---  महाराज-अभिषेक बरषि सुर सुमन निसान बजाए ॥
२८८--०६---  लै लै भेण्ट नृप-अहिप-लोकपति अति सनेह सिर नाए ।
२८८--०६---  पूजि, प्रीति पहिचानि राम आदरे अधिक, अपनाए ॥
२८८--०७---  दान मान सनमानि जानि रुचि, जाचक जन पहिराए ।
२८८--०७---  गए सोक-सर सूखि, मोद-सरिता-समुद्र गहिराए ॥
२८८--०८---  प्रभु-प्रताप-रबि अहित-अमङ्गल-अघ-उलूक-तम ताए ।
२८८--०८---  किये बिसोक हित-कोक-कोकनद लोक सुजस सुभ छाए ॥
२८८--०९---  रामराज कुलकाज सुमङ्गल, सबनि सबै सुख पाए ।
२८८--०९---  देहिं असीस भूमिसुर प्रमुदित, प्रजा प्रमोद बढ़ाए ॥
२८८--१०---  आस्रम-धरम-बिभाग बेदपथ पावन लोग चलाए ।
२८८--१०---  धरम-निरत, सिय-राम-चरन-रत, मनहु राम-सिय-जाए ॥
२८८--११---  कामधेनु महि, बिटप कामतरु, कोउ बिधि बाम न लाये ।
२८८--११---  ते तब, अब तुलसी तेउ जिन्ह हित सहित राम-गुन गाये ॥
२८९--राग--- टोड़ी
२८९--०१---  आजु अवध आनन्द-बधावन, रिपु रन जीति राम आए ।
२८९--०१---  सजि सुबिमान निसान बजावत मुदित देव देखन धाए ॥
२८९--०२---  घर-घर चारु चौक, चन्दन-मनि, मङ्गल-कलस सबनि साजे ।
२८९--०२---  ध्वज-पताक, तोरन, बितानबर, बिबिध भाँति बाजन बाजे ॥
२८९--०३---  राम-तिलक सुनि दीप दीपके नृप आए उपहार लिये ।
२८९--०३---  सीयसहित आसीन सिंहासन निरखि जोहारत हरष हिये ॥
२८९--०४---  मङ्गलगान, बेदधुनि, जयधुनि, मुनि-असीस-धुनि भुवन भरे ।
२८९--०४---  बरषि सुमन सर-सिद्ध प्रसंसत, सबके सब सन्ताप हरे ॥
२८९--०५---  राम-राज भै कामधेनु महि, सुख सम्पदा लोक छाए ।
२८९--०५---  जनम जनम जानकीनाथके गुनगन तुलसिदास गाये ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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