सत्ताइसवाँ पटल - प्राणायाम लक्षण

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


आनन्दभैरव उवाच

आनन्दभैरव ने कहा --- हे भैरवी ! हे कान्ते ! हे प्रियम्वदे ! तुमने अनेक प्रकार के योगशास्त्र , इसकी सर्वरुपता तथा सभी तत्त्वों में उज्ज्वल अष्टाङ्गयोगा के फलों का प्रतिपादन किया । अब मैं शक्ति - तत्त्व के क्रम से पूर्वोक्त प्राणवायु का ग्रहण उस प्राणवायु का धारण , फिर प्रत्याहार , धारणा ध्यान तथा समाधि सुनना चाहता हूँ उसे कहिए ॥१ - ३॥

आनन्दभैरवी ने कहा --- हे प्राणेश ! अब प्राणायाम के फलाफल को कहती हूँ । बहुत विस्तार पूर्वक प्राणवायु को ग्रहण न करे और स्वल्प रुप में कुम्भक भी न करे ॥४॥

प्राणायाम धीरे धीरे करना चाहिए , संघात (= एक साथ तेजी से वायु खींचना ) विवर्जित रखे । पूरकाहलाद की सिद्धि के लिए सौ सौ की संख्या में प्राणायाम का विधान है प्राण लक्षण की वृद्धि के लिए जिस जिस दिन प्राण वायु की गति जहाँ से होती है उसका फलोदय इस प्रकार है - कृष्ण पक्ष में तथा शुक्लपक्ष में कुल ३० तिथियाँ होती है ॥५ - ६॥

शुक्लपक्ष में ईळा से कृष्णपक्ष में पिङ्रला द्वारा वायु को सर्वत्र गमन कराना चाहिए । सुषुम्ना तो बहुरुपिणी है । शुक्लपक्ष में प्रतिपदा से लेकर तीन तिथि पर्यन्त हे महाप्रभो ! दाहिनी नासिका से पिङ्गला से दोनों से वायुसञ्चार होता है ॥७ - ८॥

इसके बाद शुक्ल पक्ष से चतुर्थी पञ्चमी , षष्ठी , पर्यन्त वायुधारण कर्म में बायें नासिका से देवताओं का उदय होता है , अतः उसी से वायु ग्रहण करना चाहिए । इसके अनन्तर शाक्त विद्या के उपासकों को सप्तमी अष्टमी , नवमीं पर्यन्त बाई नासिका से ही वायु ग्रहण करना चाहिए ॥९ - १०॥

इसके बाद दशर्मी , एकादशी तथा द्वादशी , को वायु दक्षिण नासापुट में व्याप्त हो कर चलता है , अतः उसी से वायु ग्रहण करना चाहिए । फिर त्रयोदशी , चतुर्दशी तथा पूर्णमासी को बायें नासिका के छिद्र से वायु ग्रहण करना चाहिए । अब कृष्णपक्ष में चलने वाले वायु का फल कहती हूँ , जिसे जान कर साधक अमर हो जाता है तथा काल का ज्ञानी हो जाता है , इसमें विचार की आवश्यकता नहीं ॥११ - १३॥

कृष्णपक्ष में प्रतिपदा , द्वितीया तथा तृतीया तक पिङ्गला में व्याप्त हो कर वायु निकलता रहता है । फिर कृष्णपक्ष के चतुर्थी , पञ्चमी तथा षष्ठी , तिथि को बायें नासिका के छिद्र से वायु संचरण होता है , इसके बाद सप्तमी , अष्टमी , नवमी , तिथि पर्यन्त दक्षिण नासिका से वायु सञ्चार होता है ॥१४ - १५॥

इसके बाद दशमी एकादशी पर्यन्त वायु सर्वदा वामनासापुट से चलता है अन्य तिथियों में सर्वदा दक्षिण नासापुट से वायु प्रवाहित होती है । जब मनुष्य इससे विपरीत वायु का सञ्चार प्राप्त करता है तब उस विपक्ष की अवस्था में उसे मरण रोग तथा बन्धुनाश प्राप्त होता है ॥१६ - १७॥

इस लक्षण को देखकर अपनी जन्म तिथि से भिन्न तिथि में उसे रोकने का प्रयत्न करे और जन्म नाश के लिए प्राणायाम करने का प्रयत्न करे । जब मरण का ज्ञान निश्चित हो जाय और देह त्याग कर जाने की बारी आ जाय तब अपनी श्वास रोक कर कालाग्नि में नीचे वायु धारण करें ॥१८ - १९॥

जब तक वायु अपने स्थान पर न आ जाय तब तक इस क्रिया का अभ्यास करे , जिससे देह चलायमान न हो और न तो मन ही चञ्चल हो । प्राणायाम के धीरे धीरे अभ्यास करने से पुरुष के देह में स्वेद का उद्‍गम होने लगता है - यह अधम प्राणायाम है । इसके बाद जब शरीर में कम्पान होने लगे तो मध्यम प्राणायाम होता है । जबकि भूमित्याग कर ऊपर उठने की अवस्था तो उत्तम प्राणायाच का लक्षण है । ६ महीने के अनन्तर उसे समस्त भूत तत्त्वों के दर्शन हो जाते हैं । इतना ही नही वह दूर की भी बात सुनने में समर्थ हो जाता है । इस प्रकार एक संवत्सर के अभ्यास से वह योग विद्या प्रकाश करने लगता है ॥२० - २२॥

योगी को सूक्ष्म दर्शन दृष्टि प्राप्त होने लगे तो वह वास्तव में योगी बन जाता है । ऐसा योगी सारे तन्त्रों का तथा अपने क्रमों का जानकार हो जाता है । इस प्राकर प्राणायाम का फल कहा । अब प्रत्याहार का फल कहती हूँ , जिसके करने से साधक खेचर बन जाता है । वह ईश्वर में भक्ति प्राप्त करता है और सारे धर्मों का साक्षात्कार करने लगता है ॥२३ - २४॥

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Last Updated : July 30, 2011

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